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Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Saturday, November 7, 2015

मुसोलिनी की राह पर चलनेवाले सिर्फ असहमत लोगों की हत्या करने की भाषा ही जानते हैं. इसलिए सिर्फ एक ही जवाब है जो इन कायरों के गिरोह को उनकी मांद में धकेल सकता है और वह है अवाम की मजबूत ताकत, उस अवाम की ताकत जो ब्राह्मणवाद की सताई हुई है और जो जटिल अक्लमंदी से दूर है. लेखकों को यह समझना ही होगा कि हिंदू राष्ट्र बुनियादी तौर पर ब्राह्मणों के एक गिरोह की पुनरुत्थानवादी परियोजना है, जो अपनी श्रेष्ठता को स्थापित करने के बेवकूफी भरे सपने देख रहे हैं. इसे बस मिनटों में हराया जा सकता है, अगर इन लेखकों में सिर्फ कुछेक दलीलों की बजाए अपनी मुट्ठी तान कर खड़े हो जाएं! इन बेशर्मों को शर्म नहीं आएगी

हम अपने आदरणीय मित्र आनंद तेलतुंबड़े का यह अत्यंत महत्वपूर्ण आलेख मूल अंग्रेजी में और रेयाज का हिंदी अनुवाद साथ साथ जारी कर रहे हैं।आनंद ने यह आलेख पहले ही भेज दिया था और हम इसके प्रिंट में प्रकाशित होने का इंतजार कर रहे थे।जो इकोनामिक एंड पालिटिकल वीकली में उनके नियमित स्तंभ में छपा।हिंदी अनुवाद भी समयांतर में आ रहा है।


आज संघ परिवार के शाखा संगठन वर्ल्ड ब्राह्मण फेडरेशन ने इतिहास केसरिया बनाने के अभियान का ऐलान कर दिया है और आज के इकोनामिक टाइम्स के पहले पन्ने पर पूरा ब्योरा छपा है।देख लें।ब्राह्मणों को गरियाने वाली बहुजन राजनीति को इस रंगभेदी ब्राह्मणतंत्र और मनुस्मृति शासन की गुलामी में जीना मरना मंजूर है,हिंदुत्व का नर्क जीना मंजूर है,लेकिन बाबासाहेब के जाति उन्मूलन के एजंडे से कोई मतलब नहीं है।

इसी केसरिया सुनामी में नीली और लाल दोनों क्रातियां निष्णात है और बहुजन समाज की छह हाजर जातियां और अल्पसंख्यक समुदाय भी, हिंदुत्व की पैदल फौजें हैं और उनके तमाम राम जो दरअसल हनुमान हैं,जाति और धर्म के नाम पर जाति व्यवस्था को ही मजबूत करने में तन मन धन जान जहां और कायनात की बरकतें,नियामतें और रहमतें ओ3म स्वाहा कर रहे हैं।

आनंद सिलिलेवार तरीक से वस्तुगत विधि और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सामाजिक यथार्थ की परतें तार तार साफ कर रहे हैं।केसरिया सुनामी और हमारी दिमागी गुलामी के बारे में उनका यह आलेख आप जिस भाषा में बेहतर समझते  हैं,पढ़ें।यह आलेख मराठी में अलग से जारी किया जा रहा है तो दूसरी भारतीय भाषाओं में भी इसका अनुवाद जारी होना है।
पलाश विश्वास

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मुसोलिनी की राह पर चलनेवाले सिर्फ असहमत लोगों की हत्या करने की भाषा ही जानते हैं. इसलिए सिर्फ एक ही जवाब है जो इन कायरों के गिरोह को उनकी मांद में धकेल सकता है और वह है अवाम की मजबूत ताकत, उस अवाम की ताकत जो ब्राह्मणवाद की सताई हुई है और जो जटिल अक्लमंदी से दूर है. लेखकों को यह समझना ही होगा कि हिंदू राष्ट्र बुनियादी तौर पर ब्राह्मणों के एक गिरोह की पुनरुत्थानवादी परियोजना है, जो अपनी श्रेष्ठता को स्थापित करने के बेवकूफी भरे सपने देख रहे हैं. इसे बस मिनटों में हराया जा सकता है, अगर इन लेखकों में सिर्फ कुछेक दलीलों की बजाए अपनी मुट्ठी तान कर खड़े हो जाएं!

इन बेशर्मों को शर्म नहीं आएगी

इन बेशर्मों को शर्म नहीं आएगी

Posted by Reyaz-ul-haque on 11/07/2015 06:31:00 PM



आनंद तेलतुंबड़े. अनुवाद: रेयाज उल हक

'जो हमसे असहमत होते हैं, हम उनसे बहस नहीं करते, उन्हें खत्म कर देते हैं.'
-बेनितो मुसोलिनी [द लासियो स्पीचेज (1936), अंतोनियो सांती द्वारा द बुक ऑफ इतालियन विज्डम में उद्धृत, सितादेल प्रेस, 2003, पृ.88.]

देश में एक सचमुच की क्रांति शुरू हुई है. देश को फासीवादी गिरफ्त में जाने के इस पूरे वक्फे में जो बुद्धिजीवी तबका रीढ़विहीन दिखने की हद तक चुप रहता आया है, वह अचानक जाग उठा और उसने साहित्यिक पुरस्कारों को लौटाना शुरू कर दिया. जो बात 4 सितंबर को उदय प्रकाश द्वारा कुछ दिन पहले ही एक दूसरे साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त साथी लेखक एम.एम. कलबुर्गी की हत्या के खिलाफ पुरस्कार लौटाया जाना जमीर की एक हल्की झलक के रूप में दिखी, वह अब एक तूफान बन गई है, जिसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी बहा ले गई और उन्हें अपने कुशासन के खिलाफ लोगों की गुहार पर अपनी रणनीति चुप्पी तोड़ने पड़ी. जब उदय प्रकाश ने अपना पुरस्कार लौटाया, उसके करीब एक महीने के बाद दो साहित्यिक दिग्गजों नयनतारा सहगल और अशोक वाजपेयी ने अपने पुरस्कार लौटा दिए, जिसने विरोध की बाढ़ को और तेज कर दिया. जब मैं यह लिख रहा हूं, 35 से अधिक उल्लेखनीय लेखक अपने पुरस्कार लौटा चुके हैं और यह गिनती अभी बढ़ती जा रही है. दक्षिणपंथी ताकतों द्वारा चौतरफा हमलों के माहौल में यह सचमुच उल्लेखनीय है.

मोदी ने अब तक जो कहा है, उससे ऐसा लगता है कि उन्हें यह अंदाजा है कि यह उत्तर प्रदेश में महज इस अफवाह की बिना पर कि उन्होंने गोमांस खाया था और अपने घर में रख रखा था, एक बेकसूर 52 वर्षीय मुसलमान मो. अखलाक की भीड़ द्वारा पीट पीट कर की गई हत्या और उसके 22 साल के बेटे को गंभीर रूप से जख्मी कर देने पर बुद्धिजीवियों के गुस्से की अभिव्यक्ति भर है. डॉ. दाभोलकर या कॉमरेड पानसरे की तो बात ही रहने दें, मोदी ने कलबुर्गी की हत्या के खिलाफ एक शब्द भी नहीं कहा, जिसने बजाहिर तौर पर लेखकों के विरोध को जन्म दिया है. दादरी की हत्या पर बोलते हुए भी, उन्होंने महज इतना कहा कि यह 'दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण' था और उन्होंने अपनी पार्टी के संगीत सोम – जो इत्तेफाक से गोमांस के निर्यात का धंधा चलाते हैं – जैसे साथियों और साधु, साधवियों और अपने परिवार के द्वारा हत्या को मुखर रूप से जायज ठहराने पर कुछ भी नहीं कहा. एक तरफ तो उन्होंने बात को यह कह कर घुमाया कि उनकी सरकार का इससे कुछ लेना-देना नहीं है, वे विपक्षियों पर निशाना साधने की अपनी आदते को नहीं भूले और कहा कि वे सांप्रदायिकता फैला रहे हैं. राष्ट्र के जमीर की रहनुमाई करनेवाले लेखकों के इस जारी विद्रोह पर मोदी में या सरकार में उनके साथियों में रत्ती भर पछतावा या शर्म का जरा सा भी अहसास नहीं था.

गोमांस पर पाबंदी

गोमांस पर पाबंदी इन सबसे गंदे दिमागों की सीधी सियासत है, क्योंकि यह मुसलमानों को निशाना बना कर देश में बिखराव लाने के लिए इस्तेमाल की जाती है, मानो बुनियादी तौर पर वे ही गोमांस खाते हैं. जब लालू प्रसाद यादव ने कहा कि हिंदू भी गोमांस खाते हैं, तो यह तथ्य पर आधारित एक बयान था, लेकिन उसे मीडिया के बेवकूफों ने भड़का कर एक बड़ा विवाद बना दिया. अगर कोई नाम ही लेना चाहे तो दलित, आदिवासी, गैर-खेतिहर अन्य पिछड़ी जातियां, मुसलमान, ईसाई और पूरा का पूरा पूर्वोत्तर गोमांस खाता है और अगर इस पूरी आबादी को जोड़ लिया जाए तो देश की कुल आबादी के आधे से भी ज्यादा होगा. जिन तबकों के नाम लिए गए हैं, न तो उनमें से आनेवाला हरेक इंसान गोमांस खाता है और न ही बाकी के सभी तथाकथित हिंदू गोमांस से परहेज करते हैं. इसलिए गोमांस पर पाबंदी लगाना लोगों की जिंदगी के बुनियादी अधिकार पर हमला है. हिंदुत्व ब्रिगेड संविधान 'राज्य के नीति-निर्देशक उसूलों' के तहत अनुच्छेद 48 से अपनी बेशर्मी ढंक रहा है, जिसमें लिखा है कि 'राज्य खेती और पशुपालन को आधुनिकी और वैज्ञानिक पद्धतियों पर संगठित करने की कोशिश करेगा और खास तौर से नस्लों के संरक्षण और बेहतरी के लिए कदम उठाएगा और गायों और दूसरे दुधारू तथा वाहक पशुओं की हत्या पर पाबंदी लगाएगा.' यह शासक वर्गों के जनविरोधी चरित्र का एक सबूत है, जिन्होंने व्यवस्थित रूप से सभी नीति-निर्देशक उसूलों की अनदेखी की है, जिसमें से एक 10 साल के भीतर 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को मुफ्त और सार्वभौम शिक्षा देने की बात कही गई है और सिर्फ गाय के मुद्दे पर ही इतनी पाबंदी दिखाता है. गाय, इस मुल्क के भविष्य से ज्यादा अहम हो गई है. असल में, इस अनुच्छेद का मतलब आंख मूंद कर हर तरह की गाय की हत्या पर पाबंदी नहीं है, लेकिन इसको ऐसे तोड़ा-मरोड़ा गया है कि इसका यही मतलब निकले और यहां तक कि अदालतों ने भी बिना कोई सवाल उठाए इसे कबूल कर लिया है. इसके बावजूद, संविधान गाय की हत्या पर पाबंदी की बात करता है, गोमांस खाने पर पाबंदी की नहीं और गैर दुधारू मवेशियों का मांस खाने पर पाबंदी की तो और भी नहीं.

इस अनुच्छेद के जन्म के बारे में, गोमांस पर पाबंदी के पैरवीकारों को यह बात जरूर पता होनी चाहिए कि संविधान सभा के मुसलमान प्रतिनिधियों (संयुक्त प्रांत के एम/एस जेड.ए. लारी और असम के सैयद मुहम्मद सादुल्ला) ने हिंदुओं की धार्मिक आस्थाओं का सम्मान करते हुए खुद अपनी मर्जी से इसको मंजूरी दी थी. हालांकि रूढ़िवादी हिंदुओं की अतार्किकता इसे बुनियादी अधिकारों का हिस्सा बना देने की हद तक बढ़ गई थी. इसका श्रेय डॉ. आंबेडकर को जाता है कि एक जानवर के अधिकार को बुनियादी अधिकारों में शामिल करने से दुनिया में मुल्क का जो मखौल उड़ता, उससे उन्होंने मुल्क को बचा लिया. उन्होंने इस अनुच्छेद को इस तरह लिखा कि आनेवाली पीढ़ियों के लिए इसकी एक वैज्ञानिक समीक्षा की गुंजाइश रहे. रूढ़िवादी हिंदू सदस्यों ने अपनी दलीलों को भगवत गीता के आध्यात्मिक अर्थशास्त्र के रंग में रंग कर पेश किया था. वे नहीं जानते थे कि प्राचीन दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में गो हत्या पर पाबंदी का चलन था, जहां खेती में बोझ ढोनेवाली ताकत के रूप में बैलों को इस्तेमाल किया जाता था. लेकिन तकनीक और खानपान के तौर-तरीके में बदलाव के साथ (मांस के थोड़े में ज्यादा पौष्टिक भोजन होने के कारण) गाय की हत्या के असली अर्थशास्त्र ने गाय की रक्षा के 'आध्यात्मिक' अर्थशास्त्र की जगह ले ली. जहां तक तथ्यों की बात है, ब्राह्मण पुरोहित सबसे बड़े गोहत्यारे थे, जिसने मवेशियों की रक्षा करने के लिए बुद्ध को विद्रोह करने के लिए उकसाया. हिंदुत्व ताकतों की दलील एक गलत वक्त में दी जा रही, बेईमान और विकास विरोधी दलील है जो मुल्क को गीता के दौर में धकेल रही है.

गाय बनाम इंसान

इसे साफ साफ कहा जाए कि दक्षिणपंथियों की गाय की सियासत, इंसानों के कत्लेमाम की सियासत है. यह महज झज्झर में पांच दलितों या दादरी में एक मुसलमान या उधमपुर में एक कश्मीरी ट्रकचालक के कत्लेआम की बात नहीं है, बल्कि यह मवेशीपालने वाले उन दसियों लाख किसानों के कत्लेआम की बात है, जो खेती में चल रही पहले से ही नुकसानदेह रुझानों और सामाजिक डार्विनवादी नवउदारवाद की वजह से तंगी में हैं. वे गायों को पालने के नकारात्मक आर्थिक इंतजाम के इस बढ़े हुए बोझ से पूरी तरह दब जाएंगे. मौजूदा माली इंतजाम इस पर निर्भर करता है कि अपनी उत्पादक उम्र पूरी कर लेने के बाद गायों को कत्लखाने को बेच दिया जाता है. आमतौर पर एक गाय को 3-4 बार बच्चे देने के बाद बेच दिया जाता है, क्योंकि इसके बाद उसकी दूध की पैदावार और उसकी गुणवत्ता दोनों में गिरावट आती है. भारत में, इसे 8-10 बार बच्चे देने तक खींचा जा सकता है, जिसके बाद वह कम से कम 3-4 साल जिंदा रहेगी. अगर इसके बाद उसे बेचा नहीं गया, तो पूरा माली इंतजाम उलट-पुलट हो जाएगा. और सिर्फ इतना ही नहीं. किसानों के अलावा, ऐसे दसियों लाख लोग और हैं जो गाय के कत्ल और खाल के कारोबार से अपना गुजर-बसर चलाते हैं, जिनमें उनमें सबसे ज्यादा दलित लोग हैं. वे लोग बेरोजगार हो जाएंगे. इसके साथ साथ यह भी होगा कि दूसरे मांस की कीमतों में होने वाली बढ़ोतरी उनके भोजन के संकट को बढ़ा देगी. पहले से ही भारतीयों में प्रोटीन की गंभीर कमी पाई जाती है, जो उनकी शारीरिक और मानसिक क्षमताओं को नुकसान पहुंचाती है. इंडियन मार्केट रिसर्च ब्यूरो (आईएमआरबी) द्वारा किए गए एक उपभोक्ता सर्वेक्षण के मुताबिक 91 फीसदी शाकाहरियों और 85 फीसदी मांसाहारियों में प्रोटीन की कमी थी, जिसको प्रतिदिन शरीर के कुल वजन में, प्रति किलो वजन पर 1 ग्राम से कम प्रोटीन होने के आधार पर मापा जाता है. गरीब लोगों के लिए गोमांस प्रोटीन का एक अहम स्रोत है और इस पर पाबंदी का मतलब उनकी जान ले लेना होगा. इस खतरनाक भूत के बारे में हिंदुत्व की दलील एक जालसाजी है और सिर्फ भावनात्मक उत्पीड़न ही है जब वे यह पलटकर पूछते हैं कि क्या आपकी मां की बूढ़ी उम्र हो जाने के बाद आप उसे छोड़ देते हैं.

गोरक्षा के आर्थिक पहलू पर पिछले दशक में अकादमिक क्षेत्र में शोध किए गए हैं. सबसे हालिया रिपोर्ट एस्थर गेहर्के और माइकल ग्रिम द्वारा प्रकाशित की गई है, जो हमारे अपने एम.वी. दांडेकर और के.एन. राज की खोजों की तस्दीक करती दिखाई पड़ती है. दांडेकर और राज दोनों ही हिंदू और शायद ब्राह्मण थे और जिन्होंने अपना शोध 1969 में प्रकाशित कराया था. दोनों की यह पक्की राय थी कि गाय की पूजा का चलन असल में भारत के मवेशी संसाधन के अधिक तर्कसंगत उपयोग के आड़े आता है. राज ने यहां तक सुझाव दिया था कि धर्म सिर्फ यही अकेली भूमिका निभाता था कि उसने अवांछित मवेशियों से छुटकारा पाने के तरीके तय किए. उन्होंने राय जाहिर की कि गायों को कत्लखाने भेजने के बजाए उत्तर भारतीय किसान जानबूझ कर भूखा रख कर या उसे खुला छोड़ कर, जिससे वे बांग्लादेश के कत्लखानों में चली जाती थीं, धीरे धीरे मौत देने के तरीके को तरजीह देते थे. जाहिर है कि पवित्र गाय के बारे में हिंदुत्ववादी उन्माद में इन तथ्यों पर कोई गौर नहीं किया गया है.

अबाध अतार्किकता

हिंदुत्व गिरोह की मक्कारी और बेईमानी इसके हजार सिरों में बसती है, जो एक ही साथ अनेक आवाजों में बात करता है. एक तरफ जबकि मोदी-शाह बिहार चुनावों की वजह से दादरी में पीट पीट कर की गई हत्या पर नापंसदगी के लहजे में बोलने को मजबूर हुए तो दूसरी तरफ हिंदू दक्षिणपंथ की मूर्खता के महास्रोत आरएसएस ने अपने मुखपत्र पांचजन्य के जरिए इसे जायज ठहराया. आवरण कथा के रूप में छापे गए एक लेख में कहा गया, 'वेदों ने उस पापी की हत्या का आदेश दिया है, जो गाय की हत्या करता है. दादरी पीड़ित ने शायद अपने पापों के प्रभाव में गाय की हत्या की थी.' इसने उन लेखकों को फटकारा गया, जिन्होंने दादरी हत्या पर विरोध जताते हुए साहित्य अकादेमी पुरस्कार लाटाए. उन्हें हिंदू भावनाओं के प्रति असंवेदनशील कहा गया. जैसी की आशंका थी, आरएसएस ने इस मुद्दे से ध्यान भटकाने के लिए कह दिया कि यह लेख संपादकीय नहीं था. इसने तो ऐसा कह दिया, लेकिन इसके बंदरों के गिरोह ने उनकी अतार्किकता के साथ असहमति जताने का साहस करनेवाले लोगों को धमकाने में अपनी बहादुरी दिखानी जारी रखी. साक्षी महाराज, साध्वी प्राची और दूसरे अनेकों ने लोग जहर फैलाते रहे और घिरने पर भाजपा इसकी रट लगाए रहती कि 'वे हमारे लोग नहीं हैं.'

भाजपा एक तरकीब यह भी अपनाती है कि कांग्रेस से शासनकाल में हुई ऐसी ही घटनाओं को चुन ले, ऐसा करते हुए यह इस तथ्य को भूल जाती है कि लोगों ने इसे कांग्रेस की गलतियों को दोहराने या उससे भी आगे निकल जाने के लिए वोट नहीं दिया था. जहां तक लेखकों के विरोध का सवाल है, एक ओर यह जरूर दादरी में पीट पीट कर की गई हत्या से तेज हुआ, लेकिन यह उसी तक सीमित नहीं है. यह संस्थानों को व्यवस्थित रूप से खत्म करने और राजनीति को बेशर्मी से जहरीला बना देने के खिलाफ है, जिस पर वे हिंदू राष्ट्र के सपने को साकार करने के लिए अमल कर रहे हैं. लेखकों द्वारा उठाया गया यह कदम बेहद अहम है, लेकिन शायद इसे उठाने में बड़ी देर कर दी गई. पूरी दुनिया ने उनके विद्रोह पर गौर किया, लेकिन बेशर्म हिंदुत्व परिवार को जरा भर भी शर्म दिलाने में नाकाम रहा. अहम बात यह समझना है कि बुनियादी तौर पर वे ऐसी किसी भी बात की समझदारी से परे हैं. मुसोलिनी की राह पर चलनेवाले सिर्फ असहमत लोगों की हत्या करने की भाषा ही जानते हैं. इसलिए सिर्फ एक ही जवाब है जो इन कायरों के गिरोह को उनकी मांद में धकेल सकता है और वह है अवाम की मजबूत ताकत, उस अवाम की ताकत जो ब्राह्मणवाद की सताई हुई है और जो जटिल अक्लमंदी से दूर है. लेखकों को यह समझना ही होगा कि हिंदू राष्ट्र बुनियादी तौर पर ब्राह्मणों के एक गिरोह की पुनरुत्थानवादी परियोजना है, जो अपनी श्रेष्ठता को स्थापित करने के बेवकूफी भरे सपने देख रहे हैं. इसे बस मिनटों में हराया जा सकता है, अगर इन लेखकों में सिर्फ कुछेक दलीलों की बजाए अपनी मुट्ठी तान कर खड़े हो जाएं!

Shaming the Shameless

By returning their awards writers and artists have taken an important step to fight growing fascism in the country. The present regime does not know how to respond to it but beyond a point it is futile to try and shame the shameless.

Anand Teltumbde (tanandraj@gmail.com) is a writer and civil rights activist with the Committee for the Protection of Democratic Rights, Mumbai.

We do not argue with those who disagree with us, we destroy them.

—Benito Mussolini (The Lazio Speeches (1936), as quoted in The Book of Italian Wisdom by Antonio Santi, Citadel Press, 2003: 88).

Averitable revolution has broken out in the country. The intellectual class that has been silent all this while, to the extent of appearing spineless, as the country was being pushed towards fascism suddenly woke up and began returning its literary awards. What appeared as a trickle of conscience on 4 September 2015, when a noted Hindi writer Uday Prakash protested the murder of a fellow winner of Sahitya Akademi award M M Kalburgi a few days earlier by returning his award, has turned into an avalanche that has swept even Prime Minister Narendra Modi out of his strategic silence. Nearly a month after Uday Prakash did it, two literary giants, Nayantara Sahgal and Ashok Vajpeyi, returned their awards, which catalysed the flood of protests. As I write, over 35 noted writers have already returned their awards and we are still counting. In the context of an all-out onslaught of rightist forces this indeed is remarkable.

Modispeak appeared to assume that it was an expression of intellectual outrage just over the lynching of an innocent 52-year-old Muslim man, Mohammad Akhlaq, in Uttar Pradesh on a rumour that his family stored and ate beef. He did not have a word against Kalburgi's murder, which had sparked off the writers' protests; nor had he said anything about the killings of Narendra Dabholkar and Govind Pansare before that. Even when he was forced to comment on the Dadri incident he just said that it was "sad and unfortunate" and had nothing to say about the loud justifications of the killing by his party legislator Sangeet Som—who incidentally ran a beef export business—and of course, by assorted sadhus and sadhvis of his Parivar. While retorting that his government did not have anything do with Akhlaq's killing, he did not forget to take his characteristic potshots at the opposition that they were spreading communalism. There was no iota of remorse or sense of shame either in him or any of his colleagues in the government over the ongoing revolt of writers—the moral conscience of the nation.

Beef Ban Politics

The beef ban is pure politics of the foulest minds because it is used to disintegrate India by targeting Muslims as though they are necessarily beef eaters. When Lalu Prasad Yadav said that even Hindus eat beef, it was the statement of fact but was flared up by the ignoramuses in the media as a big controversy. If one named people, Dalits, Adivasis, the non-farming Other Backward Class castes, Muslims, Christians and the entire North East, which may add up to over a half of India's population, eat beef. Neither all of these named people eat it nor do all of the rest of so-called Hindus not eat it. To ban beef eating therefore is a gross violation of the fundamental right to life and livelihood. The Hindutva brigade is taking shelter under the fig leaf of Article 48 of the Constitution—the Directive Principles of State Policy—that reads,

The State shall endeavour to organise agriculture and animal husbandry on modern and scientific lines and shall, in particular, take steps for preserving and improving the breeds, and prohibiting the slaughter of cows and other milch and draught cattle.

It is a testimony to the anti-people character of the ruling classes that they have systematically ignored all directive principles, including the one about completing free and universal education of all children up to 14 years within 10 years and singularly focused on the cow. The cow became more important than the future of the country. As a matter of fact the article does not imply unqualified prohibition of cow slaughter but it has been twisted to mean so and even the courts have accepted it unquestioningly. Notwithstanding, it talks of banning slaughter of cows, not eating cow meat, least the meat of entire non-milch cattle. Sadly, it has come to mean it.

With regard to the genesis of this article, the protagonists of beef ban must know that two Muslim representatives in the Constituent Assembly (Z A Lari from the United Provinces, and Syed Muhammad Sa'adulla from Assam) had volunteered to approve it out of respect for the religious belief of the Hindus. The irrationality of the orthodox Hindus, however, had gone so far as to push it as one of the fundamental rights. It goes to the credit of Ambedkar that he spared India global ridicule by not incorporating an animal right within the fundamental rights of (hu)mans, leaving space for a later rethink. The orthodox Hindu members marshalled the "spiritual economics" of the Bhagavad Gita to camouflage their argument. They did not know the ban on cow killing was extant in most parts of the ancient world where oxen were thedraught force in agriculture. But with the changes in technology and food pattern (meat being more compact food) the "spiritual economics" of cow protection was overtaken by the real economics of cow slaughter. As a matter of fact, the priestly Brahmins were the biggest cow slaughterers, who provoked Buddha's revolt for protecting animals. The argument of the Hindutva forces is anachronistic, dishonest and anti-development, pushing the country to the period of the Gita.

Cow versus Man

The cow politics of the right-wingers, let it be plainly said, amounts to slaughtering people; not just some five Dalits in Jhajjar or a Muslim in Dadri or a Kashmiri trucker in Udhampur but millions of farmers with cattle who are already distressed because of the negative terms of trade in agriculture, and the Social Darwinist policies of neo-liberalism. They will now have to deal with the additional load of the negative economic returns of rearing cows. This economics critically depends on cow being sold to slaughterhouses after her productive period. A typical cow is sold off abroad after 3–4 lactations, as beyond that her productivity as well as quality of milk deteriorates. In India, it could stretch up to 8–10 lactations beyond which she could live up to a minimum of 3–4 years. If it is not sold off then, the entire economics of cattle ownership by the farmer turns topsy-turvy. And this is not all. Apart from farmers there are millions, mostly Dalits, eking out their lives in the slaughter industry, hide industry, etc, who would be rendered jobless. Also, the resultant price rise of other meats would aggravate the food crisis for them. Already, there is a severe protein deficiency among Indians, which mar their physical and mental abilities. According to a consumer survey conducted by the Indian Market Research Bureau (IMRB), 91% of vegetarians and 85% of non-vegetarians had protein deficiency, which is defined as less than 1 gram protein per kg of the body weight per day. Beef being an important source of protein for poor people, its ban means, almost literally, killing them. The Hindutva argument to this is spurious and based only on emotionally exploitative mumbo jumbo.

The economic aspect of cow protection has been researched by academics in the last decade. The latest report published by Esther Gehrke and Michael Grimm seems to concur with the findings of our own, M V Dandekar and K N Raj, both Hindus and perhaps Brahmins, who published their research in 1969. Both were firmly of the view that the practice of cow worship actually stood in the way of a more rational utilisation of India's bovine resources. Raj went on to suggest that the only role religion played was in determining the method of getting rid of unwanted cattle. He observed that rather than sending cows to slaughterhouses, north Indian farmers preferred a method of slow death through deliberate starvation or even abandonment, landing them into slaughterhouses in Bangladesh. Obviously, there is no consideration of these facts in the Hindutva frenzy around the holy cow.

The deceit and dishonesty of the Hindutva camp lies in its hydra-headedness that speaks in multiple voices. While Modi–Shah were compelled to speak disapprovingly about the Dadri lynching because of the Bihar elections, the Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS), the fountainhead of foolishness of the Hindu right, justified it in its mouthpiece—Panchjanya. An article carried as a cover story said, "Vedas order killing of the sinner who kills a cow." It slammed writers who returned their Sahitya Akademi awards in protest over the Dadri murder and called them insensitive to Hindu sentiments. Expectedly, the RSS later tried to distance itself from the article saying it was not an editorial. While it said so, its foot soldiers continued to display bravado, threatening people variously for daring to disagree with their irrationality. The Sakshi Maharajs, Sadhvi Prachis, and several others spread poison among people and when cornered, the Bharatiya Janata Party (BJP) would continue to say "they are not us."

Another stock-in-trade the BJP uses is to pick up some similar incident that occurred when the Congress was ruling, forgetting the fact that people have not voted for it to repeat or to overdo the misdoings of the Congress. As regards the writers' protest, while it is certainly triggered by the Dadri lynching it is not confined to that. It is a protest against the systematic destruction of institutions and unscrupulous poisoning of polity they have been carrying out to realise their dream of a Hindu Rashtra. It is an extremely important step by our writers but perhaps too late. The entire world has noted this revolt but it has failed to shame the shameless Hindutva establishment. They are basically beyond any reasoning or rationality. The followers of Mussolini only know the language of killing dissenters. The only response that can send this bunch of cowards cowering into their hides is the raw force of people, the victims of brahmanism, sans any intricate rationale. People must understand that the Hindu Rashtra at its core is the revivalist project of a bunch of Brahmanic bigots, foolishly dreaming of establishing their supremacy. It can be defeated just in minutes even if a few of these victims raise their hands in unison!


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