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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Saturday, April 26, 2014

हमलावर चढ़े चले आ रहे हैं हर कोने से तो पहचान की राजनीति को प्रतिरोध की राजनीति में बदल दिया जाये

हमलावर चढ़े चले आ रहे हैं हर कोने से तो पहचान की राजनीति को प्रतिरोध की राजनीति में बदल दिया जाये

हमलावर चढ़े चले आ रहे हैं हर कोने से तो पहचान की राजनीति को प्रतिरोध की राजनीति में बदल दिया जाये


HASTAKSHEP

पलाश विश्वास

शुक्र है कि कैंसर ने वीरेनदा को कविता से बेदखल कर पाने में कोई कामयाबी हासिल नहीं की है। इसीलिये राष्ट्रव्यवस्था के नस नस में वायरल की तरह दाखिल होते कैंसर के विरुद्ध वे हमें आगाह करते हैं-

हमलावर चढ़े चले आ रहे हैं हर कोने से

पंजर दबता जाता है उनके बोझे से

मन आशंकित होता है तुम्हारे भविष्य के लिये

ओ मेरी मातृभूमि ओ मेरी प्रिया

कभी बतला भी न पाया कि कितना प्यार करता हूँ तुमसे मैं .

समकालीन तीसरी दुनिया के ताजा अंक में वीरेनदा की कविताएं छपी हैं जो पहले कबाड़खाना में प्रकाशित हुयी हैं।

कबाड़खाना में प्रकाशित वीरेनदा की इन पंक्तियों में बखूब साफ जाहिर है कि जो सत्ता संरचना हमने तैयार की है, आज फासीवादी महाविनाश का मूसल उसी के ही गर्भ में पला बढ़ा है और वही है आज का कल्कि अवतार। वीरेनदा ने लिखा है।

वह धुंधला सा महागुंबद सुदूर राष्ट्रपति भवन का

जिसके ऊपर एक रंगविहीन ध्वज

की फड़फड़ाहट

फिर राजतंत्र के वो ढले हुये कंधे

नॉर्थ और साउथ ब्लॉक्स

वसंत में ताज़ी हुयी रिज के जंगल की पट्टी

जिसके करील और बबूल के बीच

जाने किस अक्लमंद – दूरदर्शी माली ने

कब रोपी होंगी

वे गुलाबी बोगनविलिया की कलमें

जो अब झूमते झाड़ हैं

और फिर उनके इस पार

गुरुद्वारा बंगला साहिब का चमचमाता स्वर्णशिखर

भारतीय व्यवस्था में लगातार बढ़ती धर्म की अहमियत से

आगाह करता.

तीसरी दुनिया के ताजा अंक में सत्ता बिसात की परतें जो आनंदस्वरूप वर्मा ने खोली है, उसे सर्वजनसमक्षे जारी किया जा सका है। लेकिन इसी अंक में एक बेहद महत्वपूर्ण आलेख छपा है, वह है, पहचान की राजनीति और प्रतिरोध की राजनीति।

दरअसल इस छापेमार समय में जब वीरेनदा के शब्दों में हमलावर बढ़े चले आ रहे हर कोने से, हमारे बच निकलने की राह एक ही है और वह यह है कि कुछ भी करें, इस पहचान की राजनीति को प्रतिरोध की राजनीति में बदल दिया जाये।

मुश्किल यह है कि पहचान मिटाये बिना प्रतिरोध के लिये न्यूनतम गोलबंदी भी असम्भव है।

मुश्किल यह है कि राजकरण पर अब भी पहचान का झंडा ही बुलंद है। उसे वहाँ से उतारकर प्रतिरोध का उद्घोष भी फिलहाल असम्भव है।

मसलन अच्छे समय का वायदा करने वाले मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस यानि न्यूनतम सरकार अधिकतम राजकाज का नारा लगाने वाले गुजरात मॉडल के संघ परिवारी बिजनेस आइकन नरेंद्र मोदी अपना असली एजेंडा बार बार जगजाहिर करते हुये धर्मोन्मादी जो सुनामी पैदा करने में रोज अडानी उड़नखटोले में देश भर में छापामार भगवा युद्ध में विकासोन्मुख तोपदांजी करके अमदावाद में नींद पूरी करने वाले नमो कल्कि अवतार के उदात्त हिन्दुत्व का रसायन को समझना बेहद जरूरी है, जिसकी परत दर परत जातिव्यवस्था और नस्ली भेदभाव, सुतीव्र घृणा कारोबार, सर्जिकल माइंड कंट्रोल, जायनवादी विध्वंस, संस्थागत महाविनाश, अंबेडकरी आंदोलन के अपहरण बजरिये वर्णवर्चस्वी उत्तर आधुनिक मनु व्यवस्था के साथ चिरस्थाई औपनिवेशिक भूमि सत्ता बंदोबस्त का तेजाबी रसायन है। जाहिर है कि उनके वक्तव्य के हर पायदान में वैदीकी हिंसा राजसूय आयोजन है।

मसलन घंटों चले भव्य रोड शो के बाद भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी ने गुरुवार को वाराणसी लोकसभा सीट से नामांकन पत्र दाखिल किया। उन्होंने बनारस के ब्राण्ड को पूरे विश्व में पहुँचाने का वादा किया। नामांकन के बाद मोदी ने कहा-पहले मैं सोचता था कि भाजपा ने मुझे यहाँ भेजा है। कभी मुझे महसूस होता था कि मैं काशी जा रहा हूँ। लेकिन यहाँ आने के बाद मैं महसूस कर रहा हूँ कि मुझे किसी ने नहीं भेजा और न ही मैं खुद यहाँ आया हूँ। माँ गंगा ने मुझे यहाँ बुलाया है। मैं ऐसा ही महसूस कर रहा हूँ जैसे एक बच्चा अपनी माँ की गोद में आने पर महसूस करता है। मैं प्रार्थना करता हूँ कि ईश्वर मुझे इस नगर की सेवा करने की शक्ति दे।

भाजपा को सिरे से संस्थागत संघ शुंग परिवार के फासीवादी वर्णवर्चस्व के लिये गंगा गर्भ में जलांजलि देने का यह राजकीय उद्घोष है। धर्मनिरपेक्ष खेमे के बजाय, अब तक भाजपा के झंडे पर मर मिटने वाले लोगों को उनके इस वक्तव्य का ज्यादा नोट लेना चाहिए।

अब एक किस्सा इसी संदर्भ में बताना प्रासंगिक होगा। भोपाल से 20 अप्रैल की सुबह हम दिल्ली से चेन्नै जाने वाली जीटी एक्सप्रेस में सवार हुये। तो उसमें उत्तर प्रदेश के ढेरों मुसलमान नौजवान थे। मुरादाबाद रामपुर के लोग और बिजनौर के भी। जिन दूर दराज के गांवों से वे लोग हैं, वहाँ बचपन से हमारी आवाजाही है। बिजनौर में तो सविता का मायका भी है। हमारे साथ नागपुर के लोग भी थे। कुल बीस पच्चीस लोगों की टोली होगी। हम लोग यूपी में मोदी सुनामी की हकीकत जानना चाहते थे। उन बंदों ने सीधे ऐलान कर दिया कि यूपी में पचास सीटें जीते बिना मोदी का भारत भाग्यविधाता बनना असम्भव है।

बता दें कि हम लोग भोपाल से रवाना होने के तुरंत बाद आजादी के बाद हुये तमाम राजनीतिक परिदृश्य की सिलसिलेवार चर्चा में लगे थे और नेहरु और इंदिरा के मुकाबले अटल से लेकर, सिंडिकेट समाजवादी मॉडल से लेकर समय समय पर हुये राजनयिक आर्थिक निर्णयों के दूरगामी परिणामों का विश्लेषण भी कर रहे थे। बातचीत संघ परिवार या भाजपा के विरुद्ध न होकर पूरे भारतीय स्वतंत्रोत्तर राजकाज और आर्थिक विकास विनाश पर केंद्रित थी। उन बंदों ने साफ साफ दो टूक शब्दों में कहा कि कोई मोदी सुनामी कहीं नहीं है। मीडिया सुनामी है। माडिया के बखेड़ा है। जमीन पर यूपी में भाजपा को पंद्रह सीटें भी मिलने के आसार नहीं है।

जनसत्ता में अंशुमान शुक्ल की रपट से इस आरोप की पुष्टि भी हो गयी। देखेंः

खबरिया चैनलों ने सोलहवीं लोकसभा चुनाव के सातवें चरण में देश की 117 लोकसभा सीटों पर हो रहे मतदान के दौरान भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी का जिस तरह प्रचार कियावह हैरतअंगेज है। मोदी की शान में कसीदे पढ़ने की संवाददाताओं और टेलीविजन एंकरों में होड़ मची रही। चैनलों के पत्रकारों ने ढूँढ-ढूँढ कर शब्दों का मायाजाल बिछायाअपनी सभी जिम्मेदारियों को दरकिनार कर। देश के किसी भी समाचार चैनल को इस बात की याद तक नहीं रही कि सातवें चरण में देश की 117 और उत्तर प्रदेश की 12 लोकसभा सीटों पर मतदान हो रहा है। जहाँ के मतदाताओं पर नरेंद्र मोदी के इस रोड शो का असर भी हो सकता है।

उत्तर प्रदेश के एक करोड़ 98 लाख मतदाता आज एक दर्जन सांसदों का चुनाव करने घरों से निकलेलेकिन सुबह से ही सभी टेलीविजन चैनलों पर सिर्फ एक ही समाचार प्रमुखता से प्रसारित किया जाता रहा और वह था वाराणसी में नरेंद्र मोदी का नामांकनलाइव। विरोधी दलों के वरिष्ठ नेता भी दम साधे खामोशी से पूरा तमाशा देखते रहे। चैनलों के संवाददाताओं ने बार-बार यह बताने की कोशिश की कि वाराणसी में नरेंद्र मोदी के रोड शो के दरम्यान जो भीड़ एकत्र हुयीवह वाराणसी के अपने लोग थे। लेकिन हकीकत ऐसी नहीं थी। पूर्वांचल की 20 लोकसभा सीटों में से कम से कम दस के प्रत्याशी एक दिन पूर्व से अपने समर्थकों के साथ वाराणसी आ धमके थे। इनकी संख्या हजारों में थी।

उन बंदों ने साफ साफ दो टूक शब्दों में कहा कि यूपी बाकी देश से अलग है क्योंकि यहाँ राजनीतिक समीकरण चुनाव प्रचार से मीडिया तूफान से बदलने वाले नहीं हैं। जिसे जहाँ वोट करना है, किसे जिताना है और किसे हराना है, उसकी मुकम्मल रणनीति होती है। बाकी देश की तरह हवा में बहकर यूपी वाले वोट नहीं डालते।

उन बंदों ने साफ साफ दो टूक शब्दों में कहा कि यूपी अकेला सूबा है, जहाँ आम आदमी कांग्रेस और भाजपा दोनों के खिलाफ है और लोग खुलकर बहुजन समाजवादी पार्टी, समाजवादी पार्टी और यहाँ तक कि आम आदमी पार्टी को वोट करके उन्हें सत्ता से बाहर रखने की हर चंद कोशिश में जुटे हैं। मीडिया चूँकि पेड न्यूज वाले हैं, इसलिये अन्दर की इस हलचल पर उसकी कोई खबर नहीं है।

पश्चिम उत्तर प्रदेश के इन मुसलमानों ने मीडिया के इस कयास को कि मुसलामान सपा का साथ छोड़ चुके हैं, कोरी बकवास बताया। वे बोले कैराना और मुजफ्फरनगर में जरूर मुसलमान सपा से नाराज हैं। लेकिन यह नाराजगी भगवा जीत का सबब नहीं बन सकती। उन बंदों ने साफ साफ दो टूक शब्दों में कहा कि मुसलमान हर कहीं यह देख रहे हैं कि कौन उम्मीदवार भाजपा को हरा सकता है। इसके अलावा मुसलमान भाजपा के सही उम्मीदवारों के हक में वोट डालने से भी परहेज नहीं कर रहे हैं।

उन बंदों ने साफ-साफ दो टूक शब्दों में कहा कि भेड़ धंसान की तर्ज पर या किसी फतवे के मुताबिक भी मुसलमान वोट नहीं डाल रहे हैं। कांग्रेस, भाजपा, सपा और बसपा को अपने हितों के मद्देनजर वोट डाल रहे हैं मुसलामान। कौमी हिसाब किताब से से जो चुनाव नतीजे ऐलान कर रहे हैं, वे सिरे से गलत हैं। उन्होंने साफ साफ कहा कि बनारस में किसी मुख्तार की जागीर नहीं है मुस्लिम आबादी और काशी की तहजीब हजारों साल पुरानी है। वहाँ लोग हिन्दू हो या मुसलमान, कौमी भाईचारे और अमनचैन की गंगा जमुनी विरासत के खिलाफ वोट हरगिज नहीं करेंगे। वे अपनी बेरोजगारी और वोट बैंक बन जाने की लाचारी की शिकायत भी कर रहे थे। शिया सुन्नी और पसमांदा समीकरण पर भी बात कर रहे थे। करीब पांच घंटे यह खुली बातचीत चली।

इसी के मध्य एक तीसेक साल का नौजवान ने आकर सीधे मेरे मुखातिब होकर कहा कि अंकल, आप मोदी के खिलाफ हैं क्या जो मोदी के खिलाफ इतना बोल रहे हैं।

मैंने विनम्रता पूर्वक कहा कि हम मोदी के खिलाफ नहीं हैं। मोदी तो इस्तेमाल किये जा रहे हैं। मोदी ब्राण्डिग में जो देशी विदेशी पूँजी का खेल है, हम उसके खिलाफ हैं। हमने पूछा कि अगर वाजपेयी मुकाबले में होते तो क्या वे मदी की सरकार बनाने की बात करते।

उसने कहा, हरगिज नहीं।

हमने कहा कि मुकाबला तो भाजपा और संघ परिवार के बीच है। संघ परिवार सीधे सत्ता हासिल करने की फिराक में है और भाजपा को खत्म करने पर तुला है।

उसने काफी आक्रामक ढंग से बांग्लादेश और पाकिस्तान में हिन्दुओं के कत्लेआम के बारे में पूरे संघी तेवर से हमारी राय पूछी तो हमने यकीनन गुजरात नरसंहार का मामला नहीं उठाया, बल्कि बांग्लादेश और पाकिस्तान केलोकतान्त्रिक प्रतिरोध आंदोलनों का हवाला देते हुये बताया कि मध्य भारत और बाकी देश में नरसंहार संस्कृति क्या है। हमने बताया कि देश के हर हिस्से में, हर सूबे में, हर शहर में कश्मीर है और अधिसंख्य नागरिकों के नागरिक और मानवाधिकार कारपोरेटहित में खत्म है और यही गुजरात मॉडल है।

उसकी तारीफ करनी होगी कि बेहद आक्रामक मिजाज का होने के बावजूद वह हमारी दलीलों को धीरज से सुन रहा था। हमने उससे कहा कि अगर शिवराज सिंह चौहान को प्रधानमंत्रित्व का उम्मीदवार बनाया जाता तो मध्यप्रदेश के लोग क्या नमोममय भारत की रट लगाते, उसने बेहिचक कहा, हरगिज नहीं। तो हमने कहा कि अगर मोदी रुक गये तो भाजपा का अगला दांव इन्हीं शिवराज पर होगा।

इस पर उसने जो कहा, वह हमें चौंकानवाली बात थी। उसने सीधे कहा कि शिवराज तो अंबानी से रोज मिलते हैं और मध्यप्रदेश में निवेश की पेशकश करते हैं। शिवराज भी तो बेदखली के कारोबार में है। न्यूक्लीअर प्लांट भी वे एमपी में लगा रहे हैं। तो मोदी और शिवराज में फर्क कहां है।

फिर उसको रोजगार और कारोबार के संकट पर बातें हुयी और अंततः वह भी सहमत हुआ कि पहचान की इस सुनामी में युवाशक्ति को मालूम ही नहीं है कि कैसे उसके हाथ पांव दिलोदिमाग काटे जा रहे हैं।

हमें फिर एकदफा लगा कि हम अपने युवाजनों से संवाद के हालात नहीं बना सके हैं और बदलाव की राह में यह शायद निर्णायक रुकावट है। फिर उसने हमारी चर्चा में कोई हस्तक्षेप भी नहीं किया।

हमने लगातार लगातार विचारधारा और आंदोलन के नाम पर उन्हें पहचान की राजनीति में उलझाये रखा क्योंकिप्रतिरोध की राजनीति में हम अपनी खाल उधेड़ जाने से बेहद डरे हुये हैं। हम संपूर्ण क्रांति के नारे उछालकर उन्हें सड़कों पर उतार तो लेते हैं, लेकिन पीछे से चुपके से खिसक लेते हैं और मौका मिलते ही उन्हें दगा देकर सत्ता में शरीक होते हैं और उसके वैचारिक औचित्य की बहस में बदलाव के ख्वाब की निर्मम हत्या कर देते हैं।

बाकी फिर वही पहचान के अलावा कुछ हाथ में नहीं होता। पहचान चेतस युवाजनों के आक्रामक तेवर को समझने की जरूरत है जिसकी मूल वजह हमारी मौकापरस्ती और सत्तापरस्ती है जिससे हम इस कायनात को हमारे बच्चों के लिये खत्म करने पर तुले हुये हैं सिर्फ अपनी मस्ती खातिर बेहतर क्रयशक्ति के लिये।

विडंबना तो यह कि संस्थागत महाविनाशी फासीवादी ध्रुवीकरण इसी पहचान के गर्भ से हो रहा है, सुनामी का प्रस्थानबिंदु वही है और उसी से प्रतिरोध की रेतीली दीवारें खड़ी की जा रही हैं, जिनका दरअसल कोई वजूद है ही नहीं, न हो सकता।

सीधे तौर पर कहे कि ध्रुवीकरण का मतलब है कि सिक्के के दो पहलुओं में से किसी एक को ठप्पा लगाओ, जो समान रुपेण कयामत ही कयामत है। तीसरा कोई विकल्प है ही नहीं। राजकरण की कोई तीसरी दशा या दिशा है ही नहीं। तस्वीर का रुख बदल देने से तस्वीर नहीं बदल जाती। ध्रुवीकरण का तभी मतलब है कि जब कांग्रेस का विकल्प भाजपा हो या भाजपा का विकल्प कांग्रेस हो। जबकि दोनों दरअसल एक है।

आप भाजपा को वोट देते हैं तो वोट कांग्रेस की सर्वनाशी नीतियों को ही वोट दे रहे होते हैं, जिन्हें भाजपा जारी रखेंगी। कांग्रेस को वोट देते हैं भाजपा को रोकने के लिये तो यथास्थिति बनी रहती है। दरअसल यथास्थिति और बदतर स्थिति ही दो विकल्प बचते हैं ध्रुवीकरण मार्फत जिसका नतीजा समान है। आपको तबाही की फसल काटनी है।

हमारे प्रिय मित्र आनंद तेलतुंबड़े सही कहते हैं कि वेस्ट मिनिस्टर प्रणाली अपनाकर हम औपनिवेशिक स्थायी बंदोबस्त ही जारी रखे हुये हैं और इस बंदोबस्त की बुनियादी खामियों को आँख में ऊँगली डालकर चिन्हित करने पर भी हमारा नजरिया बदलता नहीं है। विडंबना यह है कि धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद और पहचान की राजनीति दोनों सत्तावर्ग के कुलीनतंत्र के वर्णवर्चस्वी तंत्र मंत्र यत्र के माफिक है। अब धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद को रणनीतिक मतदान के माध्यम से या फौरी साझा मोर्चा बनाकर आप कैसे रोक सकते हैं, इस पहेली में उलझकर क्या कीजिये। जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र के नाम पर पकी पकायी फसल तो धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की सबसे बेहतरीन शराब है। फिरकापरस्ती और धर्मनिरपेक्षता के बहाने हम उसी पहचान के खड्ड में जा गिरते हैं, जिसमें जाति भी है, क्षेत्र भी, भाषा भी और धर्म भी। जिसमें गूँथी हमारी सोच बुनियादी बदलाव के लिये तैयार ही नहीं है।

हम इसी दलदल में हाथ के साथ हैं या कमल खिलाकर सांपों की फसल तैयार कर रहे हैं। जबकि मूल नस्लवादी मनुवादी व्यवस्था सत्तावर्ग का है और जनसंख्या के समानुपातिक कोई नुमाइंदगी सिरे से असम्भव है तो अवसरों और संसाधनों के बँटवारे की कोई गुंजाइश ही नहीं बनती। आपका समाज तो विखंडित है ही और आपकी राजनीति भी विखण्डित। देश भी खण्ड खण्ड। अर्थव्यवस्था पाताल में है और उत्पादन प्रणाली है ही नहीं। खेती को तबाह कर जल जंगल जमीन और आजीविका से बेदखली के मार्फत अश्वमेधी अभियान के तहत हर हाल में आप न्याय,समानता और भ्रातृत्व, समरसता और विविधता की उम्मीद पाले हुये हैं जबकि आनंद तेलतुंबड़े की मानें तो चुनावी नतीजे इस बंदोबस्त में जो भी होंगे, उसके सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक नतीजे एक दूसरे से बेहतर तो हो ही नहीं सकते। क्योंकि यह स्थाई बंदोबस्त सत्ता वर्ग के लिये है, सत्ता वर्ग द्वारा है और सत्ता वर्ग का ही है। आप जैसे हजारों सालों से बहिष्कृत और वध्य हैं, जैसा भी जनादेश रचे आप, आप नियतिबद्ध हैं मारे जाने के लिये।

हमारे तमाम मित्र चुनाव खर्च का हवाला दे रहे हैं। आंकड़े भी उपलब्ध है कि कैसे पांच साल में चुनावों पर पांच लाख करोड़ खर्च हो गये। अब जायज सवाल तो यही है करीब दस करोड़ रुपये चुनाव जीतने के लिये लगाने वाले हमारे जनप्रतिनिधि अरबपति बनने के अलावा सोच भी क्या सकते हैं।

अरुंधति राय ने पहले ही लिखा था कि हमें दरअसल यही चुनना है कि देश की बागडार हम किसे सौंपे, अंबानी को या टाटा को। अपने ताजा इंटरव्यू में उन्होंने कहा है कि हम दरअसल उसे चुन रहे हैं जो लाचार निःशस्त्र जनताविरुद्धे सैन्य कार्रवाई का आदेश जारी करें।

About The Author

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं। आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।

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