सुधीर सुमन
मशहूर पार्श्वगायिका शमशाद बेगम 23 अप्रैल को हमारे बीच नहीं रहीं. चालीस और पचास के दशक के फिल्मों की लोकप्रिय गायिका शमशाद बेगम की आवाज में गाए गए कई गीत बाद के दौर में भी लोकप्रिय रहे. वे जीवित थीं इसका कोई खास ख्याल बाजार और फिल्म उद्योग को नहीं रहा, पर उनकी खनकदार आवाज में गाए गए कई मशहूर गानों को नब्बे के बाद गीत-संगीत के रिमिक्स के बाजार द्वारा खूब इस्तेमाल किया गया.
चुलबुले, तीक्ष्ण और वजनदार आवाज वाले उन गानों के साथ जिस तरह के उत्तेजक दृश्यों को मिक्स किया गया, उससे उन गानों में मौजूद पवित्रता, नैसर्गिकता और अबोध अल्हड़पन का एक तरह से विनाश तो हुआ, लेकिन यह भी साबित हुआ कि चालीस-पचास के दशक में उन्होंने लयकारी और शोखी का जो अंदाज रचा था, उसके सामने नए जमाने का संगीत कितना फीका लगता है. फिर भी बाजार उन गानों को गाने वाली शख्सियत को अपने साथ मिक्स नहीं कर सका. उस व्यक्तित्व के साथ कोई रिमिक्सिंग संभव नहीं था. वे शोहरत की पागल दौड़ और खुद को सुर्खियों में रखने की होड़ से मुक्त थीं. कई दशक पहले उन्होंने फिल्म और संगीत उद्योग से खुद को अलग कर लिया था.
शमशाद बेगम का जन्म पंजाब के अमृतसर में 14 अप्रैल 1919 को हुआ था. एक परंपरागत मुस्लिम परिवार में जन्मी मियां हुसैन बख्श और गुलाम फातिमा की आठ संतानों मे से एक शमशाद को बचपन से ही गाने का शौक था. ग्रामोफोन पर बजने वाले गानों की वे नकल करती थीं. मोहर्रम के मर्सिये भी याद करके सुनाती थीं. बचपन से ही वे मशहूर गायक के.एल.सहगल की प्रशंसक थीं और बताती थीं कि उनकी फिल्म देवदास उन्होंने 14 बार देखी. उनके गाने के शौक को उनके चाचा ने काफी प्रोत्साहित किया. 13 साल की उम्र में जीनोफोन कंपनी ने उनकी आवाज में एक पंजाबी गाना रिकार्ड किया, जो बेहद मकबूल हुआ.
उसी कंपनी से मशहूर संगीतकार गुलाम हैदर भी जुड़े हुए थे, जो शब्दों के शुद्ध उच्चारण की उनकी क्षमता के प्रशंसक हो गए. 1937 में उन्हें लाहौर रेडियो स्टेशन में गाने का मौका मिला, फिर उन्होंने पेशावर रेडियो और दिल्ली रेडियो स्टेशन के लिए भी गाने गाए. कहते हैं कि रेडियो पर उनकी आवाज को सुनकर ही कई संगीत निर्देशकों ने उन्हें अपनी फिल्मों के लिए गवाने की पेशकश की. 1939 में बैरिस्टर गणपतलाल बट्टो के साथ उनका विवाह हुआ और उसके बाद 1940 में फिल्मों के लिए गाने का सिलसिला शुरू हुआ. 1940 में उन्होंने पंजाबी फिल्म 'यमला जट' के लिए पहली बार गाया. इसके बाद पंजाबी फिल्म 'चैधरी' में उन्हें गाने का मौका मिला. दोनों फिल्मों के गाने बेहद मकबूल हुए.
उनकी आवाज के प्रशंसक संगीतकार गुलाम हैदर ने 'खजांची'(1941) और 'खानदान' (1942) में उनसे गवाया. फिर उन्हीं के साथ 1944 में वे मुंबई चली आईं और अगले दो दशक से अधिक समय तक वे हिंदी सिनेमा की ऐसी गायिका बनी रहीं, जिनकी खनकदार आवाज का जादू सब पर तारी रहा. गुलाम हैदर, सी. रामचंद्र, खेमचंद्र प्रकाश, राम गांगुली, एस.डी. वर्मन, नौशाद और ओ. पी. नय्यर सरीखे अपने दौर के सारे प्रतिभावान संगीतकारों के लिए उन्होंने गाने गाए. नौशाद और ओ.पी.नय्यर ने उनकी आवाज की खासियत को सर्वाधिक समझा, इसलिए कि शमशाद बेगम की आवाज में जो एक देशज खनक थी, लोकगायिकी और लोकस्वर का जो अंदाज था, मिट्टी का खुरदुरापन और उसकी जो महक थी, वह लोकधुनों के पारखी इन संगीतकारों के संगीत में और भी निखर गई.
हालांकि यह शमशाद बेगम की ही आवाज थी, जिसे सी. रामचंद्र ने आना मेरी जान संडे के संडे जैसे पाश्चात्य शैली वाले गानों में जबर्दस्त तरीके से उपयोग किया. यह कम ही लोगों को पता है कि शास्त्रीय संगीत की उन्होंने बाकायदा शिक्षा ली थी. वे सारंगी के उस्ताद हुसैन बख्शवाले साहेब की शागिर्द थीं. बचपन के दिन भुला न देना ( दीदार ), दूर कोई गाए ( बैजू बावरा ), छोड़ बाबुल का घर, होली आई रे कन्हाई, ओ गाडी वाले गाडी धीरे हांक रे ( मदर इंडिया), मेरे पिया गए रंगून ( पतंगा ), मिलते ही आंखें दिल हुआ दीवाना किसी का ( बाबुल ), सैया दिल में आना रे ( बहार ), धरती को आकाश पुकारे, मोहन की मुरलिया बाजे ( मेला ), तेरी महफिल में किस्मत आजमा कर ( मुगल-ए-आजम ), लेके पहला पहला प्यार, कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना ( सी .आई .डी ), कभी आर कभी पार ( आर पार ), कजरा मुहब्बत वाला( किस्मत ) जैसे सदाबहार गाने शमशाद बेगम की याद को हमेशा जिंदा रखेंगे. शमशाद बेगम ने कभी अपना म्यूजिकल ग्रुप 'द क्राउन थिएट्रिकल कंपनी ऑफ परफॉर्मिंग आर्ट' भी बनाया था जिसके जरिए उन्होंने पूरे देश में प्रस्तुतियां दी थीं.
भारत सरकार को बहुत देर से उनकी याद आई. जब पद्मभूषण जैसे पुरस्कारों की साख खत्म हो चुकी थी और इसके लिए जोड़तोड़ और सत्ता से नजदीकी एक खुला पैमाना बन चुका था, तब 2009 में उन्हें 'पद्मभूषण' दिया गया. शमशाद बेगम जिन्होंने हिंदी-उर्दू के अलावा पंजाबी, बंगाली और अन्य भारतीय भाषाओं में 500 से ज्यादा गाने गाए, जो हमेशा अपना फोटो खिंचवाने से बचती रहीं, उनकी आवाज ही उनकी पहचान है, वही विश्वसनीय है और विश्वसनीय है श्रोताओं की पसंद, सरकारी सम्मान और रिमिक्सिंग का उपभोक्ता समाज उसके सामने कोई महत्व नहीं रखता. शमशाद बेगम के एक प्रशंसक चंद्रकांत मोहन लाल ने उन पर 'खनकती आवाज शमशाद बेगम' नाम की एक किताब लिखी है.
1955 में अपने खाबिंद गनपतलाल बट्टो के निधन के बाद से शमशाद बेगम अपनी बेटी ऊषा रात्रा के साथ रहती थीं. दामाद लेफ्टिनेन्ट कर्नल वाई. रात्रा जहां रहे वे वहीं रहीं और रिटायरमेंट के बाद जब वे स्थायी तौर पर मुम्बई में रहने आ गए तो शमशाद जी भी फिर से मुंबई आ गईं. 1998 में एक गलतफहमी से उनके निधन की खबर आ गई थी. लेकिन इस बार उन्होंने हमेशा के लिए अपने चाहने वालों को अलविदा कह दिया. जन संस्कृति मंच की ओर से शमशाद बेगम को हार्दिक श्रद्धांजलि !
सुधीर सुमन जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय सहसचिव हैं. टिप्पणी मंच की ओर से जारी.
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