विष्णु खरे जनसत्ता 16 जून, 2013: हमारे पिछले सत्तावन बरस के मित्र अशोक (वाजपेयी, 'कभी-कभार', जनसत्ता, 9 जून) ने 'नोबेल पुरस्कार की एक शती' की शुरुआत ही एक बहुप्रचलित भ्रांति से की है। साहित्य का नोबेल पुरस्कार किसी भाषाविशेष के लेखक-विशेष को उसके समग्र सृजनात्मक योगदान के लिए दिया जाता है, प्रशस्ति-भाषण में भले ही उसकी कुछ विशिष्ट कृतियों का उल्लेख हो। स्वीडी अकादेमी नोबेल समिति द्वारा रवींद्रनाथ ठाकुर पर दिए गए आधिकारिक वक्तव्य में निस्संदेह 'गीतांजलि' को केंद्रीय महत्त्व दिया गया है, पर 'द गार्डनर', 'लिरिक्स आॅफ लव एंड लाइफ', 'ग्लिम्प्सेज आॅफ बेंगाल लाइफ', 'द क्रिसेंट मून' और 'साधना: द रिअलाइजेशन आॅफ लाइफ' के नामोल्लेख भी हैं। पिछले वर्ष से ही मैं 1913 के इस पुरस्कार के कुछ तथ्यों की खोज में था और एस्तोनिया की राजधानी तालिन में स्थित राष्ट्रीय पुस्तकालय में, जिसका कुछ वर्षों से मैं सौभाग्यशाली 'पाठक सदस्य' (रीडिंग मेंबर) हूं, मुझे स्वीडी अकादेमी के वे दुर्लभ वार्षिक 'ब्रोश्योर' मिले जिनमें पुरस्कार-समिति के सदस्यों, उनके निर्णय, विजेताओं के जीवन-वृत्त और भाषण प्रकाशित किए जाते हैं। पिछले 112 वर्षों की ये मूल स्मारिका-पुस्तकें भारत में शायद कहीं उपलब्ध नहीं हैं। इनमें संबद्ध वर्ष के पुरस्कार किसे क्यों दिए गए हैं इसका एक-पंक्तीय और कभी उससे भी कम, खुलासा भी छापा जाता है। ठाकुर के विषय में मूल फ्रेंच के इस कच्चे हिंदी अनुवाद में कहा गया है: ''उस गहरी और उदात्त प्रेरणा, उस सौंदर्य और नावीन्य के लिए, जिसका परिचय उनकी प्रतिभा, अंग्रेजी रूप-विधान में, पाश्चात्य साहित्य से करवा सकी।'' गौरतलब है कि स्वीडी अकादेमी कह रही है कि ठाकुर ने अंग्रेजी 'फॉर्म' में, अनुवाद में नहीं, पश्चिम को अपनी प्रतिभा से परिचित करवाया। इसमें काफी सच्चाई है। ठाकुर भी अपनी उस 'गीतांजलि' को, जिसकी ख्याति और लोकप्रियता के आधार पर उन्हें नोबेल दिया गया, अपनी मूल अंग्रेजी कृति ही मानते दिखाई देते थे। उस 'गीतांजलि' और कथित मूल बांग्ला 'गीतांजलिह्ण में बहुत और महत्त्वपूर्ण फर्क है। कवि के जीवनकाल में ही शायद दोनों में संशोधन भी होते रहे हैं। एक विचित्र तथ्य है कि ठाकुर स्वयं पुरस्कार लेने स्वीडन नहीं गए। पुरस्कार-रात्रिभोज पर जो बहुत छोटा भाषण देना होता है उसकी जगह उन्होंने अकादेमी को एक एक-पंक्तीय तार अंग्रेजी में भेजा, जिसे स्वीडन में ब्रिटिश दूतावास के तत्कालीन शार्जे-द' फैर्स (कार्यभारी राजदूत) क्लाइव ने उपस्थित भद्रलोक को पढ़ कर सुनाया। क्लाइव ने ही ठाकुर की अनुपस्थिति में उनका पुरस्कार भी ग्रहण किया। इससे भी अजीब वाकया यह है कि ठाकुर ने अपना कोई नोबेल-स्वीकृति भाषण लिख कर नहीं भेजा कि अकादेमी का कोई निर्णायक या अधिकारी उसे उस ऐतिहासिक अवसर पर पढ़ सके। हाल के वर्षों में हमारी परिचिता आॅस्ट्रियाई उपन्यासकार-कवयित्री-नाटककार एल्फ़्रीडे येलीनेक ने, जिन्हें भीड़ के बीच रहने और उसके सामने बोलने से वहशत है, अपना नोबेल-भाषण वीडिओ करके भिजवाया था और वही दिखाया-सुनाया गया। विलक्षणतम यह है कि स्वीडी अकादेमी का यह प्रकाशन कहीं कोई आधिकारिक कारण नहीं देता कि ठाकुर ऐसे अमर क्षण को जीने, अपना एक अद््भुततम भाषण देने स्टोकहोल्म क्यों नहीं पहुंचे। उसके एवज में स्वीडी अकादेमी नोबेल समिति के अध्यक्ष, मानद प्रोफेसर डॉ हाराल्ड ह्यैर्ने ने ठाकुर पर अपना एक अपेक्षाकृत लंबा भाषण दिया। बहुत अफसोस है कि एडवर्ड सईद ने यह भाषण नहीं देखा, वर्ना अपनी 'ओरिएंटलिज्म' में, जो यों तो कोई बहुत संतोषप्रद पुस्तक नहीं है, कम-से-कम इसका जिक्र शायद वह करते। यह अध्यक्षीय उद््बोधन इतने अधकचरेपन, भ्रांतियों और कृपाभाव से भरा हुआ है कि खुद उस पर एक पुस्तिका लिखी जा सकती है। पता नहीं इसका अनुवाद बांग्ला में है या नहीं और उस पर अपने शोनार लेखकों की क्या प्रतिक्रिया रही, लेकिन इस शती-वर्ष में हिंदी में तो उसे लाया ही जाना चाहिए। अव्वल तो इसमें ठाकुर को प्रथमग्रासे ही 'एंग्लो-इंडिअन पोएट' घोषित कर दिया गया है, 'गीतांजलि' को निर्भीकता से 'ए कलैक्शन आॅफ रिलीजस पोयम्स' ('धार्मिक कविता संग्रह') तो मान ही लिया गया है, उसे 'अंग्रेजी साहित्य की थाती' ('हैज बिलॉन्ग्ड टु द इंग्लिश लिटरेचर') बना दिया गया है। ठाकुर के बारे में कहा गया है कि वे ''उस काव्य-कला के नए और प्रशंसनीय निष्णात हैं जो सम्राज्ञी एलिजाबेथ के युग से ब्रिटिश सभ्यता के प्रसार की अमोघ सहचरी रही है।'' (''ए न्यू एंड एन एड्मिरेबिल मास्टर आॅफ दैट पोएटिक आर्ट दैट हैज बीन ए नैवर-फेलिंग कॉन्कोमिटेंट आॅफ द एक्सपैंशन आॅफ ब्रिटिश सिविलिजेशन एवर सिंस द डेज आॅफ क्वीन एलिजाबेथ'')। भाषण में भारत के पुनर्जागरण का पूरा श्रेय, जिसमें आधुनिक भारतीय भाषाओं का उदय और विकास भी शामिल है, ईसाई मिशनरियों को, जिनके आंशिक योगदान से इनकार तो नहीं किया जा सकता, दे दिया गया है। भक्ति आंदोलन को भी पश्चिम के विदेशी धर्मों से अप्रभावित नहीं कहा गया है। इससे बड़ा दावा 'ब्राह्मो समाज' के लिए किया गया है। ठाकुर को इस सब से प्रभावित, बल्कि इनका एक 'प्रोडक्ट'-नुमा संत, दार्शनिक, धार्मिक व्यक्ति, लगभग एक पैगम्बर जैसा पेश करने की कोई कसर छोड़ी नहीं गई है। वैसे अब नोबेल अकादेमी उनके पुरस्कार को बांग्ला को दिया गया कहती है, लेकिन चूंकि नोबेल समिति में 1913 में कोई बांग्ला-लिपि को पहचानता तक न था इसलिए भाषा का सिर्फ एक उड़ता-उड़ता जिक्र इतिहास के रिटायर्ड प्रोफेसर ह्यैर्ने ने किया, वर्ना बांग्ला साहित्य की परंपरा का कोई उल्लेख उनके भाषण में नहीं है, संस्कृतादि सहित किसी अन्य भारतीय भाषा या साहित्य का नामोनिशान नहीं है-बीच में उनकी इतिहास-दृष्टि 1857 के संग्राम को कुचल दिए जाने की सराहना करती है। यह मालूम करना मुश्किल है कि ठाकुर को इस पूर्वलिखित वक्तव्य का ज्ञान था या नहीं, या यह उनकी अनुपस्थिति से प्रभावित था। बाद में उनकी इस पर क्या प्रतिक्रिया थी इसका भी कुछ पता नहीं चलता। दुर्भाग्यवश कुछ जटिल वजहों से 1925-30 तक पश्चिम के साहित्यिक हलकों में ठाकुर की लोकप्रियता और प्रतिष्ठा घटती गई, जबकि सब जानते हैं कि 'गीतांजलि' का नोबेलीय अंग्रेजी संस्करण गढ़ने और प्रचारित-प्रसारित करने में ठाकुर के कई मूल अंग्रेजीभाषी विदेशी मित्रों-प्रशंसकों का हाथ था जिनमें एज्र्रा पाउंड और बर्ट्रेंड रसेल सरीखे नाम भी थे, पर उसका अधिकतर श्रेय सुविख्यात और स्वयं 1923 में नोबेल पानेवाले आइरिश-अंग्रेजी कवि विलिअम बटलर येट्स को दिया जाता है। बाद में येट्स भी ठाकुर के प्रतिकूल हो गए और 1935 में एक बार यों उबल पड़े: ''भाड़ में जाए टैगोर। हम (स्टर्ज मूर और मैं) ने (उसकी) तीन बढ़िया किताबें निकालीं और फिर, क्योंकि उसने सोचा कि महान कवि होने से ज्यादा अहम है अंग्रेजी जानना, तो उसने भावुकता-भरा कूड़ा छपवाना शुरू कर दिया और अपनी ख्याति को बर्बाद कर लिया। टैगोर अंग्रेजी नहीं जानता, कोई भी हिंदुस्तानी अंग्रेजी नहीं जानता।'' फिलिप लार्किन ने तो 1956 में ठाकुर के नाम को बिगाड़ कर 'रवीन्ड्रम' किया और एकाध अश्लील शब्द भी कहा। एक जीवित, शीर्षस्थ कलाकार के नाम से चल रहे निजी ट्रस्ट द्वारा प्रस्तावित वैश्विक कवि-सम्मेलन के लिए, जिससे अंतत: उसके दाम ही बढ़ेंगे, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के यहां ठाकुर की नोबेल शती का ढोल बजाना कितना उपयुक्त है यह तो भारतीय लेखक जानें, लेकिन हम न भूलें कि तीनों (साहित्य, संगीत-नाटक और ललित कला) राष्ट्रीय अकादेमियां अब भी जिस नितांत अपर्याप्त कैटिल-क्लास कोरिया-तबेले जैसी इमारत में रंभा या रेंक रही हैं उसका नाम ही ठाकुर पर 'रवींद्र भवन' है और जिसमें घुसते ही उनकी (कुछ शरारती तत्त्वों का कहना है कि शर्म से) गर्दन-झुकाई मूर्ति दीखती है। तो क्या उन्हें भी इस वर्ष कुछ नहीं करना चाहिए? और अशोक को यह क्यों नहीं सूझा कि जो व्योमेश 'कामायनी' और 'राम की शक्ति-पूजा' के लोकप्रिय किंतु संदिग्ध निजी मंचनों और श्रीकांत वर्मा के शोधन में अपना त्रैलोक्य नष्ट करता घूम रहा है, उसे 'गीतांजलि' का भी कोई अकल्पनीय मंचन 'असाइन' कर दें और ममतादी से भी 'मैचिंग ग्रांट' ले लें? कपिल सिब्बल और नरेंद्र मोदी की तरह वे भी तो कवि हैं। यों शुरुआती चुनाव हो जाए तो इस बार भारतीय भाषाओं से छह ही तो और पकड़ने रह जाएंगे। अगले आम चुनावों के बाद तो रेसकोर्स रोड पर सब-कुछ नमो-नारायणमय हो ही जाएगा। गंभीर मसला यह है कि बांग्ला पाठकों को छोड़ कर ठाकुर को अब, मेरी ही तरह, लगभग न कोई पढ़ता है न पढ़ना चाहता है। विश्व-साहित्य में उनकी ख्याति ऐतिहासिक है, जीवंत नहीं। मैं निर्लज्ज, बेपशेमान धृष्टता से कह चुका हूं कि मेरे लिए आज भारत में ठाकुर से कहीं ज्यादा प्रासंगिक नामदेव ढसाल है, जिसकी कविता और संदिग्ध राजनीतिक चाल-चलन एक तीखा वाद-विवाद निर्मित तो करते हैं। अंग्रेजी में इसी सदी-अवसर को भुनाने के लिए उनकी कुछ किताबें जरूर छपी हैं लेकिन बहुत सीमित संस्करणों में। फ्रांस में तो कभी-कभार सुनने में आता है कि जब से हिंदी से एक एवजी खोज लिया गया है, ठाकुर को लोग भूल रहे हैं, भले ही, उदाहरणार्थ, टीटीनगर में भी उसका उदय न हुआ हो। बहरहाल, तथ्य यह है कि ठाकुर का समानधर्मा कवि ख़लील जिब्रान अब भी उनसे हजारों गुना ज्यादा खरीदा-पढ़ा जाता है, जबकि जिब्रान और ठाकुर दोनों को संसार के प्रासंगिक, वास्तविक साहित्य के क्षेत्रों में आज कोई बहुत गंभीरता से नहीं लेता। एक विचित्र संयोग है कि इसी वर्ष जिब्रान की 130वीं जयंती है और बीसियों अनुवादों और करोड़ों प्रतियों में बिक चुकी उनकी 'गद्यकाव्य' कृति 'दि प्रोफेट' की 90वीं वर्षगांठ भी, जो शेक्सपियर के बाद संसार में अब भी सबसे अधिक बिकने वाली दूसरी साहित्यिक पुस्तक कही जाती है। गंभीर मामला यह है कि जो विदेशी कवि आएंगे वे नोबेल-पुरस्कार की इस हीनभावग्रस्त गुलामी, महिमा-मंडन और परस्तिश पर ब्रेष्ट के लहजे में ऐसे दरिद्र मेजबान देश पर दया ही करेंगे जिसे इस इनाम की इतनी भूख है। मुझे पूरा यकीन है कि उनमें से कई ने न ठाकुर को पढ़ा होगा न पढ़ना चाहते होंगे। शर्मा-हुजूरी में आप भले ही सार्वजनिक रूप से उनसे स्फुट कुछ कहलवा लीजिए। यदि उन्होंने कहीं ठाकुर की आलोचना कर रखी होगी तो अलग तरह के विवाद और संकट खड़े हो सकते हैं- राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री अपने सबसे महान कवि के विदेशी निंदकों की अंतरराष्ट्रीय काव्य-कान्हा-यात्रा को किसी दो कौड़ी के हिंदी प्रकाशक की तरह मन से तो सब्सिडाइज नहीं कर सकते। यह बात अलग है कि यदि यह भारत के दूसरे साहित्य-नोबेल के लिए एक विवस्त्र लॉबीइंग का हिस्सा है तो शायद स्वयं आयोजक, या कुंवर नारायण, या सच्चिदानंदन, या किसी स्वयंभू अन्य उम्मीदवार को मिल ही जाए। हालांकि हिंदी के कुछ अन्य मूर्ख आशावादियों की तरह मैं भी सोचता हूं कि अगर वह मिलेगा तो मंगलेश डबराल को, जो इस पर भी कमोबेश मनस्सर करता है कि अशोक उन्हें अपने विश्व-कवि-सम्मेलन में क्या रोल देते हैं, या, श्रीकांतजी के लहजे में, देता भी है या नहीं काल। क्या उन्हें मेहमानों के अनुवाद करने-पढ़ने या रसरंजन तक में घुसने नहीं दिया जाएगा? http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/47053-2013-06-16-06-53-32 |
No comments:
Post a Comment