पिंक रेवोल्युशन- एक बार फिर राजनीति में पहचान से जुड़े मुद्दे
मजबूत नेता नहीं होता तानाशाहीपूर्ण और एकाधिकारी
-राम पुनियानी
विघटनकारी राजनीति के पुरोधाओं ने यह वायदा किया था कि इस (2014) चुनाव में वे केवल विकास और सुशासन से जुड़े मुद्दों पर बात करेंगे। परन्तु यह शायद केवल कहने भर के लिये था। जहाँ गुजरात के विकास, मजबूत नेता, सुशासन आदि के बारे में जमकर प्रचार किया जा रहा है वहीं ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ लोगों को यह एहसास हो गया है कि इस प्रचार का गुब्बारा कभी भी फूट सकता है क्योंकि कई अध्ययनों और रपटों से यह सामने आया है कि गुजरात में हालात वैसे नहीं हैं, जैसे कि बताए जा रहे हैं। लोगों को यह भी समझ में आ रहा है कितानाशाहीपूर्ण और एकाधिकारी नेता, मजबूत नेता नहीं होता। मजबूत नेता वह होता है जो सबको साथ लेकर चलता है। अतः, अब इन ताकतों के पास इसके अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है कि वे एक बार फिर पहचान और आस्था से जुड़े मुद्दों पर वापस लौटें।
मांस और बीफ के निर्यात में वृद्धि के मुद्दे को लेकर यूपीए-2 सरकार पर हल्ला बोलते हुये नरेन्द्र मोदी ने 3 अप्रैल 2014 को एक सभा में भाषण देते हुये कहा कि भारत में ''पिंक रेवोल्युशन'' की खातिर मवेशियों को काटा जा रहा है। पिंक रेवोल्युशन से आशय मांस व बीफ के व्यापार व निर्यात से है। हमारे देश में बीफ (गौमांस) भक्षण एक अत्यंत संवेदनशील धार्मिक मुद्दा है। परन्तु इसके बाद भी, भारत दुनिया का सबसे बड़ा बीफ निर्यातक बन गया है और उसने ब्राजील को पीछे छोड़ दिया है। केन्द्रीय खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय की ताजा रपट के अनुसार, भारत ने 2012-13 में 18.9 लाख टन बीफ का निर्यात किया, जो कि पांच वर्ष पहले के आंकड़े से 50 प्रतिशत ज्यादा है। ''आधिकारिक रूप से से देश में गौवध पर प्रतिबंध है इसलिये हमारे देश में बीफ, मुख्यतः भैंस का मांस होता है। भैंसों के मामले में भी सिर्फ नरों और अनुत्पादक मादाओं का वध किया जाता है'', पशुपालन विभाग के एक अधिकारी ने कहा।
गौमांस, भारत की खानपान सम्बंधी परंपरा का अंग रहा है। वैदिक काल में यज्ञों के दौरान गायों की बलि दी जाती थी। जैसे-जैसे खेती का विकास होता गया, गौवध पर प्रतिबंध लगाये जाने लगे क्योंकि कृषि कार्य के लिये बैलों की जरूरत होती थी। अमेरिका में एक बड़ी सभा में बोलते हुये स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ''आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि प्राचीन संस्कारों के अनुसार, जो हिन्दू गौमांस नहीं खाता वह अच्छा हिन्दू नहीं माना जाता था। कुछ मौकों पर उसके लिये बैल की बलि देकर उसका भक्षण करना आवश्यक माना जाता था।'' (शेक्सपियर क्लब, पसाडेना, कैलिफोर्निया में 'बौद्ध भारत' विषय पर 2 फरवरी 1900 को बोलते हुये, द कंपलीट वर्क्स ऑफ़ स्वामी विवेकानंद, खंड-3, अद्वैत आश्रम, कलकत्ता, 1997, पृष्ठ 536)।
यही बात रामकृष्ण मिशन, जिसकी स्थापना स्वामी विवेकानंद ने ही की थी, द्वारा प्रकाशित अन्य अनुसंधानात्मक पुस्तकों से भी सिद्ध होती है। उनमें से एक में कहा गया है, ''वैदिक आर्य, जिनमें ब्राह्मण भी शामिल थे, मछली, मांस और यहां तक कि गौमांस भी खाते थे। किसी भी प्रतिष्ठित मेहमान को सम्मान देने के लिये गौमांस परोसा जाता था। यद्यपि वैदिक आर्य गौमांस खाते थे तथापि दुधारू गायों को नहीं मारा जाता था। गाय के लिये एक शब्द प्रयोग किया जाता था 'अघन्य' (कभी नहीं मारी जा सकने वाली)। परन्तु अतिथि के लिये एक शब्द था 'गोघ्न' (वह जिसके लिये गौवध किया जाता है)। केवल सांडों, दूध न देने वाली गायों और बछड़ों का वध किया जाता था'' (सी कुन्हन राजा, 'वैदिक कल्चर', सुनीति कुमार चटर्जी व अन्य द्वारा संपादित ''द कल्चरल हैरीटेज ऑफ़ इंडिया'' खंड-1 में उद्धत, द रामकृष्ण मिशन, कलकत्ता, 1993, पृष्ठ 217)। इतिहासविद् डी एन झा द्वारा किए गये अनुसंधान से भी यह जाहिर होता है कि भारत में गौमांस भक्षण की परंपरा थी। यही बात डाक्टर पांडुरंग वामन काने ने अपने बहुखंडीय ग्रंथ ''भारतीय धर्मग्रंथों का इतिहास'' में कही है जिसमें वे वेदों से उद्धृत कर लिखते हैं, 'अथो अनम व्या गौ' (गाय सचमुच एक भोजन है)।
कृषि आधारित समाज के उदय के साथ गाय को एक पवित्र पशु का दर्जा दे दिया गया। इसका कारण स्पष्ट था। खेती में बैलों की जरूरत होती थी और गौवध से बैलों की कमी हो जाने का खतरा था। आमजनों को गायों को मारने से रोकने के लिये उसे धर्म से जोड़ दिया गया। अक्सर यह दुष्प्रचार किया जाता है कि मुस्लिम बादशाहों ने भारत में गौमांस भक्षण की परंपरा शुरू की। यह सही नहीं है। सच तो यह है कि भारत की बहुसंख्यक हिन्दू जनता की भावनाओं का सम्मान करते हुये, मुस्लिम बादशाहों ने भी गौवध पर प्रतिबंध लगाए। बाबर की अपने पुत्र हुमायूँ को लिखी वसीयत (जिसे राष्ट्रीय संग्रहालय में प्रदर्शित किया गया है) इस तथ्य को सिद्ध करती है।
''पुत्र, इस हिंदुस्तान देश में कई धर्म हैं। अल्लाह का शुक्रिया अदा करो कि उसने हमें यहां का राज दिया। हमें अपने दिल से सभी भेदभाव मिटा देने हैं और हर समुदाय के साथ उसकी रस्मों-रिवाजों के अनुरूप न्याय करना है। इस देश के लोगों के दिलों को जीतने के लिये और प्रशासन के कार्य से उन्हें जोड़ने के लिये गौवध से बचो…'' (मूल से अनुवाद राष्ट्रीय संग्रहालय द्वारा)।
इस प्रचार में कोई दम नहीं है कि भारत में गौमांस भक्षण मुगल बादशाहों ने शुरू किया। सच यह है कि अंग्रेजों ने भारत में सबसे पहले गौवध और गौमांस भक्षण की परंपरा शुरू की। उन्होंने सेना के बैरकों में खटीकों की नियुक्ति की जिनका काम गायों को काटकर सेना के लिये गौमांस का प्रदाय सुनिश्चित करना था। अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति के कारण धर्म के नाम पर राजनीति शुरू हुई और गाय और सुअर, सांप्रदायिक हिंसा भड़काने और धार्मिक आधार पर समाज को ध्रुवीकृत करने के औजार बन गए। गौवध के नाम पर कई बार देश के विभिन्न इलाकों में साम्प्रदायिक हिंसा भड़की है। केरल और पश्चिम बंगाल को छोड़कर, देश के सभी राज्यों में गौवध पर प्रतिबंध है। वर्तमान में गौवध करने पर कड़ी सजा का प्रावधान है और इसलिये, जिसे हम बीफ कहते हैं, वह मुख्यतः भैंस का मांस होता है। अभी हाल में गोहाना में कुछ दलितों को इस आरोप में जान से मार दिया गया था कि उन्होंने गाय की चमड़ी के लिये उसकी हत्या की है।
गौमांस कई समुदायों के खानपान का हिस्सा रहा है, विशेषकर दलितों और आदिवासियों के व दक्षिण भारत के निवासियों के। मटन की बढ़ती कीमत के कारण, बीफ, गरीबों के लिये प्रोटीन का समृद्ध स्त्रोत है यद्यपि कुछ लोग इसके स्वाद के खातिर भी इसे खाते हैं। अभी हाल में मैं पूर्वी यूरोप गया था। मैंने देखा कि हमारे दल में शामिल एक हिन्दू परिवार के रोजाना के भोजन में बीफ अवश्य सम्मिलित रहता था।
प्रश्न यह है कि क्या हमें अपनी पसंद का भोजन करने की स्वतंत्रता है या नहीं? यूपीए-2 पर पिंक रेवोल्यूशन लाने का आरोप, दरअसल, इस मुद्दे का साम्प्रदायिकीकरण करने का प्रयास है। भाजपा के प्रवक्ता टीवी चैनलों पर यह दावा कर रहे हैं कि बीफ के निर्यात को प्रोत्साहन देने की नीति के कारण हमारे देश में दूध के उत्पादन और खेती पर बुरा असर पड़ रहा है। सरकार की वर्तमान नीतियों में कोई भी कमी हो परन्तु एक बात स्पष्ट है और वह यह है कि हमारा दुग्ध उत्पादन लगातार बढ़ रहा है और अगर कृषि उत्पादन में कमी आ रही है तो उसका कारण मवेशियों की घटती संख्या नहीं है। इस तरह के दावे करने वालों को पहले अध्ययन करना चाहिए। उन्हें यह समझना चाहिए कि जो लोग मवेशी पालते हैं, उनमें से अधिकांश गरीब और नीची जातियों के होते हैं और वे दूध न देने वाले बूढ़े मवेशियों का बोझा नहीं उठा सकते। खाद्य व अर्थशास्त्र का प्राकृतिक चक्र, बीफ उत्पादन में वृद्धि के लिये जिम्मेदार है और इस मुद्दे का साम्प्रदायिकीकरण नहीं किया जाना चाहिए। हमें अपनी कृषि आधारित अर्थव्यवस्था को आगे ले जाना है। पशुपालन, कृषि से जुड़ा हुआ व्यवसाय है और उसका साम्प्रदायिकीकरण, हमारे प्रजातांत्रिक समाज के मूल्यों के विपरीत है। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
No comments:
Post a Comment