सैन्य राष्ट्रशक्ति का कॉरपोरेट हित में निर्मम उपयोग
पलाश विश्वास
वेदांता मामले में उच्चतम न्यायालय के फैसले से भारतीय आदिवासी समाज के संविधान बचाओ आन्दोलन का औचित्य साबित हुआ है। न सिर्फ बहुजन समाज को, बल्कि प्रकृति, मनुष्य और पर्यावरण के हित में प्राकृतिक संसाधनों पर आदिवासियों के हक हकूक के पक्ष में और जल जंगल नागरिकता से बेदखली के खिलाफ सारे देशभक्त, लोकतान्त्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एकजुट हो जाना चाहिये जो हिन्दू साम्राज्यवाद और कॉरपोरेट जायनवादी एकाधिकारवादी जनसंहार संस्कृति के विरुद्ध है। गौरतलब है कि 13 अक्टूबर 2012 से वेदान्त की लाँजीगढ़-स्थित रिफाइनरी बन्द पड़ी है, यह आन्दोलन के दबाव में ही हो पाया है। नियमगिरी का जुझारू जन-आन्दोलन अब निर्णायक स्थिति में पहुँच गया है। इसे अब उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद बाकी देश का समर्थन चाहिये। कालाहाण्डी जिले का लाँजीगढ़ ब्लाक भारतीय संविधान के तहत विशेष संरक्षण प्राप्त अनुसूचित क्षेत्रों में आता है। इसी स्थान पर वेदांता कम्पनी ने अपना अलमुनाई प्लांट लगा रखा है और इसी क्षेत्र में स्थित नियामगिरि पहाड़ के बेशकीमती बाक्साइट पर उसकी ललचाई निगाहें लगी हुयी हैं। स्थानीय ग्रामवासी, आदिवासी अपनी जमीन, जंगल, नदी, झरने पहाड़ बचाने की लड़ाई लगातार लड़ते आ रहे हैं। संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक अनुसूचित इलाके में सिर्फ आदिवासी ही नहीं गैर आदिवासियों की जमीन का हस्तांतरण भी अवैध है। जाहिर है कि इसी बाधा को काटने के लिये विशेष आर्थिक क्षेत्र अधिनियम लाया गया और प्रावधान किया गया कि सेज इलाके स्वायत्त होंगे और वहाँ भारतीय कानून लागू नहीं होगा। इसी तरह वनाधिकार कानून, समुद्र तट सुरक्षा कानून, पर्यावरण कानून और स्थानीय निकायों के हक हकूक की धज्जियाँ उड़ाकर औद्योगीकरण की विकासगाथा रचित की गयी है। औपचारिक जन सुनवाई भी नहीं होती। चूँकि ज्यादातर आदिवासी गांव राजस्व गाँव बतौर पंजीकृत नहीं हैं इसलिये माओवादी हिंसा से निपटने के बहाने सलवा जुड़ुम जैसे आयोजनों और तरह-तरह के सैन्य अभियानों के जरिये आदिवासियों की बेदखली निर्बाध जारी है।
उच्चतम न्यायालय के ताजे फैसले से प्राकृतिक संसाधनों पर आम जनता के संवैधानिक हक-हकूक के दावे को न्यायिक मान्यता मिल गयी है। उच्चतम न्यायालय ने ओडिशा के रायगढ़ और कालाहांडी जिलों में ग्राम सभाओं से मंजूरी मिलने तक नियामगिरि पहाड़ियों में वेदांता समूह की बाक्साइट खनन परियोजना पर रोक लगा दी है। न्यायमूर्ति आफताब आलम, न्यायमूर्ति केएस राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की खंडपीठ ने इन दो जिलों की ग्राम सभाओं को भी इलाके में रहने वाले आदिवासियों सहित इस खनन परियोजना से जुड़े तमाम मसलों पर तीन महीने के भीतर फैसला करने का निर्देश दिया। अदालत ने पर्यावरण व वन मन्त्रालय को निर्देश दिया कि ग्राम सभाओं से रिपोर्ट मिलने के बाद ही दो महीने के भीतर इस मामले में कार्रवाई की जाये। लांजीगढ़ में ही नियमगिरी पहाडिय़ों पर बाक्साइट का पर्याप्त भण्डार है। पर्यावरण कारणों से इस भण्डार को वेदांता को नहीं दिया गया था। कालाहांडी जिला जागरुक मंच ने उच्चतम न्यायालय का फैसला आने से पहले ऐलान कर दिया था कि वेदांता को नियमगिरी पहाड़ नहीं लेने देंगे। इस पहाड़ को वहाँ रहने वाले आदिवासी भगवान की तरह पूजते हैं। यदि यह वेदांता को दिया गया तो इसक तीव्र विरोध होगा। खास बात यह है कि भारत में हिन्दू साम्राज्यवाद व कॉरपोरेट राज के विरुद्ध सरना धर्म कोड लागू करने की माँग पर एकजुट समूचा आदिवासी समाज जल जंगल जमीन और नागरिकता पर अपने संवैधानिक हक हकूक की बहाली के लिये संविधान बचाओ आन्दोलन चला रहे हैं। जाहिर है कि वेदांता के खिलाफ प्रतिरोध आन्दोलन में अब लांजीगढ़ वाले लोग अकेले नहीं है। इस लोकतान्त्रिक लड़ाई को अगर बहुजन समाज और देश की तमाम धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक और देशभक्त ताकतों का समर्तन हासिल हो जाये, तो सुधारों के जनविरोधी अश्वमेध अभियान के बेलगाम घोड़ों को दो दशक के बाद पहली बार थामने का अवसर पैदा होगा। हमें कतई यह अवसर चूकना नहीं चाहिये।
अब कॉरपोरेट हित के मुताबिक राजकाज चला रहे राष्ट्रद्रोही असंवैधानिक लोगआर्थिक सुधार, विकास गाथा, वित्तीय घाटा और निवेशकों की आस्था के बहाने लम्बित परियोजनाओं को चालू करने की जो जुगत में है, उसके प्रतिरोध में भारतीय जन गण को एकताबद्ध हो ही जाना चाहिये। दरअसल, जब तक आवेदक कम्पनी को ही अपनी परियोजना के पर्यावरणीय असर के बारे में रिपोर्ट देने को कहा जाता रहेगा, गलत आकलन का सिलसिला बन्द नहीं हो सकता। हाल में उच्चतम न्यायालय ने पर्यावरण मन्त्रालय को इसी बात के लिये फटकार लगायी थी कि उसने एक आवेदक कम्पनी को ही पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन करने की छूट क्यों दे दी। गुजरात के भावनगर में निरमा कम्पनी के प्रस्तावित बिजली और सीमेंट संयंत्रों का वहाँ की पारिस्थितिकी पर क्या असर होगा, इसकी रिपोर्ट खुद कम्पनी ने मन्त्रालय की रजामन्दी से तैयार की थी, जबकि यह काम मन्त्रालय को या स्वतन्त्र विशेषज्ञों की किसी समिति को करना चाहिये था। यह मामला ठीक वैसे है कि जैसे कोलगेट भ्रष्टाचार मामले में खुद प्रधानमन्त्री फँसे हैं लेकिन सीबीआई ने रपट पीएमओ और कोल इंडिया के अफसरों को दिखाकर बनायी।
भारत में बायोमेट्रिक आधारकार्ड योजना कॉरपोरेट सिपाहसालार नंदन निलेकणि के मातहत गैरकानूनी ढंग से चालू है। कॉरपोरेट का एजेण्डा है आदिवासियों और शरणार्थियों की बेदखली के जरिये प्राकृतिक संसाधनो की अबाध लूट खसोट तो ऐसे में नागरिकता बताने और आधार पहचान बनाने का जिम्मा कॉरपोरेट हाथों में हो तो इन मूल निवासियों को बेदखली से कैसे बचाया जा सकता है। जिन साठ करोड़ लोगों को आधार कार्ड न दे पाने की बात निलकणि कर रहे हैं, उनमें से निनाब्वे फीसद आदिवासी, शरणार्थी और शहरी गंदी बस्तियों में रहने वाले लोग हैं, जिनकी बेदखली बिल्डर प्रोमोटर माफिया कॉरपोरेट राज की सर्वोच्च प्राथमिकता है।
याद करें कि कैसे पर्यावरण प्रदूषण के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा 100 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाये जाने के बावजूद तूतीकोरन प्लांट बन्द करने के मद्रास उच्चन्यायालय के निर्णय को रद्द किये जाने की खबर से वेदांता समूह की कम्पनी स्टरलाइट के शेयर में भी 3.79 फीसदी की बढ़त रही। टेलीकॉम सेक्टर में कारोबार के लिये अंबानी बंधुओं के साथ आने की खबर ने घरेलू शेयर बाजार में जोश भर दिया। खनन और दूसरी परियोजनाओं को सरकार की ओर से हरी झंडी देने से पहले इस बात का आकलन किया जाता है कि पर्यावरण पर उनका क्या असर होगा लेकिन बहुत सारे मामलों में दी गयी पर्यावरण सम्बंधी मंजूरी एक औपचारिकता भर होती है। इसीलिये ऐसे फैसलों को लेकर अक्सर सवाल उठते रहे हैं। यों विवाद का विषय बन जाने पर मंजूरी वापस लेने का कदम भी पर्यावरण मन्त्रालय ने उठाया है, मगर ऐसे मामले अपवाद की तरह हैं। गौरतलब है कि गोवा में वेदांता समूह की सहायक कम्पनी सेसा गोवा को लौह अयस्क के खनन के लिये दी पर्यावरण मंजूरी पर्यावरण मन्त्रालय ने इस आधार पर रद्द कर दी है, कि कम्पनी ने मन्त्रालय को अपनी परियोजना के बारे में सौंपी गयी रिपोर्ट में कई महत्वपूर्ण तथ्य छिपाये थे। मन्त्रालय का निर्णय उचित है। पर सवाल है कि उसे इस नतीजे पर पहुँचने में इतना लम्बा वक्त क्यों लगा? गौरतलब है कि कम्पनी को अगस्त 2009 में उत्तरी गोवा के पिरना इलाके में सालाना बीस लाख टन लौह अयस्क निकालने के लिये पर्यावरण मंजूरी मिली थी। यह शुरू से जाहिर था कि कम्पनी ने स्थानीय लोगों की सहमति हासिल नहीं की। इस खनन परियोजना के खिलाफ पिरना के लोगों और पर्यावरण-कार्यकर्ताओं का आन्दोलन बराबर चलता रहा। वेदांता ने अपनी परियोजना की बाबत पर्यावरणीय आकलन रिपोर्ट में कहा था कि पिरना के दस किलोमीटर के इलाके में न तो कोई अभ्यारण्य है न नेशनल पार्क और न ही कोई ऐतिहासिक धरोहर। उसकी इस रिपोर्ट को बिना कोई आपत्ति किये मन्त्रालय ने स्वीकार कर लिया था। तब पर्यावरण मन्त्री ए राजा थे, जो 2-जी घोटाले के आरोपी हैं। आरोप है कि उन्होंने और भी बहुत-से मामलों में पर्यावरण मन्त्री रहते हुये इसी तरह की उदारता दिखायी थी। नियमगिरी माइनिंग प्रॉजेक्ट पर उच्चतम न्यायालय के फैसले से सरकार के लिये नई मुश्किल खड़ी हो गयी हैं। कोर्ट ने कहा है कि इस प्रॉजेक्ट की किस्मत का फैसला ग्राम सभा करेगी। ऐसे में सरकार के लिये आदिवासियों और स्थानीय लोगों की सहमति के बगैर इण्डस्ट्री को जंगल की जमीन देना बेहद मुश्किल हो जायेगा। इस बारे में उच्चतम न्यायालय के फैसले ने ग्रामसभा को वैधानिक या रेग्युलेटरी बॉडी के बराबर लाकर खड़ा कर दिया है। अदालत ने फॉरेस्ट राइट्स एक्ट को पारिभाषित कर जनजातीय समुदाय के लोगों के लिये अधिकारों का व्यापक दायरा पेश किया है। इससे सरकार को ग्राम सभा की मंजूरी के बिना जंगल की जमीन को इण्डस्ट्री के इस्तेमाल के लिये देने में दिक्कत खड़ी हो सकती है। औद्योगिक परियोजनाओं को तेज करने के मकसद से पीएमओ की अध्यक्षता वाले पैनल ने बीते साल दिसम्बर में चुनिन्दा मामलों में ही ग्राम सभाओं की मंजूरी लेने सम्बंधी सिफारिश की थी। वनाधिकार कानून के तहत प्रॉजेक्ट के लिये ग्राम सभा की मंजूरी जरूरी है।
ओड़ीशा के मुख्यमन्त्री नवीन पटनायक वेदांता समूह के सबसे बड़े पैरोकार हैं और उन्हें इस सिलसिले में केन्द्र सरकार और सत्ता की कॉरपोरेट राजनीति का पूरा समर्थन हासिल है। इसलिये उच्चतम न्यायालय के आदेश पर अमल हो पायेगा, इसी को लेकर शक है। इसी बीच वेदांता रिफाइनरी के पक्ष में हस्ताक्षर अभियान भी चालू है।
उच्चतम न्यायालय के फैसले से साफ जाहिर है कि पाँचवी छठीं अनुसूचियों, मौलिक अधिकारों, नागरिक व मानवाधिकारों, संविधान की धारा 39 बी 39 सी के खुल्लम खुल्ला उल्लंघन के तहत विकास के नाम पर आदिवासियों को उखाड़ा जा रहा है।
उच्चतम न्यायालय के इस फैसले पर कॉरपोरेट मीडिया में मातम मनाया जा रहा है कि विकास का रथ थम जायेगा। इस दुष्प्रचार के विरुद्ध वैकल्पिक मीडिया के साथ साथ तमाम नेट उपभोक्ता आन्दोलित न हों तो वे येन केन प्रकारेण संविधान और संसद की तरह उच्चतम न्यायालय के आदेश और फैसले के उल्लंघन का भी कोई न कोई रास्ता निकाल लेंगे क्योंकि देश में संविधान अभी तक लागू हुआ नही है और न इसके लिये राष्ट्रव्यापी जनान्दोलन हुआ है, न देश में कानून का राज है और न संसद और विधानसभाओं में जो लोग बैठे हैं, वे जनता के सच्चे प्रतिनिधि है।
वे सर्वदलीय सहमति से उच्चतम न्यायालय के फैसले का उल्लंघन करने के लिये सैन्य राष्ट्रशक्ति का निर्मम उपयोग कर सकते हैं, जो वे लगातार कर रहे हैं। आदिवासी चूँकि अलगाव में हैं और मूलनिवासी भूगोल भी नस्ली भेदभाव का शिकार है, इसलिये यह बाकी देश के लिये भारी मौका है कि उन्हें मुख्यधारा में शामिल करें।
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