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Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Thursday, April 10, 2014

असली जिम्मेदार कौन है?ईश्वर की मृत्युघोषणा से पहले अमेरिका ने नया ईश्वर गढ़ दिया है,जिसे मंदिर में बसा रहे हैं हम।

असली जिम्मेदार कौन है?ईश्वर की मृत्युघोषणा से पहले अमेरिका ने नया ईश्वर गढ़ दिया है,जिसे मंदिर में बसा रहे हैं हम।


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास


कभी आपने सोचा है कि कौन है असली जिम्मेदार इस महंगे दौर के लिए ? चादर उतनी ही है,फैलाते रहने की कसरत में लेकिन रात दिन की कसरत है।हमारी क्रयशक्ति के दायरे से बाहर क्यों हैं तमाम जरुरी चीजें,बुनियादी जरुरतें और सेवााएं?क्या बढ़ती हुई आबादी इसकी मूल वजह  है या संसाधनों की लूट खसोट या बेदखली का अनंत सिलसिला और यह अंधा आत्मघाती शहरीकरण है जिम्मेदार,जिसकी चकाचौंध में जल जंगल जमीन आजीविका नौकरी नागरिकता और तमाम हकहकूक से निरंतर खारिज कर दिये जाने के बाद हमारी इंद्रियों में कामोत्तेजना के सिवाय कोई अहसास ही नहीं है,खून का दरिया चारों तरफ है और हम हरियाले हुए जाते हैं, वधस्थल पर जश्न में जुनून की हद तक शामिल हैं हम इसतरह कि गला रेंता जा रहा है और किसी को कोई खबर तक नहीं  है ?क्या है कोई साजिस गहरी सी गहराती हरवक्त और हम बेखबर?


इन हालात के लिए हम और हमीं सवाल पूछे अपने आइने से मुखातिब होकर कम से कम एक दफा कि आखिरकार  हम जिम्मेदार किसे ठहराएंगे?


देश जो बेचा जा रहा है,उसके खिलाफ हम मौन हैं और धर्मोन्मादी राष्ट्रवादी ध्रूवीकरण के हम मुखर सैनिक हैं।


हम फिर फिर देश बेचो कारोबार के सरगना चुन रहे हैं बार बार।बार बार।


आत्महत्या करते किसानों की लाशें हमारे ख्वाबों में हमें मृतात्माओं का सामना करने के लिए मजबूर नहीं करतीं।


अपनों की चीखें हमें बेचैन नहीं करती।


सूखी नदियों की रुलाई हमारी दम नहीं घोंटती।


जख्मी घाटियों का दर्द हमारे हिस्से का दर्द नहीं।

कब्रिस्तान बने देहात हमारा दोहात नहीं।

यह मृत्यु उपत्यका हमारा देश नहीं ।

ग्रहांतरवासी शासक तबके के अलगाववादी समूह में चर्बीदार बनने की आपाधापी में हम भूल गये कि मनुष्यता और प्रकृति दोनों खतरे में हैं तो आखिरकार मारे तो हम भी जायेंगे।


शौतानी वैश्विक  हुकूमत के गुलाम हैं हम।


आजादी का जश्न मना रहे हैं हम। गुरुवार को देश में इकानब्वे लोकसभा चुनावों में भारी मतदान के पैमाने से हम उस जम्हूरियत की सेहत तौल रहे हैं,जिसका वजूद पहले से ही खत्म है।


हकीकत तो यह है बंधु, हमारे मताधिकार की औकात बता दी है अमेरिका ने।पांचवे हिस्से के मतदान से पहले अमेरिका में विजय पताका फहरा दिया गया है नमोमय ब्रांड इंडिया का।जिन रेटिंग एजंसियों को भारत की वृद्धि दर और वित्तीय घाटा पर चेतावनियां जारी करने से फुरसत नहीं थीं, पेशेवर नैतिकता और मुक्त बाजार के नियमों के विपरीत,राजनयिक बाध्यताओं के प्रतिकूल मोदी की जीत में भारत उदय की घोषणाएं कर रही हैं।


पलक पांवड़े बिछाकर नमो प्रधानमंत्री का इंतजार हो रहा है,उस अमेरिका में जहां कल तक अवांछित थे नमो।


जैसे कि गुजरात का नरसंहार क्या तारीख के पन्नों से सिरे से गायब हो चुका है या मानवाधिकार के अमेरिकी पैमाने भारत में अमेरिकी वसंत के कमल खिलाने के लिए सिरे से बदल दिये गये हैं,सोचना आपको यह है।


बशर्ते कि नाक आपकी सही सलामत हो,तो सूंघ सकें तो सूंघ लीजिए डियोड्रेंट और जापानी तेल में निष्णात साजिश की उस सड़ांध को जिसके तहत नईदिल्ली के साउथ ब्लाक में एक अर्थशास्त्री वित्त मंत्री का अवतार हुआ और अमेरिकी व्हाइट हाउस और पेंटागन के इशारे पर वे लगातार दस बरस तक भारत के ईश्वर बने रहे हैं।


अमेरिकी संस्थाओं ने बाकायदा बिगुल बजाकर उस ईश्वर की मृत्युघोषणा कर दी,जो जनसंहारी एजंडे को उनके जायनी एजंडे के तहत राजनीतिक बाध्यताओं के कारण उनकी तलब के मुताबिक प्रत्याशित गति और कार्यान्वयन की दिशा देने में फेल कर गये।तब उन्हें अपाहिज बताया गया और भारत में चुनाव प्रक्रिया पूरी होना तो दूर,कायदे से एक तिहाई भारत में मतदान होने से पहले ही भगवान की मौत का फतवा जारी हो गया।


हाल यह कि गोल्डमन सैक्स, एचएसबीसी और सिटी ग्रुप समेत दर्जन भर से ज्यादा वैश्विक वित्तिय कंपनियां भारत के आम चुनावों में गहरी रुचि दिखा रही हैं ।हमें इसमें साजिस की बू नहीं आ रही है।


हम गदगद है कि  वे संभावित नतीजों और उनसे होने वाले आर्थिक प्रभावों का भी आकलन कर रही हैं। वे संभावित नतीजों और उनसे होने वाले आर्थिक प्रभावाों का भी आकलन कर रही हैं। भारत के चुनावों में इन बड़ी कंपनियों की रुचि की मुख्य वजह यह है कि भारत पिछले एक-दो दशकों में राजनीतिक और आर्थिक रूप से एक बड़े केंद्र के रूप में उभरा है। भारतीय चुनाव में गहरी रचि ले रही फर्मों में बैंक ऑफ अमेरिका मेरिल लिंच, नोमुरा, बाक्र्लेज, यूबीएस, सीएलएसए, बीएनीपी पारिबा, आरबीएस, डॉयचे बैंक, क्रेडिट सुइस, मार्गन स्टैनली और जेपी मॉर्गन शामिल हैं।


समझ लीजिये कि इसका मतलब क्या है और किसके हित कहां दांव पर हैं।


सबस बड़ी बात यह है कि आबादी के कारण भारत एक बड़ा बाजार है ही ।बड़े बाजार के अलावा अमेरिकी नजरिये से भारत की कोई औकात है ही नहीं।


उत्पादन प्रणाली या उत्पादन के लिहाज से नहीं,सेवा और असंगठित क्षेत्र के हिसाब से भारत देश अगले कुछ दशकों में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा।यह शर्मशसार करने वाली बात है और हम बल्ले बल्ले हुए जा रहे हैं।


मुक्त बाजार के समीकऱमों के हिसाब से  देश के नेतृत्व में बदलाव और नीतियों में तब्दीली का दुनिया भर पर सीधा असर होगा।


इनमें से ज्यादातर कंपनियों,और खासकर अमेरिकी कंपनियों  का मानना है कि बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी इस दौड़ में सबसे आगे चल रहे हैं और वह कारोबारी जगत के लिए अनुकूल रुख रखते हैं। यह बात इन कंपनियों द्वारा अपने और अपने ग्राहकों के काम के लिए कराए गए आंतरिक विश्लेषणों और सर्वेक्षणों में सामने आई है।


दूसरी ओर, हम अभी ध्रूवीकरण के खेल में मजे ले रहे हैं।बालीवूड की फिल्मों में अब वह मजा रहा नहीं है,और विवाह मंडप छोड़ती दुल्हनों, बाप तय करने की उलझन में फंसी माताओं के आईपीएल कैसिनो में दाखिल होने से पहले देश भर में अखंड सिनेमा है मीडिया का, जसके मसाले बालीवूड के मुकाबले रसीले है ज्यादा। हत्या, अपराध, बलात्कार, हिंसा, क्रांति, जिहाद,अदालत, पुलिस और कानून,धर्म,प्रवचन, परिवार,सेक्स, मनोरंजन, सितारे,जोकर और बंदर से लेकर कुत्तों तक का हैरतअंगेज हंगामा है।


ट्रेलर चलने के दौरान ही फिल्म का क्लाइमेक्स का खुलासा करके नाइट विद कपिल के कहकहे सिरे से हाइजैक कर लिया अमेरिका ने।



फिर साबित हुआ कि जनता के वोट से इस देश में कुछ भी नहीं होता।जनादेश रेडीमेड है। जिसे अमली जामा पहनाने की रस्म भर है यह वोट जश्न जिसमें कमाने वाले कमा लेंगे,मारे जाने वाले मारे जायेंगे और होगा वहीं जो खुदा की मर्जी है।होइहें सोई जो राम रचि राखा।


गौरतलब है कि अमेरिका के प्रभावशाली समाचारपत्र दि वाशिंगटन पोस्ट ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी को सलाह दी है कि भारत को बेशक उनकी नीति पर चलने की जरूरत है, पर उन्हें पूर्वाग्रह वाले बड़बोलेपन की बजाय अपनी सफलता पर ध्यान केन्द्रित करना होगा।अखबार ने अपने संपादकीय में मोदी और भाजपा को लेकर तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी आलोचकों की आपत्तियों को नजरअंदाज करते हुए कहा कि उन्होंने मुस्लिमविरोधी बड़बोलापन छोड़ दिया है। मोदी के सरकार बनाने पर लोकतांत्रिक संस्थाओं के क्षरण और धार्मिक उन्माद बढ़ने की आशंकाओं से इन्कार करते हुए अखबार ने कहा कि भारत की राजनीतिक संस्कृति ऐसे उग्रतावाद को हावी होने से रोकने में सक्षम है। अखबार ने कहा कि मोदी को लेकर आशंकाएं नई नहीं हैं। वर्ष 1998 में जब भाजपा ने पहली बार सरकार संभाली थी तब भी ऐसी ही आशंकाएं व्यक्त की गई थीं।


अखबार ने अमेरिका के ओबामा प्रशासन द्वारा मोदी की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाने पर प्रशंसा की है और कहा है कि यह सोचना सही है कि मोदी सांप्रदायिक भेदभाव को बढ़ाने की बजाय अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के वायदे पर काम करेगे। द वाशिंगटन पोस्ट ने मोदी को करिश्माई और कठोर परिश्रमी बताते हुए कहा कि उनके वादे भारत में बहुत बड़े बदलाव के सूचक है जबकि पिछले दशक में कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार के अप्रभावी नेतृत्व के कारण भारत की हालत खस्ता हो गई है।


अखबार ने मोदी की तमाम कमियों को भी गिनाया है लेकिन कहा है कि उनके सकारात्मक पहलू ज्यादा हैं। अखबार ने उनके पहले शौचालय फिर देवालय वाले बयान को उद्धृत करते हुए कहा कि इससे पता चलता है कि वह सांप्रदायिक एवं मुस्लिम विरोधी रुख छोड़ चुके हैं।




मजे की बात है कि इन्हीं परिस्थितियों में संघ परिवार से भी हिंदुत्व के उग्र प्रवक्ता शिवसेना ने सोमवार को कहा कि अमेरिका भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) नेता नरेंद्र मोदी के भारत के अगले प्रधानमंत्री बनने की संभावना से डरा हुआ है। शिवसेना के मुखपत्र `सामना` के संपादकीय में कहा गया है कि अमेरिका ने हाल ही में अपनी चिंता जताई है कि अगर मोदी के नेतृत्व में भाजपा सत्ता में आ गई तो अल्पसंख्यक और मुसलमान कुचल दिए जाएंगे।


अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक मसले पर इस संपादकीय में अमेरिका की आलोचना करते हुए कहा गया है कि भारत संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य है।उन्होंने कहा कि अमेरिका को किसने इसके चुनाव और आंतरिक मसले पर बोलने का अधिकार दिया है? अमेरिका को देश के आंतरिक मसले पर बोलने का हक नहीं है।


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