चिटफंड कंपनियों के शिकार सबसे ज्यादा गरीब लोग हैं,जो सस्ते में ऐसे सपने खरीदना चाहते हैं, जिन्हें वे हरगिज पूरा नहीं कर सकते!
एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
शारदा समूह के गोरखधंधे के खुलासे से जो तथ्य सामने आ रहे हैं, उनके मुताबिक सौ से ज्यादा इन कंपनियों ने समाज के सबसे गरीब तबके को निशाना बनाया हुआ है। बाकायदा एजंटों को इसी तबके से आसानी से पैसे निकालने के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है जिनकी बचत बहुत कम है ौर जिन्हें अपनी आर्थिक हालत के मद्देनजर कोई भी सपना पूरा करने का कोई हक नहीं है।इनमें से ज्यादातर लोगो के पास कोई बैंक खाता भी नहीं है और न बैंकों और दूसरी आर्थिक संस्थाओं की शर्तों मुताबिक वे कहीं निवेस करने की हालत में होते हैं। उनकी रकम ही इतनी छोटी होती है कि निवेश के लायक होती नहीं है। रोजाना न्यूनतम राशि जमा करके चिटफंड कंपनियों की योजनाओं वे आसानी से शामिल हो जाते हैं और उन्हें इसमें कोई लफड़ा भी नजर नहीं आता।निवेश कासिलसिला जारी रहते हुए और नेटवर्क के विस्तार होते रहने की स्थिति में उन्हें शुरुआती तौर पर इसका कुछ लाभ भी मिलता है, जिसकी देखादेखी इस वर्ग के लोग बड़ी संख्या में ऐसी योजनाओं में कम से कम निवेश के जरिये ज्यादा से ज्यादा रिटर्न पाने की लालच में फंस जाते हैं।बड़ी संख्या में एजंट तो अपना धंधा जमाने की गरज से कुछ अपना, अपने परिजनों और रिश्तेदारों की जमा पूंजी इस दुश्चक्र में फंसा देते हैं। बेराजगारी के आलम में उनके पास रोजगार में होने के लिए इसके सिवाय कुछ चारा भी नहीं बचता। चूंकि गांव देहात और शहरी इलाकों के गरीब बस्तियों में ऐसी देखादेखी का ही सबसे ज्यादा असर होता है और बीमारी के वायरल की छूत पूरे तबके में लग जाती है।
मसलन कोलकाता के विश्वविख्यात निषिद्ध इलाकेके यौनकर्मियों का मामला है, जिनके पास अपनी देह और जवानी ही एकमात्र पूंजी है, संपत्ति भी। इन लोगों ने व्यापक पैमाने पर सहकारी समिति से पैसे निकालकर देखादेखी में शारदा समूह में निवेश कर दिये। इसी तरह हाट बाजार में छोटी पूंजी लगाकर कारोबार करने वालों मे यह छूत बैहद तेजी से फैलती है। कामगारों और श्रमिकों के समूहों जैसे रिक्शावालों, आटोवालों, बर्तन मांजने वाली मौसियों और घरेलू नौकरानियों में भी यह संक्रमण तेजी से होता है। खास बात यह है कि इन तबकों की सामाजिक आर्थिक कोई सुरक्षा होती हीं है।
यह धंधा नेटवर्किंग मार्केटिंग की तरह चेन बनाने का खेल है। सपना बेचने का धंधा। जो लोग अपने सपनो को हकीकत में बदलने की हैसियत में हैं, वे इस चक्र में मुश्किल से फंसते हैं। पर ज अपने बल बूते अपना सपना पूरा करने में असमर्थ है और देश की अर्थ व्यवस्था और सामजिक राजनीतिक मुख्यधारा से बाहर जो असहाय बेसहारे लोग हैं, उन्हें थोड़ी सी बचत के बदले सपने खरीदने में कोई ऐतराज नहीं है। एजंट भी चेन बनाने में जी जान लगा देते हैं, ताकि भारी कमीशन के जरिये उसका कायकल्प हो।ऐसे एजंटों के पास भी अमूमन कोई विकल्प नहीं होता।ज्यादातर मामलों में चिटफंड कंपनियां पहले एजंटों का चेन बनाती है और उन्हींके जरिये निवेसकों का चेन। ये एजंट स्थायी या अस्थायी कर्मचारी भी नही होते। पैसा जमा होकर कहां जा रहा है, कहां खप रहा है, ऐसा जानलेने का उनके पास कोई अवसर नहीं होता। अक्सर दूसरी कंपनियों से ज्यादा कमीशन और जल्दी तरक्की की लालच देकर ऐसे कमीशन एजंट तोड़े जाते हैं। अब शारदा समूह और दूसरी कंपनियों के फंस जाने के बाद बाकी कंपनियां इनके एजंटों को तोड़कर अपना नेटवर्क मजबूत करके पहले से बनी शृंखला को और तेजी से फैलाने की जुगत में है।
फिर इलाकाई मसीहाओं के जो अंधे भक्त हैं, उन्हें भी अपने आइकन के कहे की कोई काट नजर नहीं आती है। इस पर तुर्रा यह कि समाज में प्रभावशाली राजनीतिक, सामाजिक और फिल्मी व्यक्तित्व जब ऐसी योजनां के पक्ष में बानदे देते हैं और इन कंपनियों के कार्यक्रमों में शामिल होते हैं, जिनका सीधा प्रसारण भी होता है, तो इस वायरल के महामारी में बदलने में कतई देरी नहीं लगती।चिटफंड कंपनियों के बारे में ऐसे लोगों को जोड़ना अनिवार्य है और बंगाल में ऐसा ही हुआ।परिवर्तनपंथी बुद्धिजीवी, राइटर्स के वेतन भोगी, मंत्री, सांसद, विधायक, पत्रकार कौन नहीं हैं इस कतार में?धोखेबाजी करने वाली कंपनियों को टीवी चैनल से लेकर अखबार तक खोलने की बेरोक-टोक आजादी मिल जाती है। यही नहीं वो खुद को बड़े सियासी दल और नेताओं के साथी के तौर पर भी पेश करने में कामयाब हो जाती हैं।
बंगाल की आर्थिक बदहाली और सर्वव्यापी बदहाली में इन अति पिछड़े तबकों को लगता है कि उनकी तमाम तकलीफों से निजात मिल जायेगी, बीमार का इलाज हो जायेगा, बच्चों की शिक्षा का सपना पूरा हो जायेगा या फिर घर में बैठी बहन बेटी के हाथ पीले हो जायंगे , अगर उनकी थोड़ी सी बचत कई गुणा ज्यादा बनकर उनके हाथों में आ जाये। एक दो मामलों में ऐसा होता भी है और कंपनी की साक बन जाती है। क्योंकि कोई कानूनी अड़चन नहीं है, कहीं कोई कार्रवाई नहीं है, निगरानी नहीं है, तो लोगों को ऐसी कंपनियों में निवेश का जोखिम नहीं लगता। जिनके पास कुछ ज्यादा है, वे शायद ही ऐसा जोखिम उठाये, जिसमें पूरी जमा पूंजी डूबने का खतरा हो।
पश्चिम बंगाल में चिटफंड घोटाले का कोहराम मचा देने वाली शारदा समूह कोई अकेली कंपनी नहीं है। ऐसे मामलों के जानकार बताते हैं कि राज्य में कम से कम ऐसी 60 फर्जी सौ फर्जी कंपनियां सक्रिय हैं और अनुमान है कि इन फर्मों ने अनगिनत निवेशकों से करीब 10 लाख करोड़ रुपए जमा कराए हैं।इसके अलावा राज्य में आर्थिक हेराफेरी करने वाली छोटी और गैर पंजिकृत फर्मों की संख्या अनगिनत है। ऐसी फर्जी कंपनियां सबसे पिछड़े जिलों और संवेदनशील सीमावर्ती इलाकों में ज्यादा प्रभावशाली हैं जैसे उत्तरी और दक्षिणी 24 परगना, मालदा हावड़ा, नदिया और बीरभूम जिलों में।ग्रामीण और छोटे शहरों के अधिकांशतः गरीब लोगों ने 25 से 30 प्रतिशत ब्याज की लालच में फंस कर अपनी गाढ़ी कमाई कंपनी में जमा कराई थी।आयकर विभाग के आकलन के मुताबिक अकेले शारदा समूह ने करीब सत्तर हजार करोड़ रुपये की उगाही कर ली।लोगों की गाढ़ी कमाई ले उड़ने वाले शारदा समूह का जाल पश्चिम बंगाल, असम समेत पूर्वोत्तर भारत और उड़ीसा तक फैला है।अगर कश्मीर में पकड़े नहीं जाते तो शंकर सेन से सुदीप्त सेन बने इस दक्ष खिलाड़ी के नये परिचय के साथ पश्चिम भारत में नयी कंपनी खोलने की योजना थी।
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