पुण्य प्रसून वाजपेयी ने कहा, ये मजदूर नहीं मवाली हैं!
♦ सुनील कुमार
7अप्रैल 2013 को नोएडा सेक्टर 126, 2 ए, ऑप्टिमस कंपनी के निर्माणाधीन बिल्डिंग से गिरकर फईम (23) नामक कामगार की मौत हो गयी। ऑप्टिमस कंपनी में टाइल, फायर, पलमर, पीओपी का काम चल रहा है, जिसमें करीब 500 मजदूर काम कर रहे हैं। कामगारों को पर्याप्त सुरक्षा सामग्री नहीं दी गयी है। यहां तक की चाल (जिस पर कामगार बैठ कर या खड़ा होकर काम करता है) भी नहीं लगा हुआ था। पाइप पर ही बैठना था। पाइप पकड़कर ही ऊपर चढ़ना और उतरना होता है। फईम ऊपर चढ़ते ही गिर पड़ा और उसकी मौके पर ही मौत हो गयी। फईम की मौत को छुपाने के लिए आनन-फानन में एक निजी अस्पताल में ले जाया गया और उसके घायल होने की कहानी गढ़ी गयी। दुर्घटना के बाद कॉर्ड कामगारों को घर जाने के लिए बोल दिया गया। इससे गुस्साये कामगारों ने तोड़-फोड़ की।
ऑप्टिमस कंपनी में फायर का काम करने वाला भोला ने बताया कि हेलमेट और जूते कुछ लोगों को ही दिये गये हैं। सभी के पास ये सेफ्टी नहीं है। ऑप्टिमस कंपनी के बाहर चाय बेचने वाले अमित ने बताया कि इस घटना के बाद उनको डर है कि उनका हजारों रुपया नहीं मिल पाएगा, जिसे उसने उधार में चाय और सिगरेट दिये हैं… क्योंकि ज्यादातर मजदूर दूसरी जगह जा सकते हैं। यानि हर तरह से मेहनतकश को ही घाटा उठाना पड़ता है। जबकि मालिकों को दुर्घटना और हड़तालों के बाद भी फायदे ही होते हैं। जो मजदूर कुछ दिन काम कर चुके होते हैं, दुर्घटना हो जाने के बाद डर से वे दूसरी जगह काम करने चले जाते हैं और उनका काम किया हुआ पैसा मर जाता है। इसी तरह हड़ताल होने पर भी मालिक उनके मजदूरी में से काट लेता है और हड़ताल का हवाला देकर सरकार को टैक्स की भरपाई से भी छूट पा जाता है।
इमारत एवं अन्य निर्माण कामगार अधिनियम 1996 की धारा 39 के अनुसार 48 घंटे के अंदर चोट व मृत्यु का नोटिस चिपकाना होता है लेकिन कई दिन हो जाने के बाद भी यहां कोई नेटिस नहीं चस्पां है। इसी अधिनयम की धारा 30 के अनुसार कामगारों की सूची, उनके कार्य, काम के घंटे, आराम, वेतन और रसीदों का रिकॉर्ड सार्वजनिक होना चाहिए। यहां पर किसी तरह का कोई रजिस्टर नहीं है और न ही कामगारों का पहचान पत्र। कामगारों को केवल एटेंडेंस कार्ड दिया गया है, जो पूरे दिन गॉर्ड के पास होता है और शाम के समय कामगारों को दिया जाता है। इमारत एवं अन्य निर्माण कामगार अधिनियम 1996 की धारा 38 के अनुसार 500 कामगारों पर सुरक्षा समिति होनी चाहिए, जिसमें कामगारों का प्रतिनिधित्व हो। इसी अधिनियम की धारा 34 तथा 37 के अनुसार कार्यस्थल पर ही सभी कामगारों को रहने की मुफ्त सुविधा तथा 250 कामगारों पर कैंटीन की व्यवस्था होनी चाहिए लेकिन मजदूरों को स्वयं रहने और खाने की व्यवस्था करनी पड़ती है। इस तरह सभी कानूनों की खुलेआम धज्जियां उड़ायी जाती हैं।
यह कहानी केवल ऑप्टिमस कंपनी की ही नहीं है। इसके आस-पास ऐसी बहुत सी निर्माणाधीन कंपनी हैं और सभी की कहानी एक जैसी है। कानून की धज्जियां शासन-प्रशासन से छुप कर नहीं उड़ायी जा रही है बल्कि उसके साथ मिली-भगत के साथ कानून का मखौल उड़ाया जा रहा है। लेकिन इन कामगारों के अधिकारों के हनन पर हर तरह की चुप्पी है। इस चुप्पी का लाभ शासन-प्रशासन, मीडिया (कंपनियों की तरफ से विज्ञापन दिया जाता है) सभी को मिलता है। जब मजदूर अपने इस शोषण के खिलाफ आवाज उठाता है या गुस्सा प्रकट करता है तो यही शासन-प्रशासन, मीडिया उसको दशहतगर्द, गुंडे, कातिल बनाते हैं। जैसा कि मारूति सुजुकी मामले में एक ही झटके में हजारों मजदूरों को कातिल बना दिया गया और 150 के करीब मजदूरों को जेलो में बंद कर दिया गया और करीब 2300 मजदूरों की रोटी छीन ली गयी और इस खेल में शासन-प्रशासन, हरियाणा सरकार, केंद्र सरकार ने उसका पूरा साथ दिया। इसके पहले उत्तर प्रदेश के नोएडा और साहिबाबाद में गार्जियनो और निप्पोन के मजदूरों के साथ ऐसा हो चुका है, जिस पर कोई चर्चा नहीं होती। मीडिया में कोई बहस नहीं होती। 28-29 फरवरी को मजदूरों ने हड़ताल की और अपने दबे हुए गुस्से को मौका मिलते ही इजहार किया, तो भारत के 'प्रतिष्ठित' न्यूज चैनल आज तक में विख्यात मीडियाकर्मी पुण्य प्रसून बाजपेयी गला फाड़-फाड़ कर इन मजदूरों को हुड़दंगी और गुंडे बता रहे थे। ये मजदूरों की चेहरा दिखा कर उनकी आवाजों को सुना कर पुलिस से अपील कर रहे थे कि 'ये सारे के सारे प्रदर्शनकारी नहीं गुंडे हैं, इनको पकड़ना चाहिए।' पुण्य प्रसून बाजपेयी अपने चैनल पर बहादुराना कारनामा दिखाते हुए कह रहे थे कि 'यहां पुलिस नहीं थी हमारे कैमरा मैन और हमारे संवादाता थे … पुलिस इन आवाजों को पहचान कर इनको गिरफ्तार करे। हिंसा फैलाने वालों पर कार्रवाई क्यों नहीं करती ताकि कोई हड़ताल न करे।'
इस तरह से मीडिया शासन-प्रशासन पूंजीपतियों के हितों की रक्षा करने के लिए सदैव तत्पर रहती है। मजदूरों की हर जायज मांग उनको नाजायज दिखती है। मेहनतकशों के क्रियाकलाप उनको गुंडों, हुड़दंगी जैसे दिखाई देते हैं और सभी मिल कर एक वर्ग की रक्षा करने के लिए मेहनकश वर्ग पर हल्ला बोलते हैं।
जहां एक तरफ शासन-प्रशासन उनको आर्थिक-शारीरिक रूप से नुकसान पहुंचाता है, वहीं मीडिया उनकी मानसिकता पर हल्ला बोलते हुए उनके मनोबल और एकता को तोड़ने का प्रयास करता है। इस तरह सभी सरकारी-गैर सरकारी मशीनरी मिलकर एक खास वर्ग (पूंजीपतियों) के फायदे के लिए बहुसंख्यक वर्ग (मेहनतकश जनता) पर हल्ला बोल देते हैं और एक झूठा माहौल बनाते हैं।
लेखक से sunilkumar102@gmail.com पर संपर्क करें
http://mohallalive.com/2013/04/22/media-and-state-angle-about-daily-workers/
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