नया कानून बनाकर सिंगुर के अनिच्छुक किसानों को जमीन वापस करने का क्या हुआ?
एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
चिटफंड बवंडर से बाहर निकलने के लिए बंगाल सरकार २००३ से लंबित बिल को नये सिरे से विधानसभा के विशेष अधिवेशन में पेशकरके तुरत फुरत कानून बनाना चाहती है। जैसे नया कानून बनते ही कोई जादू की छड़ी हाथ लग जायेगी और आर्थिक अराजकता के साथ बेरोजगारी का आलम बी खत्म हो जायेगा। आम लोगों की क्या कहें, अब तो शायद राजनेताओं को भी याद नहीं कि सत्ता में आते ही दीदी ने सिंगुर के अनिच्छुक किसानों को उनके खेत वापस दिलाने के लिए इसीतरह बहुत जल्दबाजी में कानून बनाया था। उसका हश्र क्या हुआ? नये कानून से क्या सिंगुर की जमीन वापस दिलाने का एजंडा पूरा हो गया? सिंगुर में जिन किसानों ने मुआवजा लेने से इनकार कर दिया था वे अब भी अपनी जमीन वापस चाहते हैं। उन्हें किसी दूसरे तरह का कोई मुआवजा भी नहीं चाहिए। यह भी ताज्जुब की बात है कि बनर्जी में उनकी आंख में आंख डालने की हिम्मत है।गौरतलब है कि किसानों को उनकी जमीन वापस मिल सके, इसके लिए सिंगुर भूमि सुधार अधिनियम तैयार किया। लेकिन न जाने किस उत्साह में इस अधिनियम पर राष्ट्रपति की सहमति हासिल करना किसी को भी याद नहीं रहा। कोलकाता उच्च न्यायालय ने सिंगुर भूमि पुनर्वास विकास अधिनियम, 2011 को संवैधानिक व वैध करार दिया।फिर पश्चिम बंगाल सरकार ने सिंगुर भूमि पुनर्वास एवं विकास कानून निरस्त करने के कलकत्ता उच्च न्यायालय के फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी।किसानों को जमीन वापसी का मामला कानूनी पेचदगियों में उलझ गया। तब भी राज्य सरकार को विशेषज्ञों ने चेतावनी दी थी और इस वक्त भी चेतावनी दे रहे हैं कि नये कानून को अदालत में चुनौती दी जा सकती है। खासकर पुराने मामलों को इस कानून के दायरे में लाने के प्रावधान को लेकर।ममता बनर्जी की सरकार चिटफंड कंपनियों पर नियंत्रण रखने के लिए नया विधेयक लाने की तैयारी कर रही है लेकिन इसे पिछली तारीख से प्रभावी करने के उसके निर्णय ने बहस छेड़ दी है कि क्या यह विधेयक न्यायिक मापदंडों पर खरा उतरेगा या नहीं। राज्य में संसदीय मामलों के मंत्री पार्थ चटर्जी ने कहा कि वित्तीय प्रतिष्ठानों में जमाकर्ताओं के हित संरक्षण के लिए नया विधेयक पिछली तारीख से प्रभावी होगा।इसके अलावा, इसमें प्रॉपर्टी जब्त करने के प्रावधान को भी शामिल किया गया है।यह नया विधेयक पश्चिम बंगाल जमाकर्ताओं के हित संरक्षण विधेयक 2009 का स्थान लेगा जिसे राष्ट्रपति के पास भेजा गया था लेकिन उसे उनकी मंजूरी नहीं मिली। विधेयक को राज्य सरकार को वापस भेज दिया गया है।
चिट फंड चलाने वाली कंपनियां पंजीकृत भी नहींहोती, इससे भी कानूनी कार्रवाई में अड़चन आती है।नया कानून बन जाने से इस पहेली को सुलझाने में मदद मिल जायेगी , ऐसा भी तय नहीं है।
अब तो शालबनी से भी जिंदल की विदाई बंगाल से नैनो की गुजरात रवानगी की तरह तय हो गयी। सिंगुर नंदीग्राम भूमि प्रतिरोध आंदोलन और लालगढ़ विद्रोह ही बंगाल में परिवर्तन का सबब बना। शालबनी में ही तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के काफिले पर गिरफ्तारियों के खिलाफ पुलिसिया जुल्मविरोधी जनगण की समिति बनी।नैनो की रवानगी से लेकर जिंदल की विदाई तक एक पूरा चक्र घूम गया, लेकिन इस राज्य मे राजकाज की कोई दिशा तय नहीं हो पायी। सिंगुर अनुभव के बाद नया कानून बनाने का जोखिम उठाने के इस उपक्रम से क्या नतीजा निकलता है, अब यह देखने को इंतजार कीजिये।सिंगुर के विधायक रवींद्रनाथ भंट्टाचार्य एक बार दुबारा दुबारा राज्य मंत्रिमंडल में शामिल हो गये तो इससे सिंगुर का मसला हल हो गया, ऐसा समझ लेना भारी भूल है।
पश्चिम बंगाल में चिट फंड उद्योग की हालत पर वर्ष 2010 से चल रहे पत्राचार से यही पता चलता है कि हर किसी को पता था कि वहां गड़बड़ चल रही है। छोटी बचत के मामले में बंगाल काफी ऊपरी पायदान पर है। इस बाबत तृणमूल कांग्रेस के नेता सोमेन मित्रा ने वर्ष 2011 में प्रधानमंत्री को पत्र लिखा। देश में नई जीवन बीमा पॉलिसियां और म्युचुअल फंड के सबसे ज्यादा ग्राहक बंगाल में ही हैं।फिर ऐसा क्या हुआ कि परिवर्तन राज में चिटपंड कंपनियों का ऐसा बोलबाला हो गया दो साल के कार्यकाल में कि नया कानून बनाने की नौबत आ गयी, नया कानून बनाने के पचड़े मे पड़ने और आगे फिर अदालती कानूनी विवादों में फंसने से पहले इस पर थोड़ा निरपेक्ष और थोड़ा ठंडे दिनमाग से सोचने की क्या जरुरत नहीं थी?इसी महीने की बात है जब पश्चिम बंगाल सरकार में पूर्व वित्त मंत्री असीम दासगुप्ता ने संवाददाता सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें उन्होंने चिट फंड बुलबुले को लेकर चेतावनी दी। उनका कहना था कि यह बुलबुला वर्ष 2000 से ही फूल रहा है जो अब फटने के कगार पर है। उन्होंने तमाम रिपोर्टों का हवाला देते हुए कहा कि ऐसी शिकायतें बढ़ती जा रही हैं कि चिट फंड कंपनियां भुगतान नहीं कर पा रहीं।आखिर वे लंबे अरसे से बंगाल के वित्तमंत्री रहे हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया तो यही बताती है कि सत्ता पक्ष को, खासकर नीति निर्धारकों को पूर्व वित्तमंत्री से उन्हें प्रतिपक्ष समझकर खारिज करने के बजाये संवाद कायम करके उनके अनुभवों का फायदा लेना चाहिये था । जबकि इसी बीच सेबी ने भी चेतावनी दे दी थी।
नए विधेयक के पिछली तारीख से प्रभावी होने को लेकर पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने कहा कि उन्होंने यह विधेयक नहीं देखा है लेकिन पिछली तारीख से प्रभावी विधेयक के अनुसार अपराध तय नहीं किया जा सकता। पूर्व विधानसभा अध्यक्ष हाशिम अब्दुल हलीम ने भी चटर्जी के सुर में सुर मिलाते हुए कहा , ''नए विधेयक को पिछली तारीख से लागू करके दो वर्ष पहले किए अपराध के लिए सजा नहीं दी जा सकती।'' कोलकाता उच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील विकास रंजन भट्टाचार्य ने कहा कि इस प्रकार के विधेयक को अदालत में चुनौती दी जा सकती है। सरकार सभी कानूनों को पिछली तारीख से लागू नहीं कर सकतीं।
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