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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Saturday, June 15, 2013

शासक वर्ग और उसकी राज्य मशीनरी चाहती है कि जाति प्रथा बनी रहे

शासक वर्ग और उसकी राज्य मशीनरी चाहती है कि जाति प्रथा बनी रहे


आरक्षण का राजनीति शास्त्र

जे.पी. नरेला

 

आरक्षण का मसला सर्वथा सवर्ण जातियों एवम् दलित जातियों के बीच के अन्तर्विरोध का मसला बना रहा है। आरक्षण का विरोध आरक्षण के पैदा होने के साथ–साथ ही चल रहा है। इस अन्तर्विरोध को दुश्मनाना कहें कि दोस्ताना यह तय करना तो जल्दबाजी होगी, लेकिन भारत में दलितों के लिये आरक्षण सवर्णों के पुरजोर विरोध के बावजूद ही लागू हो पाया था।

रामास्वामी पेरियार ने जब 1925 में तामिलनाडू काँग्रेस कमेटी के कांचीपुरम अधिवेशन में आरक्षण की माँग उठायी तो सवर्णों द्वारा उन पर ईंट, पत्थर फेंके गये। अन्ततोगत्वा पेरियार को यह कह कर कोंग्रेस से इस्तीफा देना पड़ा, कि काँग्रेस सवर्णों की पार्टी है, और आरक्षण का सवर्ण जातियों द्वारा यह विरोध आज तक जारी है । आरक्षण लागू करने की आवश्यकता क्यों पड़ी, इसकी ऐतिहासिक पृष्टभूमि क्या है ? आरक्षण के बावजूद आज भी दलित आबादी का 90 % हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे क्यों है? सवर्ण जातियों की कुल आबादी का बहुसंख्यक हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे क्यों नहीं है ?क्यों आज भी भारत के सभी बड़े उद्योगों व जमीनों पर सवर्ण पूँजीपतियों एवम् भूस्वामियों  का ही कब्ज़ा है ? क्यों आज भी डॉक्टर, इंजीनियर,प्रोफसर,इतिहासकार, साइंटिस्ट, आई.ए.एस., आई.पी.एस. का बड़ा हिस्सा सवर्ण जातियों से ही आता है? क्या कारण है, कि सभी योग्यतायें सवर्णों के अन्दर ही भरी हुयी हैं? दलितों में नहीं। साफ़ तौर पर इसके कारण सामाजिक,आर्थिक और राजनैतिक हैं। सदियों से दलितों को गुलाम बनाये रखना और तमाम संसाधनों पर कब्जा कर स्वयंम् कुण्डली  मारकर बैठ जाना। इसी की बदौलत दलित समुदाय को आरक्षण की आवश्यकता पड़ी और आज जो भी एक या दो फीसदी दलित समुदाय के लोग आरक्षण के जरिये आई,.ए.एस, आई.पी.एस में आ गये हैं, वही आज सवर्णों की आँख

जय प्रकाश नरेला, लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। जाति विरोधी संगठन के संयोजक हैं।

जय प्रकाश नरेला, लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। जाति विरोधी संगठन के संयोजक हैं।

की किरकिरी बने हुये हैं।

भारतीय समाज की जाति –प्रथा और उसका भेद जो आदमी–आदमी के बीच में जानवर और इन्सान के बीच जैसा फर्क ही बयाँ करती है। एक दलित से अच्छा तो कुत्ता भी होता है, इसलिये कि यदि वह दलित के हाथ की रोटी खा ले तो उसका सवर्ण जाति का मालिक अपने घर से निकाल देता है, क्योंकि वह अछूत हो गया है। जी, हम कोई सोलहवीं शताब्दी की बात नहीं कर रहे हैं। हम आज की ही और इक्कीसवीं शताब्दी की ही बात कर रहे हैं और कोई दलित सवर्णों के घड़े से पानी भी पी ले तो उसका हाथ काट दिया जाता है और कोई दलित युवक किसी सवर्ण जाति की युवती से शादी कर ले तो सम्पूर्ण सवर्ण समाज में तूफान आ जाता है। दलितों की बस्तियाँ उजाड़ दी जाती हैं। किल्लिंग हो जाती है। फिर आप सोच सकते हैं, कि किसी भी सरकारी नौकरी में सवर्ण के बराबर या उपर बैठे दलित बॉस को कैसे दिल पर पत्थर रखकर वो झेलता होगा। सरकारी नौकरियों और पदोन्नति में आरक्षण के विरोध का आधार सिर्फ और सिर्फ जातीय घृणा है, और कुछ भी नहीं।  आरक्षण के जरिये किसी डॉक्टर को ही डॉक्टर भर्ती करते हैं और किसी इंजीनियर को ही इंजीनियर। ऐसा तो नहीं होता है न ,कि बिना डॉक्टर की डिग्री के ही आरक्षण के तहत डॉक्टर भर्ती कर देते हों और वह अयोग्य है और मरीजों को मार ही देगा। यह एक कोरी बकवास के सिवा कुछ भी नहीं है। निराधार सवर्ण मानसिकता से निकला हुआ एक कमजोर और खोखला तर्क है।                                                                                       आज शिक्षा एवम् सरकारी नौकरियों में आरक्षण का यह झगड़ा दलित आबादी के सिर्फ 2 % दलितों को भी आगे न आने देने का झगड़ा है, बाकी पर तो पहले से बिना आरक्षण के ही कब्ज़ा जमाये बैठे है। दलितों की लड़ाई, जिसकी आबादी का बहुसंख्यक हिस्सा या तो खेतिहर मजदूर है या संगठित व असंगठित छेत्र में मजदूर है, उस बाकी पर धावा बोलने की है और यह वर्ग युद्ध (क्लास वार ) तो होकर ही रहेगा, क्योंकि आरक्षण तो निजीकरण के जरिये वैसे ही खत्म होने जा रहा है। यह जमीनें और उद्योग जिन पर सवर्ण पूँजीपति और भूस्वामी कुण्डली मारे बैठे हैं, अब मामला उनमें हिस्सेदारी का है या फिर सभी उत्पादन के साधनों पर सवर्ण पूँजीपतियों एवम् भूस्वामियों का वर्चस्व भी समाप्त हो। इसके बाद ही योग्यता का असलियत में पैमाना लगेगा, या तो सभी को निजी मालिकाना होगा, नहीं तो किसी का भी नहीं होगा। सभी को शिक्षा के समान अवसर होंगे । तभी समान प्रतियोगता हो सकती है।

डॉ. भीमराव आंबेडकर ने जनवरी,1931 को गोलमेज सम्मलेन में इस सम्बन्ध में एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया था, जिसमें कहा था, कि सरकारी नौकरी में ऊँची जाति के अधिकारियों ने दलितों को बहुत सताया है। अपने अधिकारों और कानून का अपनी जाति के लिये गलत ढँग से इस्तेमाल किया है। न्याय, समानता और विवेक के सिद्धान्त की धज्जियाँ उड़ायी हैं। दलितों का भयावह शोषण किया है। इसे रोकने का एक ही उपाय है, सरकारी नौकरियों पर हिन्दू सवर्णों के एकाधिकार को समाप्त करना। नौकरियों में भर्ती की ऐसी पद्धति अपनायी जाये ताकि दलित समेत समाज के अन्य अल्पसंख्यक लोग भी उचित हिस्सा पा सकें। सन् 1942 में भी अपने आलेख में यह बात कही है कि देश में न्यूनतम योग्यता के आधार पर सरकारी सेवाओं में एक निश्चित अनुपात अछूतों के लिये आरक्षित किया जाये। डॉ. भीमराव आंबेडकर के आलेख में योग्यता के बारे में तर्क है, कि क्या शिक्षा यथोचित रूप से लोकतान्त्रिक है? क्या शिक्षा सुविधाओं का व्यापक विस्तार है? यदि नहीं तो प्रतियोगिता में शामिल होना अँधेर है। भारत में यह मूल स्थिति धोखे की जननी है। भारत में उच्च शिक्षा पर सवर्णों का एकाधिकार है। इस समाज में अछूतों को तो शिक्षा प्राप्ति के अवसर ही नहीं दिये जाते। उनकी गरीबी ऊँचे पदों के लिये शिक्षा दिलाने में सबसे बड़ी बाधा है और उच्च सरकारी पदों का ही कारगर महत्व होता है। इस तरह अछूतों को नौकरियों के लिये प्रतियोगिता पर निर्भर करने को कहना उनके साथ एक पाखण्ड है।

आज- कल एक बात और जोर पकड़ रही है कि आरक्षण में क्रीमीलेयर को बाहर करो। इसके बदले यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि आरक्षण खत्म करो, क्योंकि दोनों बातों का एक ही मतलब है। कैसे? आरक्षण के लिये शिक्षा की आवश्यकता है और शिक्षा दलित समुदाय में पैदा हुये मध्य वर्ग के पास ही है, वही अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर बना सकता है और आरक्षण की दावेदारी कर सकता है। बाकि 90 % तो गरीबी रेखा के नीचे हैं। यानी जीवन के अस्तित्व की ही लड़ाई लड़ रहा है फिर डॉक्टर, इंजीनियर की डिग्री तो दूर की बात हुयी। इसलिये यह एक सवर्णवादी मानसिकता से उपजा साजिशाना तर्क है। नतीजा यह होगा कि गरीब दलित आरक्षण तक आ नहीं सकता, जो आ रहा है उसको हटा दो और फिर सवर्ण ही अपनी योग्यता की दुहाई देता हुआ सभी सीटों को हड़प जायेगा। इस साजिश का शिकार कई दलित बुद्धिजीवी भी हो रहे हैं। सुनने में बहुत अच्छा लगता है, कि जिसको जरूरत है, उसी को मिलना चाहिये, लेकिन सवाल यह है, कि उसको बिना पर्याप्त शिक्षा के मिलेगा कैसे ?

आरक्षण में आर्थिक आधार का तर्क भी बेमानी है। दलित समुदाय का समाज की मुख्य धारा से पिछड़ने का कारण उसकी जाति है। उसका आर्थिक और सामाजिक दोनों तरह से शोषण हुआ है। सवर्णों का एक हिस्सा इसलिये नहीं पिछड़ा है, कि उसके साथ कोई सामाजिक जाति भेद –भाव हुआ है। इसलिये यह बात आरक्षण के मायने ही बदल देती है। दूसरी बात क्या आरक्षण देश के विकास में रोड़ा है ? हम कहते हैं कि विकास से तात्पर्य क्या है? विकास में एक हिस्सा पिछड़ गया था, इसीलिये तो इस हिस्से को मुख्य धारा में ले आने के लिये आरक्षण की शुरुआत की गयी थी। यदि देश का दलित आबादी का 90 % हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे का जीवन बसर करता है और कुछ लोग विकास कर जाते हैं तो क्या इसको देश का विकास कहा जायेगा ? विकास की अवधारणा में सभी तबकों एवम् वर्गों का विकास होना निहित है और यह भी कहना कि आरक्षण जातिवाद को बढ़ावा देता है, कोरी लफ्फाजी वाला तर्क है क्योंकि, जगजाहिर है कि जाति प्रथा और जातिवाद सदियों से चली आ रही है, आरक्षण की वजह से भारत में जाति का जन्म नहीं हुआ है।

भारत देश 121 करोड़ की आबादी से बना है और  सरकारी आँकड़ों के मुताबिक 40% हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे है और यह स्थिति आरक्षण के कारण नहीं है। इसका कारण भारत में जाति और वर्ग दोनों से निर्मित आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक वर्तमान व्यवस्था है और दोनों( जाति और वर्ग ) के वर्तमान व्यवस्था में मजबूत अन्तर्सम्बन्ध मौजूद है ।

                      भारतीय राज्यसत्ता और उसके शीर्ष पर बैठे शाषक वर्ग का चरित्र वर्गीय और जातिवादी दोनों हैक्योंकि वह स्वयंम् सवर्ण जातियों से सम्बन्ध रखता है। और वर्तमान व्यवस्था की दीर्घ आयु के लिये भी नीतिगत तौर पर उसके लिये यह आवश्यक है कि वह अपने बाजार और मुनाफे के साथसाथ जाति– प्रथा को भी बनाये रखे। पिछले दिनों ही एक सर्वे के मुताबिक़ भारतीय कॉर्पोरेट बोर्ड रूम अब भी योग्यता या अनुभव से ज्यादा जाति के आधार पर काम करता है सर्वे में पाया गया कि 93% बोर्ड सदस्य अगड़ी जातियों से हैं, 3.8% अन्य पिछड़ी जातियों से।साठ के दशक से आरक्षण नीति लागू होने के बावजूद अनु.जाति और जन जाति के निदेशक इस कड़ी में सबसे नीचे केवल 3.5%ही थे ।

आरक्षण को दलितों की मुक्ति के समाधान के तौर पर देखना भी भारी भूल होगी। जब तक जातीय व्यवस्था और जाति भेद मौजूद है, हम आरक्षण के पक्षधर रहेंगे। आगे की लड़ाई जारी रहनी चाहिये। जिसमें जाति एवम् वर्ग का खात्मा निहित हो, ताकि किसी को भी आरक्षण की आवश्यकता ही न पड़े। चलते – चलते एक बात और साफ़ कर दें। वह यह कि हम जातीय संघर्ष के पक्ष-धर नहीं हैं। यह संघर्ष तमाम उत्पादन के साधनों, शिक्षा और सरकारी नौकरियों पर एकाधिकारियों और उत्पादन के साधनों से वंचित के बीच का एक वर्ग सघर्ष है अर्थात् भारत के शासक वर्ग और उसकी राज्य मशीनरी से है। क्योंकि राज्यसत्ता के शीर्ष पर बैठे शासक वर्ग की यह जिम्मेदारी बनती है, कि वह जाति प्रथा को समाप्त करे। सबको शिक्षा और रोजगार के समान अवसर प्रदान करे। शासक वर्ग इस सम्बन्ध में अपना काम नहीं कर, सिर्फ जाति- प्रथा का इस्तेमाल वोट की राजनीति में कर रहा है। शासक वर्ग और उसकी राज्य मशीनरी चाहती है, कि जाति प्रथा बनी रहे।

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