बेदखल खेतों में मानसून की गंध से लिपटी बारुदी सुगंध!
पलाश विश्वास
बेदखल खेतों में मानसून की गंध से लिपटी बारुदी सुगंध!
इस मानसून से यकीनन नहीं बुझेंगी आगजनी में जलती झोपड़ियो का आग
या बेरोजगारी भुखमरी की चपेट में, निजीकरण विनिवेश के विकास में
खाली पेटों में दहकती आग या फिर
सत्ता वर्चस्व की लड़ाई में मारे जाने वालों की
श्मशान चिताओं में भड़कती आग!
अब हमारी इंद्रियां सायद काम नहीं करती ,इतने रोबोटिक और
हद से ज्यादा बायोमेट्रिक हो गये हम अपने अपने चेहरे और वजूद से
भी बेदखल,इसलिए कड़कती बिजलियों में नाच रहे यौवन के
सृष्टिसुख उल्लास हमारे नामर्द रक्त को स्पर्श नहीं करता
ब्रिटिश हुकूमत के उत्तराधिकारी के हिंदुत्व से गौरवान्वित हमें
राष्ट्र की युद्धघोषणा से भी खास मतलब नहीं है, हम तो किसी भी हाल में
अपने खेत, अपने पहाड़, अपनी घाटी, अपनी नदी और अपने जंगल से
दूर भागने की कवायद में कदमताल करते जी रहे हैं
कीचड़ में धंसकर धान रोपने की कुव्वत या फिर बारिश के
दनदनाते छींटों से सराबोर होने का दम बाकी बचा कहां है?
महाशय, हमारा सौंदर्यशास्त्र प्रतिमानों, व्याख्याओं
और विचारधाराओं से लैस है , हम मूल्यांकन हो या फिर बहस
भाववाद से मुक्त हैं और सामाजिक यथार्थ से भी
रातोंरात लखपति करोड़पति होने का ख्वाब जीते हमें
पगडंडियों या मेढ़ों पर चलने की, भूस्खलन या भूकंप के बीच जीने की
या सैन्यदमन के आगे असहाय हो जाने या मुठभेड़ में मारे जाने या
उग्रवादी, आतंकवादी या फिर माओवादी और यहां तक कि राष्ट्रविरोधी
का तमगा पहन लेने का जोखिम उठाने की कोई जरुरत नही
इरोम शर्मिला अनशन करती रहे अनंतकाल या शीतल साठे
जेलों में अंबेडकर को राजनीतिक दुश्चक्र से निकालकर
सचमुच की जनमुक्ति की परिकल्पना से जोड़ने में
ख्वाब बुनती रहें अनंतकाल या सोनी सोरी के गुप्तांग में पत्थर डालकर
विकास गाथा का भारत निर्माण जारी रहे अनंतकाल, हम तो
अंध धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के सिपाहसालार है और कांग्रेस बीजेपी ध्रूवों के
बीच अपनी धूरी पर घूमती रहती है हमारी धरती
मानसून हो न हो, हिमपात हो न हो, सूखा पड़े या दुष्काल,
भुखमरी हो या बेरोजगारी, हम तो भारत निर्माम में लगे हैं और
भारत अमेरिकी इजरायली पारमाणविक प्रभुत्व के
रहम पर दूसरों की तरह अपनी गाड़ी और बाड़ी के छोटा पड़ जाने
अपना सिक्का खोटा हो जाने और अरबपतियों की पार्टी में मौज मस्ती से
बेदखल हो जाने का गम गलत करते हैं आईपीएल
मिक्सिंग फिक्सिंग सेक्सिंग कारोबार में
खलिहानों में फसल की सुंगंध के बनिस्बत टीवी से सुगंधित होने की
लत लग गयी है और अपने दिलो दिमाग के दरवाजे बंद करके
कंप्यूटर प्रोग्रामिंग की तरह व्यवहार में दक्ष हैं हम
करोड़ों किसान आत्महत्या कर लें ता हमारा क्या?
हर आदिवासी को माओवादी बताकर सरेआम गोली से उड़ी दिया जाये
या उनके घरों, गांवों और खेतों में, उनके जंगल और उनकी नदियों पर कंपनियों का
ठप्पा लगाने के लिए सीमाओं की रक्षा करने वाली फौजों को खपा दिया तो क्या?
हम तो लोकतंत्र को खतरा तभी बतायेंगे जब महामहिम चेहरे पर आयेगी आंच
और बेदखल लोग हर दाना का हिसाब मानेंगे
तब हम मोमबत्ती जुलूस में शामिल होंगे अवश्य!
हर गांव में हर स्त्री से हो जाये बलात्कार तो उन्मुक्त यौन स्वतंत्रता को फिरभी
आंच नहीं आयेगी, देहमुक्ति का गौरवगान करते रहेंगे हम
और शीतताप नियंत्रित सभागृहों में विचारधाराओं और
देवों देवियों की प्रासंगिकता पर बहस के जरिये अपनी अपनी जनप्रतिबद्धता
अपने अपने जनयुद्ध को इतिहास में दर्ज करा लेंगे हम
इतिहास भूगोल और वर्तमान से बेदखल लोगों के बीच
खड़ा होकर हम कैसे नाराज कर दें अपने अपने समीकरण को
वर्चस्ववाद के गुलाम होकर मिलता है हर सुख, मिलती है प्रोन्नति
तो आरक्षित होकर जीने में ही शुकुन है लेकिन दिक्कत यह हो गयी है
कि आरक्षित शीतताप नियंत्रित डब्बो में भी, जिन्हें कोई मानसून, कोई हिमपात
कोई दुष्काल या बुखमरी का तांडव छू नहीं पाता
वहां भी आग की तपिश अंधाधुंध गोलीबारी की शक्ल में
बरसने लगी है इन दिनों और जनयुद्ध से बचते बचते
क्रमशः जनयुद्ध से घिरने लगे हैं हम सभी!
फिरभी हम भद्रसमाज के अति सम्मानित,प्रतिष्ठित, पुरस्कृत
मेधासंपन्न लोगों को चुनिंदा विरोध के अवसरवाद,
परिकल्पनाओं, आंकड़ों, परिभाषाओं और उद्धरणों, सुविधा की चुप्पी और
मौके की नजाकत के मुताबिक सुतीव्र वाचालता के साम्राज्य से बेदखल करेगा,
ऐसा कौन है माई का लाल?
सुशील समाज सुविधाबोगी सत्तावर्ग के हितों से ऊपर कब उठी है राजनीति?
पांव के छालों, हथेली के सख्त पड़ते जज्बे के लिए
असभ्य अनार्य अश्वेत वन्य लोगो के हक में
कब खड़ा हुआ कोई लोक गणराज्य?
कानून के राज सबके लिए नहीं है, जाहिर सी बात है
और हर उंगली एक ही लंबाई की नहीं होती
मानसून का मतलब अलग अलग तबको के लिए
एकदम अलग अलग है
जैसे कि लोकतंत्र, अभिव्यक्ति, विकास, कानून के राज,
नागरिकता, न्याय, समानता,अवसर और
मानवाधिकार की परिभाषाएं!
बेदखल खेतों में मानसून की गंध से लिपटी बारुदी सुगंध!
हमारा क्या? हम तो कृषि के महाविनाश के उत्सव के कारपोरेट आयोजकों
में शामिल हैं और बारुदी सुरंगों में मारे जाने वाले लोग
हमारे कोई नहीं होते
राष्ट्र के युद्ध में मारे जाने वाले भी हमारे कोई नहीं होते
हल और फावड़े से नाता तोड़कर अर्थव्यवस्था अब
उन्मुक्त है, इस खुले बाजार के बाहर जो लोग हैं,
उनके समावेशी विकास का दावा चाहे कुछ है,
उनके जीने मरने से हमें क्या लेना देना?
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