जब अपने पर पड़ती है तब लोकतंत्र क्यों याद आता है ?
जब अपने पर पड़ती है तब लोकतंत्र क्यों याद आता है ?
अभी दो दिन पहले समाचार पत्रों में पढ़ने को मिला और समाचार चेनल में देखने को मिला कि रुद्रपुर के पूर्व विधायक तिलक राज बेहड के पुत्र वर्तमान विधायक राजकुमार ठुकराल के भ्राता के आक्रोश का शिकार हो गए,जैसा कि पूर्व विधायक कैमरे के सामने सुबकते हुए आरोप लगा रहे थे, कि विधायक के साथियों ने उनका जीना मुहाल कर रखा है, अगर प्रशासन उन्हें बोले तो वे शहर छोड़कर भी जा सकते हैं ? यह बयान देते समय शायद पूर्व विधयक कुछ ज्यादा ही भावावेश में बोल गए कि ये लोकतंत्र की ह्त्या है ! बेहड साहब को याद होना चाहिए कि इसकी शुरुआत भी उन्ही के द्वारा की गयी थी l
बेहड साहब को याद हो या ना हो पर मैं पाठकों को याद दिला देता हूँ, कि ऐसा एक वाकया तब का जब बेहड साहब भाजपा के समर्पित सिपाही हुआ करते थे, जैसे आज राजकुमार ठुकराल है, कुछ कुछ वैसा ही स्वभाव और व्यवहार होता था उनका, तब सन 1994 के नवम्बर या दिसम्बर माह में गांधी पार्क में अटल बिहारी बाजपेयी की सभा होनी थी, तब पृथक राज्य आंदोलन भी चरम पर था और बेहड साहब तराई बचाओ आंदोलन के झंडाबरदार थे, हल्द्वानी और कुमाऊं भर से उक्रांद के कार्यकर्ता अटल बिहारी बाजपेयी की सभा का विरोध करने को गांधी पार्क में एकत्रित होकर नारे बाजी कर रहे थे कि इन्ही बेहड साहब ने निहत्थी महिला "विजया ध्यानी" के सर पर लठ दे मारा था,जिससे उनके सर पर काफी चोट लगी थी, और उक्रांद के अन्य कार्यकर्ताओं के साथ भी भाजपा के संगठित लोगो ने काफी मार पिटाई की थी !
परसों जब बेहड साहब को टीवी पर अपना दुखडा सुनाते हुए देख रहा था तो बरबस विजया दी वाली घटना का स्मरण हो आया और आज एक मित्र ने उस घटना को ज्यों का त्यों बयान भी कर दिया, उन्होंने सीधे सीधे कहा, महाराज बेहड साहब शायद कांग्रेस में आने के बाद लोकतंत्र का मतलब सीखे हो, लेकिन वे भी तब वैसे ही बर्ताव किया करते थे जैसे आज उनके लड़के साथ भाजपा वालो ने किया था, भारत में लोकतंत्र की ह्त्या भी तभी होती है जब नेताओं के अपनों पर गुजरी होती है उससे पहले तक तो लोकतंत्र इन नेताओं की अलमारी में बंद होता है !
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