विशेषज्ञता हाशिल किये पढ़े लिखे लोग आर्थिक मुद्दों पर खामोश हैं,तो अब अपनी अपनी गर्दन की खैर मनाइये।
एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
आर्थिक मुद्दों पर नई सरकार के लिए जनादेश निर्मिति कल्पे सजे कुरुक्षेत्र में कोई मोर्चाबंदी है ही नहीं,जबकि जनादेश का रसायनशास्त्र केसरिया अर्थतंत्र का बीजगणित है। अरविंद केजरीवाल ने चुनिंदा कंपनियों के खिलाफ जिहाद का ऐलान करके सनसनी जरुर फैला दी,लेकिन कोई आर्थिक विमर्श पेश करने का शायद उनका भी इरादा नहीं है।
हमारी आंखें बंद हैं और हम देख नही पा रहे हैं कि मुक्त बाजार की शैतानी ताकतें कैसे हमारी कस्मत तय कर रही हैं और इसका नजारा खुलाआम है।
वोट अभी पड़े नहीं कि वाशिंगटन ने फतवा जारी कर दिया कि भारत के लिए विकास का मतलब अब नमोमय भारत है।
इस विकास पर चर्चा हद से हद गुजरात माडल तक सीमाबद्ध है।जबकि दो दशकों के नवउदारवाद के तमाम विध्वंसक नतीजे हम भुगत रहे हैं।
कटे हुए हाथों,पावों और दिलोदिमाग के साथ।बदहाली का यह आलम हमारे सरद्रद का सबब है ही नहीं।बैगानी शादी में हर शख्स अब्दुल्ला दीवाना है।
कारपोरेट राज के खिलाफ बुलंद आवाजें खामोश है।आम लोगों को समझाने के लिए कोई मैदान में नहीं है कि कैसे कत्लगाह में बदल गया है देश और राजनीति कैसे कारपोरेट लाबिइंग में बदल गयी है।
लगातार दस साल तक सत्ता में रहने के बावजूद डा. मनमोहन सिंह किन्ही सवालों के घेरे में नहीं है।लोग राहुल गांधी पर हमला कर रहे हैं और यूपीए सरकार के क्रियाकलापों पर ,खास तौर पर उनके अमल में लाये आर्थिक सुधारों पर चर्चा ही नहीं कर रहे हैं।
जो चुनाव नवउदारवाद और अबाध छिनाल पूंजी,ध्वस्त उत्पादन प्रणाली और तबाह देहात के मुद्दे पर लड़ा जाना चाहिए था,उसे धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के पक्ष विपक्ष में ध्रूवीकरण की हर संभव राजनीतिक दगाबाजी के तहत लड़ी जा रही है।
कालाधन के शक्तिमान अरबपतियों को संसद में चुनकर भेजने की कवायद में लगे हैं हम,या उनचमकदार सितारों को जो मुक्त बाजार के सबसे बड़े आइकन हैं।
भूख,बेरोजगारी,बेदखली,महंगाई,अंधाधुंध शहरीकरण,विनिवेश,एफडीआई, ठेके पर नौकरी और बंधुआ बना दिये गये पेशेवर,नौकरीपेशा लोगों की कूकूरगति पर कहीं कोई चुनाव लड़ा नहीं जा रहा है।
बाहुबलि और धनपशु कारपोरेट हित में कारपोरेट पैसे से ऩई सरकार बनाने में लगे हैं और अपने सुभीधे के हिसाब से मुद्दे तय कर रहे हैं जो सुर्खियों में परोसी जा रही है सनसनीखेज तरीके से।
मसलन बंगाल में परिवर्तन अंधाधुंध शहरीकरण,औद्योगीकरण और जबरन भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर जनविद्रोह के तार्किक नतीजे के तहत आया।
अब वे मुद्दे हाशिये पर है और मां माटी मानुष की सरकार गुजरात माडल के विकास को अमली जामा पहनाने में लगी है।
पीपीपी माडलके विकास को बंगाल के कायाकल्प बतौर पेश करके चुनाव लड़ा जा रहा है।
तंगहाल अर्थव्यवस्था,छीजती क्रयशक्ति,सुरसाई बेरोजगारी और सेवाओं को सीधे मुक्त बाजार में तब्दील करने के मुद्दे कही नहीं है।
शारदा फर्जीवाड़ा पर रोजखुलासा हो रहा है,मुद्दा लेकिन वह भी नहीं है।चुनाव आयोग और ममता के युद्ध को सबसे बड़ा मुद्दा बना दिया गया है।
नरेंद्र मोदी और उनको प्रधानमंत्री बनाने वाले लसंघ परिवार के फासीवाद पर खूब चर्चा हो रही है लेकिन इस पर चर्चा केंद्रित हो ही नहीं पा रही कि क्यों वाशिंगटन की बीस साल तक वफादारीसे सेवा करने वाले डा.मनमोहन सिंह की कारपोरेट टीम के बदले वैश्विक व्यवस्था ने भारतीय जनता पर नमो विकल्प थोंपा है और कौन सा इंडिया ब्रांड नमोपार्टी पेश कर रही है और उस नमोमय भारत में आम आदमी की हैसियत क्या होनेवाली है।
राजनीति के विश्वासघात,विचारधाराओं का विचलन,आंदोलनों का भटकाव समझे जा सकते हैं।भ्रष्ट सत्तावर्ग की राजनीति से कुछ अपेक्षा है भी नहीं,लेकिन विशेषज्ञता हाशिल किये पढ़े लिखे लोग आर्थिक मुद्दों पर खामोश है,तो अब अपनी अपनी गर्दन की खैर मनाइये।
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