युद्ध, आशाओं और आशंकाओं के बीच!
एक रहिन ईर, एक रहिन बीर, एक रहिन फत्ते और एक रहिन हम! ईर कहिन, चलो चुनाव लड़ आईं, बीर कहिन चलो हमहूँ चुनाव लड़ आईं, फत्ते कहिन चलो हमहूँ चुनाव लड़ आईं, हम कहिन चलो हमहूँ चुनाव लड़ आईं! युद्ध है कि खेल है, कि अदल है कि बदल है, कि दल है कि दलबदल है, कि नारा है कि निवाला है, कि मेला है कि ठेला है, कि तमाशा है कि नौटंकी है, कि नूरा कुश्ती है कि गलथोथरी है, कि सारा देश लड़ रहा है! जी हाँ, हर मनई चुनाव लड़ रहा है! क्या कहा? चुनाव तो नेता लड़ते हैं! पता नहीं कहीं लड़ते हैं या नहीं, लेकिन अपने यहाँ तो चुनाव जनता ही लड़ती है! घर, बाज़ार, चौपाल, पंचायत, खेत-खलिहान, दफ़्तर, गली, नुक्कड़ और चाय के चुक्कड़ पर, ट्विटर, फ़ेसबुक और काफ़ी मग पर, ताश की बाज़ी पर, शतरंज की बिसात पर, सटोरिये के भाव पर ईर, बीर, फत्ते, हम, तुम, ये, वो, सबके सब, सारी जनता मुँहतोड़ और जीतोड़ लड़ती है! अजब लड़ाई है यह! हर बार एक ही नतीजा होता है! बार-बार वही नतीजा होता है! कुछ नेता हारते हैं, कुछ जीतते हैं। लेकिन जनता हर बार हारती है! जनता हर बार जूझ के लड़ती है, नेता जीत जाता है, जनता हार जाती है!
पहली बार चुनाव हमने 1967 में देखा था। तेरह साल की उम्र में। और अब पहली बार ऐसा चुनाव देख रहे हैं, जो इससे पहले कभी नहीं देखा! 67 में जनता पहली बार निराश हुई थी और छह राज्यों से काँग्रेस साफ़ हो गयी थी! फिर 1977 और 1989 भी देखा, समझा और भुगता! ये सब बड़ी-बड़ी आशाओं के चुनाव थे। बड़े बदलावों की आशाओं के चुनाव! वे आशाएँ अब निराशा के कफ़न ओढ़ इतिहास के ताबूत में दफ़न हैं। वैसे चुनाव कोई भी हों, कैसे भी हों, छोटे हों, बड़े हों, वह आशाओं के चुनाव ही होते हैं। वोट या तो किसी निराशा के विरुद्ध होते हैं या किसी नयी आशा के तिनके के साथ! लेकिन यह पहला चुनाव है, जहाँ युद्ध आशाओं और आशंकाओं के बीच है! एक तरफ़ बल्लियों उछलती, हुलसती गगनचुम्बी आशाएँ हैं, दूसरी तरफ़ आशंकाओं के घटाटोप हैं! पहली बार किसी चुनाव में देश इस तरह दो तम्बुओं में बँटा है! और पहली बार ही शायद ऐसा हो रहा है कि नतीजे आने के पहले ही आशावादियों ने नतीजे घोषित मान लिये हैं! वैसे तो चुनावों के बाद अकसर कुछ नहीं बदलता, लेकिन यह चुनाव वैसा चुनाव नहीं है कि कुछ न बदले! अगर सचमुच वही आशावादी नतीजे आ गये, तो देश इस बार ज़रूर बदलेगा! आशाओं का तो कह नहीं सकते कि जियेंगी या हमेशा की तरह फिर फुस्स रह जायेंगी। लेकिन आशंकाओं के भविष्य को देखना दिलचस्प होगा! सिर्फ़ अगले पाँच साल नहीं, बल्कि अगले पचास साल का देश कैसा होगा, कैसे चलेगा और संघ-प्रमुख मोहन भागवत के 'परम वैभव' की भविष्यवाणी सच हो पायेगी या नहीं!
और 'परम वैभव' का स्वप्न सिर्फ़ मुसलमानों के लिए ही दुःस्वप्न नहीं है। अभी ज़्यादा दिन नहीं बीते। कर्नाटक की बीजेपी सरकार के दौर में 'पश्चिमी संस्कृति' के विरुद्ध श्रीराम सेने और हिन्दू वेदिके की'नैतिक पहरेदारी' ने कैसे लोगों का जीना दूभर कर दिया था। उन्हीं प्रमोद मुतालिक को बीजेपी में अभी-अभी शामिल कराया गया था, हो-हल्ला मचा तो फ़िलहाल चुनाव के डर से उन्हें दरवाज़े पर रोक दिया गया। और यह तो तय है कि अगर 'आशावादी नतीजे' आ गये तो चुनाव के बाद बीजेपी वही नहीं रहेगी, जो अब तक थी! बीजेपी की 'ओवरहालिंग' होगी, यह तो कोई बच्चा भी दावे के साथ कह सकता है! लेकिन वह ओवरहालिंग कैसी होगी, इसी से तय होगा कि कैसे दिन आनेवाले हैं? और 'पश्चिमी संस्कृति' से 'भारतीय संस्कृति' का 'रण' होगा या नहीं?
और इस चुनाव के बाद काँग्रेस भी बदलेगी! नतीजे तय करेंगे कि काँग्रेस को आगे का रास्ता कैसे तय करना है? काँग्रेस का भविष्य क्या होगा? काँग्रेस कई बार बड़े-बड़े झंझावातों के दौर से गुज़री, टूटी, बँटी, बनी, पिटी, और फिर धूल झाड़ कर खड़ी हो गयी। लेकिन अबकी बार? बड़ा सवाल है! काँग्रेस में राहुल गाँधी के अलावा प्रियंका की कोई भूमिका होगी क्या? और होगी तो किस रूप में? वैसे ही, जैसे अभी है, पर्दे के पीछे महज़ चुनावी खेल की कप्तानी या फिर राहुल के शाना-ब-शाना? यह सवाल आज के पहले महज़ एक अटकल से ज़्यादा नहीं था, लेकिन आज यह एक वाजिब सवाल है! इसलिए कि बीच मँझधार में जब से प्रियंका ने चुनावी कामकाज की कमान सम्भाली है, तबसे पार्टी में कुछ-कुछ बदला-सा तो दिखा है! क्या काँग्रेस इस तरफ़ आगे बढ़ना चाहेगी? कठिन डगर है! चुनाव बाद शायद काँग्रेस भी इस पर चर्चा करने को मजबूर होगी और हम भी!
और इस चुनाव में एक और बड़ी बात शायद पहली बार होने जा रही है। वह है चुनाव के बाद राष्ट्रीय पटल पर एक नये राजनीतिक विकल्प की सम्भावना का उदय! इस पर भले ही अटकलें लग रही हों कि आम आदमी पार्टी कितनी सीटें जीत पायेगी, दहाई का आँकड़ा पार कर पायेगी या नहीं, वग़ैरह-वग़ैरह। सीटें उसे मिलें या न मिलें, लेकिन इतना तो तय है कि देश के राजनीतिक विमर्श में उसकी उपस्थिति गम्भीरता से दर्ज हो चुकी है। बीजेपी और काँग्रेस के बाद वह अकेली ऐसी पार्टी है जो क्षेत्रीय सीमाओं और आग्रहों से मुक्त है। हालाँकि उसके नेतृत्व के अपने ज़िद्दी आग्रहों के चलते 'आप' ने एक बहुत बड़े राजनीतिक अवसर और अपने लाखों समर्थकों को रातोंरात गँवा दिया, फिर भी देश में अब भी करोड़ों ऐसे लोग हैं जो अरविन्द केजरीवाल को एक ईमानदार सम्भावना मानते हैं और इसीलिए उनके अराजकतावाद, अनाड़ीपन, अड़ियल अहंकार को भी बर्दाश्त करने को तैयार हैं। ऐसा इसलिए कि ये लोग काँग्रेस और बीजेपी में न तो ईमानदारी का कोई संकल्प पाते हैं और न ही उन्हें इन पार्टियों से किसी ईमानदार बदलाव की कोई उम्मीद है।
इसलिए देश के इतिहास में पहली बार हो रहे आशाओं और आशंकाओं के इस चुनावी मंथन के नतीजे चाहे जो भी हों, इसकी एक उपलब्धि तो 'आप' है ही। कमज़ोर हो रही काँग्रेस की जगह 'आप' अपने आपको पेश कर सकती है, बशर्ते कि वह अपनी बचकानी ज़िदों, भावुक जल्दबाज़ियों, अटपट कलाबाज़ियों और अड़-बड़ बोलियों से बच सके! बशर्ते कि उसके पास कोई स्पष्ट राजनीतिक दृष्टि हो, कोई आर्थिक-सामाजिक रूपरेखा हो, स्पष्ट राजनीतिक लक्ष्य हों और निर्णय लेने के लिए कोई कुशल विवेकशील तंत्र हो। अरविन्द केजरीवाल मानते हैं कि दिल्ली में सरकार से हट कर उन्होंने बड़ी ग़लती की। वैसे यह उनकी पहली ग़लती नहीं थी। मुख्यमंत्री का एक ग़लत बात के लिए धरने पर बैठना भी कम बड़ी ग़लती नहीं थी! उन्होंने ऐसी कम ग़लतियाँ नहीं की हैं, वरना 'आप' शायद आज ही बड़ी ताक़त बन चुकी होती! उनके पास बड़ी धाकड़, विविध प्रतिभासम्पन्न, प्रबन्ध-कुशल समर्पित और बड़ी अनुभवी टीम है। उस टीम को सामूहिक फ़ैसला लेने दें तो 'आप' से उम्मीद की जा सकती है! वरना……
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