क्रांतिकारी मिशन प्राप्त करने में अक्षम होंगे जातीय पूर्वाग्रहों से ग्रसित मजदूर
अम्बेडकर के 'जाति का खात्मा' पर परिचर्चा के संदर्भ में-भाग-3
पार्थ सरकार
¹यहां पर हम एक महत्त्वपूर्ण बात सामने लाना चाहते हैं। अम्बेडकर के भाषण पर हुई चर्चा में कई वक्ताओं ने सवर्णों पर कड़ी चोट की और यह अस्वाभाविक नहीं है। इसके साथ ही यह भी विचारों के पीछे पड़ जाने का ही द्योतक है क्योंकि यह आज भी भारतीय समाज को सवर्णों द्वारा शासित देखता है। यह जातीय बदलावों को सामने नहीं ला पाता। मसलन, उत्तर प्रदेश व तमिलनाडू जैसे राज्यों में खास पिछड़ी जातियों और दलितों के बीच अंतर्विरोध चलते हैं और यह नए वर्गीय समीकरणों द्वारा प्रेरित है। ब्राह्मणवादी मानसिकता से केवल ऊँची जातियों के लोग ही नहीं ग्रसित रहते हैं बल्कि इसकी जकड़ अपना स्थान परिवर्तित करने वाले दूसरी जातियों के लोगों में भी पाई जाती है। और स्थान परिवर्तन करना आज वर्ग की कोटि में ही हो सकता है न कि जातीय कोटि में। इस वर्ग विभाजन को सामने रखकर ही सवर्ण और अवर्ण के भेदों पर आज बात करनी चाहिए। हम यह इसलिए नहीं कह रहे हैं कि जातीय दर्जेबंदी में उच्च स्थान की जाति से आने वाले सभी मेहनतकश जातीय भेदभाव के विचारों से मुक्त हैं वरन् यह दिखाने के लिए कह रहे हैं कि वस्तुगत परिस्थितियां उन्हें किस ओर ले जाती हैं। यहां हमें ध्यान देना चाहिए कि अम्बेडकर ने अपने भाषण में जातीय विभाजनों से ग्रसित सर्वहारा का सवाल उठाया है। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण सवाल है और यह सर्वहारा एकता के लिए जरूरी है। जातीय पूर्वाग्रहों से ग्रसित मजदूर क्रांतिकारी मिशन प्राप्त करने में अक्षम होंगे। मिसाल के तौर पर जातीय भेदभावों के प्रति उदासीनता व पूर्वाग्रह का फल उन्हें 1928-29 के दौरान बम्बई मिल हड़तालों में भुगतना पड़ा था क्योंकि दलित जाति से आने वाले मजदूरों ने इनसे अपने को अलग रखा। बाद में इस ओर सही कदम उठाकर मजदूर एकता स्थापित की गई। इसीलिए जातीय उत्पीड़न और जातीय पूर्वाग्रहों से लड़ना मजदूर वर्गीय एकता के लिए निहायत जरूरी है। जो भी इस काम को यांत्रिक ढंग से मजदूर एकता का बस लफ्फाजी भरा आह्वान कर पूरा करना चाहता है वह गलत करता है।
यहां पर हम जो सवाल उठाना चाहते हैं वह मित्र शक्तियों का सवाल है। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रश्न है क्योंकि हर वर्ग या तबका जो संघर्ष में जाता है उसे मित्र शक्तियों की पहचान करनी पड़ती है ताकि वह अपनी मंजिल प्राप्त करने में सफल हो। मसलन, पूंजीवादी शासन को उलटकर सर्वहारा शासन लाकर समाजवाद का निर्माण करना मजदूर वर्ग का ऐतिहासिक ध्येय है। इसकी प्राप्ति के लिए वह अपनी मित्र शक्तियों की खोज करता है ताकि वह संख्याबहुल बन पाए और अपने संघर्ष में सफलता प्राप्त कर सके। इसके लिए वह दूसरे मेहनतकशों के बीच अपनी मित्र शक्ति तलाशता है और उन्हें अपने साथ लाकर क्रांति करने की तैयारी करता है। किसी भी उत्पीडि़त-शोषित तबके के लिए यह महत्त्वपूर्ण सवाल है। ऊपर दिए गए तेल्तुम्बडे से उद्धरण में भी यही बात पाई जाती है जहां वे कहते हैं कि-
दलितों के खिलाफ अत्याचार केवल उनके सापेक्षिक कमजोरी के कारण है — संख्यागत, भौतिक और सामाजिक। इस कमजोरी को कैसे खत्म किया जा सकता है? रणनीतिक उपायों में दलितों को अपने को अंदर से ताकतवर बनना होगा या फिर अपनी ताकत को बाहर की सम्पूर्ति करनी होगी।
उन शक्तियों को जब जातीय उत्पीड़न के खिलाफ लड़ रहे लोग चिन्हित करेंगे तो पाएंगे कि जातीय दर्जेबंदी के हिसाब से गांवों में जमीन का मालिकाना तो है लेकिन यह भी सच है कि लगभग हर जाति की अधिकांश आबादी गरीब है, वे या तो गरीब किसान हैं या मजदूर व अन्य मेहनतकश। पूंजीवादी शोषण-उत्पीड़न-दमन से जूझ रही ऐसी आबादी ही दलितों के लिए मित्र शक्ति बन सकती है। इस महत्त्वपूर्ण बात को समझते हुए जब दलित जाति से आए लोग अपने उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष में जाते हैं तो वे बाकी जातियों के मेहनतकशों को उनकी अपनी शोषक बिरादरी से अलग करके देखते हैं। उन्हें एक सम्पूर्ण अविभाज्य तत्व के रूप में नहीं देखकर उनमें से अपने लिए सहयोद्धा की खोज करते हैं। दलित जातियां क्या अपने को दलित के रूप में सत्तासीन कर सकती हैं? इस महत्त्वपूर्ण बात को दलितों के दिमाग से हटाने के लिए तरह-तरह के तिकड़म रचे जाते हैं जिसमें सहज जातीय वृत्तियों का फायदा उठाकर दूसरी जातियों के सभी लोगों को दुश्मन घोषित कर दिया जाता है। यह दलितों को ताकतवर नहीं बनाता बल्कि उन्हें उनके सम्भावित मित्रों से वंचित करता है। जातीय घृणा फैलाकर और उससे लाभ उठाकर हमारे पूंजीवादी-साम्राज्यवादी शासक अपने शासन को दलितों के कोपभाजन बनने से बचाते हैं। तभी तो आज संयुक्त राज्य अमेरिका के विश्वविद्यालयों में इस पर विशेष रिसर्च होता है कि किस तरह से कम्युनिस्ट पार्टियों में दलितों को दबाया जाता है, आदि। जाति के आधार पर इन पार्टियों के अंदर विभेद व संदेह का वातावरण बनाने की कोशिश की जाती है। क्रांतिकारी बदलाव के विकल्प के रूप में दलित पूंजीवाद की बात से लेकर वोट की ताकत की बात दलितों को बताया जाता है। हकीकत तो यह है कि वोट की ताकत की बात ब्राह्मणों से एकता तक जाती है, उन शोषक ब्राह्मणों से एकता तक जाती है जो गांव में यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं जैसा कि हम उत्तर प्रदेश में देखते हैं।
भारतीय कम्युनिस्टों के सामने यह प्रश्न नहीं आया कि वे भारतीय मूल की विचारधारा पर काम नहीं कर रहे हैं। उन्होंने जर्मन व रूसी नेताओं की विचारधारा को अपनाया क्योंकि यही मुक्तिदायी है। चीन में तो क्रांति भी इसी विचारधारा को अपनाकर हुआ। यहां अगर राष्ट्रीय भेदों व उन देशों द्वारा किए जा रहे राष्ट्रीय उत्पीड़न के आधार पर इन्हें खारिज कर दिया जाता तो मुक्तिकामी विचारधारा से लोग वंचित हो जाते। हर उत्पीडि़त तबके को बुद्धिजीवियों की जरूरत होती है। और उनके पक्षधर बुद्धिजीवियों से उन्हें वंचित करना उनके आंदोलन को चोट पहुंचाना है। ऐसा ही एक विरूपण रूस के क्रांतिकारी मजदूर आंदोलन में आया था जब स्वतःस्फूर्त आंदोलन को महिमामंडित कर विचारधारा की जरूरत को कम करके आंका गया था। लेनिन ने इसे 'अर्थवाद' का नाम दिया और इसके खिलाफ संघर्ष करते हुए विचारधारा और बुद्धिजीवियों की जरूरत पर बल दिया। लेकिन यहां बड़ी ही चालाकी से बुद्धिजीवियों के प्रति अविश्वास पैदा कर, जातीय भेदों पर बल देकर दलितों के उत्पीड़न व शोषण विरोधी आंदोलनों को चोट पहुंचाया जा रहा है जिसमें साम्राज्यवादी अकादमिक जगत अतिसक्रिय है।
मित्र शक्तियों की पहचान की समस्या अम्बेडकर के आंदोलन में रही है। यह तो 1932 के 'पूना समझौता' के दिनों पर नजर डालने पर पता चलता है। दलितों ('Depressed Classes') का अलग अपने ही निर्वाचन समूह द्वारा प्रतिनिधि चुने जाने के विरोध में गांधी ने अनशन किया। उनका कहना था कि पूरे समाज (हिन्दू समाज) द्वारा इन प्रतिनिधियों का चुनाव होना चाहिए। दलितों के लिए कुछ प्रतिनिधियों की संख्या में वृद्दि कर इस समझौते पर आया गया और अलग निर्वाचन समूह की बात को खारिज कर दिया गया। अम्बेडकर को झुकना पड़ा क्योंकि गांधी को कुछ हो जाने की स्थिति में दलितों पर हिन्दू समाज द्वारा जो कहर बरपाया जाता उससे वह जरूर अवगत रहे होंगे। अंग्रेजों ने तो मनचाही निर्वाचन पद्धति का उपाय कर दिया था लेकिन उसे लागू नहीं किया जा सका। यदि मित्र शक्तियों का बल मिला होता तो क्या 'पूना समझौता' के तहत अम्बेडकर को पीछे हटना पड़ता? ब्रिटिश राज से दलितों के लिए कुछ रियायतों की आशा जरूर की जा सकती थी लेकिन यह ब्रिटिश राज के कोई जनवादी होने का प्रमाण नहीं था। राज दलितों के अलग प्रतिनिधित्व की बात कर कांग्रेस को कमजोर करना चाहती थी। दलित आंदोलन के लिए भी यह ज्यादा से ज्यादा मोलतोल का ही मामला हो सकता था। यह उनके लिए कहीं से भी मुक्तिदायी नहीं हो सकता था क्योंकि ब्रिटिश राज की तमाम सामंती तत्वों के साथ मित्रता थी और ब्रिटिश साम्राज्यवाद का अवलम्ब के रूप में वे काम करते थे। क्या वे जातीय उत्थान होने दे सकते थे? इन सामंती तत्वों से क्या ब्रिटिश राज शत्रुता मोल लेता? दलितों की मांगों का इस रास्ते से कोई निदान नहीं हो सकता था, ज्यादा से ज्यादा यह 'प्रेशर लॉबी' (दवाब बनाए रखने वाला समूह) राजनीति का काम कर सकता था। बाद के दलितवादी पार्टियों में हम इसकी रुझान देख सकते हैं। यदि इतिहास में हम देखें तो पाएंगे कि जर्मनी में भी मजदूर वर्ग के बीच यह रुझान रही कि वह वहां के चांसलर (प्रधान मंत्री) बिस्मार्क से कतिपय रियायतें लेता रहा लेकिन अपने ही ग्रामीण मेहनतकश भाइयों के अर्ध-सामंती शोषण-उत्पीड़न पर चुप्पी साधे रहा। मार्क्स ने मजदूर वर्गीय आंदोलन में इस रुझान की निर्मम आलोचना की और कहा कि इस तरह से मजदूर वर्ग बिस्मार्क के पीछे ही चल सकते हैं मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकते। हमारे लिए इस संदर्भ में सबसे ज्यादा याद करने की बात वह है जिसे मार्क्स ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'पूंजी' में कहा था कि ''मजदूर वर्ग अपने को गोरी चमड़ी में मुक्त नहीं कर सकता यदि वह काले में दागा हुआ हो।''
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2.पूंजीवादी शोषण प्रणाली को चलाने में मददगार होता है जातीय उत्पीड़न
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