चुनावी बिसात पर सजी मोहरें और हिन्दू राष्ट्र का सपना
आनंद स्वरूप वर्मा
16वीं लोकसभा के लिये चुनाव की सरगर्मी अपने चरम पर है और 7 अप्रैल से मतदान की शुरुआत भी हो चुकी है। इस बार का चुनाव इस दृष्टि से अनोखा और अभूतपूर्व है कि समूची फिजा़ं में एक ही व्यक्ति की चर्चा है और वह है नरेंद्र मोदी। भाजपा के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी जिन्हें बड़े जोर-शोर से प्रधानमंत्री पद के लिये आगे किया गया है। इनके मुकाबले में हैं कांग्रेस के राहुल गांधी और एक हद तक 'आम आदमी पार्टी' के अरविंद केजरीवाल। केजरीवाल ने अभी कुछ ही दिनों पहले अपनी पार्टी बनायी है और देखते-देखते उनकी हैसियत इस योग्य हो गयी कि वह राष्ट्रीय राजनीति में जबर्दस्त ढंग से हस्तक्षेप कर सकें। कांग्रेस और भाजपा के बीच भारतीय राजनीति ने जो दो ध्रुवीय आकार ग्रहण किया था उसे तोड़ने में 'आप' ने एक भूमिका निभायी है और दोनों पार्टियों के नाकारापन से ऊबी जनता के सामने नए विकल्प का भ्रम खड़ा किया है। केजरीवाल पूरी तरह राजनीति में हैं लेकिन एक अराजनीतिक नजरिए के साथ। उनका कहना है कि वह न तो दक्षिणपंथी हैं, न वामपंथी और न मध्यमार्गी। वह क्या हैं इसे उन्होंने ज्यादा परिभाषित न करते हुये लगभग अपनी हर सभाओं, बैठकों और संवाददाता सम्मेलनों में बस यही कहा है कि वह प्रधानमंत्री बनने के लिये नहीं बल्कि देश बचाने के लिये चुनाव लड़ रहे हैं। जिस तरह से सुब्रत राय शैली में चीख-चीख कर वह अपने देशभक्त होने और बाकी सभी को देशद्रोही बताने में लगे हैं उससे उनकी भी नीयत पर संदेह होता है। वैसे, आम जनता की नजर में अपनी कार्पोरेट विरोधी छवि बनाने वाले केजरीवाल ने उद्योगपतियों की एक बैठक में कह ही दिया कि वह पूंजीवाद विरोधी नहीं हैं और न पूंजीपतियों से उनका कोई विरोध है। उनका विरोध तो बस 'क्रोनी कैपीटलिज्म' से है। बहरहाल, इस टिप्पणी का मकसद मौजूदा चुनाव को लेकर लोगों के मन में पैदा विभिन्न आशंकाओं पर विचार करना है।
समूचे देश में इस बार गजब का ध्रुवीकरण हुआ है। अधिकांश मतदाता या तो मोदी के खिलाफ हैं या मोदी के पक्ष में। चुनाव के केंद्र में मोदी हैं और सभी तरह के मीडिया में वह छाए हुये हैं। जिस समय इंडिया शाइनिंग का नारा भाजपा ने दिया था या जब 'अबकी बारी-अटल बिहारी' का नारा गूंज रहा था उस समय भी प्रचार तंत्र पर इतने पैसे नहीं खर्च हुये थे जितने इस बार हो रहे हैं। जो लोग मोदी को पसंद करते हैं वे भाजपा के छः वर्ष के शासनकाल का हवाला देते हुये कहते हैं कि क्या उस समय आसमान टूट पड़ा था? पूरे देश में क्या सांप्रदायिक नरसंहार हो रहे थे? क्या नागरिक अधिकारों को समाप्त कर दिया गया था? नाजी जर्मनी की तरह क्या पुस्तकालयों को जला दिया गया था और बुद्धिजीवियों को देश निकाला दे दिया गया था? ऐसा कुछ भी तो नहीं हुआ था। फिर आज इतनी चिंता क्यों हो रही है? तमाम राजनीतिक दलों की तरह भाजपा भी एक राजनीतिक दल है और अगर वह चुनाव के जरिए सत्ता में आ जाती है तो क्या फर्क पड़ने जा रहा है? किसी के भी मन में इस तरह के सवाल उठने स्वाभाविक हैं। हालांकि जो लोग यह कह रहे हैं वे भूल जा रहे हैं कि उसी काल में किस तरह कुछ राज्यों की पाठ्यपुस्तकों में हास्यास्पद पाठ रखे गये और ईसाइयों को प्रताड़ित किया गया। अटल बिहारी वाजपेयी ने भले ही 'राजधर्म' की बात कह कर अपने को थोड़ा अलग दिखा लिया हो पर केंद्र में अगर उनकी सरकार नहीं रही होती तो क्या नरेंद्र मोदी इतने आत्मविश्वास से गुजरात में मुसलमानों का कत्लेआम कर सकते थे? तो भी, अगर सचमुच कोई राजनीतिक दल चुनाव के जरिए जनता का विश्वास प्राप्त करता है (भले ही चुनाव कितने भी धांधलीपूर्ण क्यों न हों) तो उस विश्वास का सम्मान करना चाहिए।
लेकिन यह बात राजनीतिक दलों पर लागू होती है। मोदी के आने से चिंता इस बात की है कि वह किसी राजनीतिक दल के प्रतिनिधि के रूप में नहीं बल्कि राजनीतिक दल का लबादा ओढ़कर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसे फासीवादी संगठन के प्रतिनिधि के रूप में चुनाव मैदान में है। 1947 के बाद से यह पहला मौका है जब आर.एस.एस. पूरी ताकत के साथ अपने उस लक्ष्य तक पहुँचने के एजेंडा को लागू करने में लग गया है जिसके लिये 1925 में उसका गठन हुआ था। खुद को सांस्कृतिक संगठन के रूप में चित्रित करने वाले आर.एस.एस. ने किस तरह इस चुनाव में अपनी ही राजनीतिक भुजा भाजपा को हाशिए पर डाल दिया है इसे समझने के लिये असाधारण विद्वान होने की जरूरत नहीं है। लाल कृष्ण आडवाणी को अगर अपवाद मान लें तो जिन नेताओं को उसने किनारे किया है वे सभी भाजपा के उस हिस्से से आते हैं जिनकी जड़ें आर.एस.एस. में नहीं हैं। इस बार एक प्रचारक को प्रधानमंत्री बनाना है और आहिस्ता-आहिस्ता हिन्दू राष्ट्र का एजेंडा पूरा करना है। इसीलिये मोदी को रोकना जरूरी हो जाता है। इसीलिये उन सभी ताकतों को किसी न किसी रूप में समर्थन देना जरूरी हो जाता है जो सचमुच मोदी को प्रधानमंत्री बनने से रोक सकें।
इस चुनाव में बड़ी चालाकी से राम मंदिर के मुद्दे को भाजपा ने ठंडे बस्ते में डाल दिया है। अपनी किसी चुनावी सभा में नरेंद्र मोदी ने यह नहीं कहा कि वह राम मंदिर बनाएंगे। अगर वह ऐसा कहते तो एक बार फिर उन पार्टियों को इस बात का मौका मिलता जिनका विरोध बहुत सतही ढंग की धर्मनिरपेक्षता की वजह है और जो यह समझते हैं कि राम मंदिर बनाने या न बनाने से ही इस पार्टी का चरित्र तय होने जा रहा है। वे यह भूल जा रही हैं कि आर.एस.एस की विचारधारा की बुनियाद ही फासीवाद पर टिकी हुयी है जिसका निरूपण काफी पहले उनके गुरुजी एम.एस. गोलवलकर ने अपनी पुस्तक 'वी ऑर ऑवर नेशनहुड डिफाइन्ड' पुस्तक में किया था। उन्होंने साफ शब्दों में कहा था कि 'भारत में सभी गैर हिन्दू लोगों को हिन्दू संस्कृति और भाषा अपनानी होगी और हिन्दू धर्म का आदर करना होगा और हिन्दू जाति और संस्कृति के गौरवगान के अलावा कोई और विचार अपने मन में नहीं लाना होगा।' इस पुस्तक के पांचवें अध्याय में इसी क्रम में वह आगे लिखते हैं कि 'वे (मुसलमान) विदेशी होकर रहना छोड़ें नहीं तो विशेष सलूक की तो बात ही अलग, उन्हें कोई लाभ नहीं मिलेगा, उनके कोई विशेष अधिकार नहीं होंगे-यहां तक कि नागरिक अधिकार भी नहीं।'
भाजपा के नेताओं से जब इस पुस्तक की चर्चा की जाती है तो वह जवाब में कहते हैं कि वह दौर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई का था और उस परिस्थिति में लिखी गयी पुस्तक का जिक्र अभी बेमानी है। लेकिन 1996 में तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आधिकारिक तौर पर इस पुस्तक से पल्ला झाड़ते हुये कहा कि यह पुस्तक न तो 'परिपक्व' गुरुजी के विचारों का और न आरएसएस के विचारों का प्रतिनिधित्व करती है। यह और बात है कि इस पुस्तक के प्रकाशन के एक वर्ष बाद ही 1940 में गोलवलकर आरएसएस के सरसंघचालक बने। काफी पहले सितंबर 1979 में समाजवादी नेता मधु लिमये ने अपने एक साक्षात्कार में गोलवलकर की अन्य पुस्तक 'बंच ऑफ थाट्स' के हवाले से बताया था कि गोलवलकर ने देश के लिये तीन आंतरिक खतरे बताए हैं-मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्ट।
गोलवलकर की पुस्तक 'वी ऑर ऑवर नेशनहुड डिफाइन्ड' 1939 में लिखी गयी थी लेकिन आज नरेन्द्र मोदी के मित्र और भाजपा के एक प्रमुख नेता सुब्रमण्यम स्वामी गोलवलकर के उन्हीं विचारों को जब अपनी भाषा में सामने लाते हैं तो इसका क्या अर्थ लगाया जाय। 16 जुलाई 2011 को मुंबई से प्रकाशित समाचार पत्र डीएनए में 'हाउ टु वाइप आउट इस्लामिक टेरर' शीर्षक अपने लेख में उन्होंने 'इस्लामी आतंकवाद' से निपटने के लिये ढेर सारे सुझाव दिये हैं और कहा है कि अगर कोई सरकार इन सुझावों पर अमल करे तो भारत को पूरी तरह हिन्दू राष्ट्र बनाया जा सकता है। अपने लेख में उन्होंने लिखा है कि 'इंडिया यानी भारत यानी हिन्दुस्तान हिन्दुओं का और उन लोगों का राष्ट्र है जिनके पूर्वज हिन्दू थे। इसके अलावा जो लोग इसे मानने से इनकार करते हैं अथवा वे विदेशी जो पंजीकरण के जरिए भारतीय नागरिक की हैसियत रखते हैं वे भारत में रह तो सकते हैं लेकिन उनके पास वोट देने का अधिकार नहीं होना चाहिए।'
गौर करने की बात है कि गोलवलकर और सुब्रमण्यम स्वामी दोनों इस पक्ष में हैं कि जो अपने को हिन्दू नहीं मानते हैं उनके पास किसी तरह का नागरिक अधिकार नहीं होना चाहिए। अपने इसी लेख में सुब्रमण्यम स्वामी ने सुझाव दिया कि काशी विश्वनाथ मंदिर से लगी मस्जिद को हटा दिया जाय और देश के अन्य हिस्सों में मंदिरों के पास स्थित अन्य 300 मस्जिदों को भी समाप्त कर दिया जाय। उन्होंने यूनिफार्म सिविल कोड लागू करने की मांग करते हुये कहा है कि संस्कृत की शिक्षा को और वंदे मातरम को सबके लिये अनिवार्य कर दिया जाय। भारत आने वाले बांग्लादेशी नागरिकों की समस्या के समाधान के लिये उनका एक अजीबो-गरीब सुझाव है। उनका कहना है कि 'सिलहट से लेकर खुल्ना तक के बांग्लादेश के इलाके को भारत में मिला लिया जाय'।
आप कह सकते हैं कि सुब्रमण्यम स्वामी को आर.एस.एस या नरेंद्र मोदी से न जोड़ा जाय। लेकिन जनता पार्टी के अध्यक्ष के रूप में एक अत्यंत सांप्रदायिक लेख लिखने और 'हेडलाइंस टुडे' चैनल के पत्रकार राहुल कंवल को बेहद आपत्तिजनक इंटरव्यू देने के बाद ही उन्हें दोबारा भाजपा में शामिल कर लिया गया और जैसा कि वह खुद बताते हैं, उनके सुझाव पर ही पार्टी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में प्रोजेक्ट किया। राहुल कंवल को उन्होंने जो इंटरव्यू दिया था उसमें उन्होंने कहा कि 'भारत में 80 प्रतिशत हिन्दू रहते हैं। अगर हम हिन्दू वोटों को एकजुट कर लें और मुसलमानों की आबादी में से 7 प्रतिशत को अपनी ओर मिला लें तो सत्ता पर कब्जा कर सकते हैं। मुसलमानों में काफी फूट है। इनमें से शिया, बरेलवी और अहमदी पहले से ही भाजपा के करीब हैं। यह नहीं कहा जा सकता कि मुसलमानों का समग्र रूप से कोई एक वोट बैंक है। आप खुद देखिए कि पाकिस्तान में किस तरह बर्बरता के साथ शिया लोगों का सफाया किया गया। हमारी रणनीति बहुत साफ होनी चाहिए। हिन्दुओं को एक झंडे के नीचे एकजुट करो और मुसलमानों में फूट डालो।' यह इंटरव्यू 21 जुलाई 2013 का है। इसी इंटरव्यू में उन्होंने आगे कहा है कि 'अगर मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं तो निश्चित तौर पर अयोध्या में राममंदिर का निर्माण होगा। इस मुद्दे पर पीछे जाने का प्रश्न ही नहीं उठता। हम कानूनी रास्ता अख्तियार करेंगे और मुसलमानों को भी मनाएंगे। मंदिर का मुद्दा हमेशा भाजपा के एजेंडे पर रहा है।'
डीएनए में प्रकाशित लेख के बाद हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय के छात्रों और अध्यापकों के अंदर तीखी प्रतिक्रिया हुयी क्योंकि सुब्रमण्यम स्वामी ने अपनी डॉक्टरेट की उपाधि हॉर्वर्ड से ली है और वहां वह अभी भी एक पाठ्यक्रम पढ़ाने जाते हैं। हॉर्वर्ड अकादमिक समुदाय ने स्वामी के लेख को अत्यंत आक्रामक और खतरनाक बताते हुये इस बात पर शर्मिंदगी जाहिर की कि उनके विश्वविद्यालय से जुड़ा कोई व्यक्ति ऐसे विचार व्यक्त कर सकता है। विश्वविद्यालय ने फौरी तौर पर यह भी फैसला किया कि इकोनॉमिक्स पर जिस समर कोर्स को पढ़ाने के लिये स्वामी वहां जाते हैं उस कोर्स को हटा दिया जाय। बाद में एक लंबी बहस के बाद अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर स्वामी के उस लेख वाले अध्याय पर पर्दा डाल दिया गया लेकिन इस विरोध को देखते हुये डीएनए अखबार ने अपनी वेबसाइट पर से स्वामी के लेख को हटा दिया।
किसी राजनीतिक दल के रूप में भाजपा के आने अथवा भाजपा के किसी प्रत्याशी के प्रधानमंत्री बनने से भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती है! लेकिन यहाँ मामला कुछ और है।
अभी जो लोग नरेन्द्र मोदी को लेकर चिंतित हैं उनकी चिंता पूरी तरह वाजिब है।
'समकालीन तीसरी दुनिया अप्रैल 2014 का संपादकीय
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