हमारे युग का यह ''जनवादी'' लेखक हद दर्जे का बेशर्म ढोंगी है। किसी विश्वविद्यालय के कुलपति की चाटुकार सभा, यू.जी.सी. की किसी कमेटी की बैठक या किसी अख़बार के मालिक की दारू-पार्टी से सीधे उठकर वह क्रान्ति और साहित्य के अन्तर्सम्बन्धों पर एक ''सारगर्भित'' व्याख्यान दे आता है। वह निराला पर आलोचना लिखते हुए उनके अदम्य विद्रोही जीवन और चिन्तन को उनके साहित्य की ऊर्जस्विता का स्रोत बताता है। वह मुक्तिबोध के नायक के आत्मसंघर्ष और जनसंग-ऊष्मा से जुड़ने की उसकी तड़प के सभी पक्षों पर ख़ूब बोलता और लिखता है। पर जिन्दगी में ऐसा कोई भी समझौता नहीं, जिसे करने के लिए वह तैयार न रहता हो। वह स्त्री की मुक्ति पर कविताएँ लिखता है, पर जिन्दगी में उसके प्रति एकदम लम्पट, कामुक, यौन उत्पीड़क, पुरुष स्वामित्ववादी दृष्टिकोण रखता है। वह अपनी पत्नी को चूल्हे-चौखठ से बाँधकर रखता है और डरता रहता है कि उसकी जवान होती लड़की कहीं किसी 'ऐसे-वैसे' से प्रेम न कर बैठे। वह उसके लिए सजातीय वर ढूँढ़ता है, दहेज देता है और उसकी शादी में पीली धोती पहनकर नवेद वसूलता है। वह अपने लड़के को जी-तोड़ कोशिश करके अफसर, इंजीनियर या लेक्चरर बनाता है और प्रायः उसकी शादी में शायलाक की तरह वसूली करता है। वह जातीय उत्पीड़न पर अनगिनत कहानियाँ लिखता है, पर हर कीमत पर अपनी या अपनी सन्तानों की शादियाँ जाति के भीतर ही तय करता है। वह पाखण्डी है। बेहया है। उससे घृणा करना एक आवश्यक मानवीय कर्म और सामाजिक दायित्व है।
http://ahwanmag.com/archives/1709
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