इन्कलाब जिन्दाबाद का नारा लगा देने से ही बुद्धिजीवी क्रान्तिकारी नहीं हो जाता
आज के भारत की कई विशेषताओं में एक विशेषता यह है कि मध्य वर्ग एक ऐसा उभरता हुआ तबका है, जिसकी संख्या, जिसका आकार और जिसकी अन्तर्विरोधी भूमिका बढ़ती जा रही है। इस विषय को लेकर कई तरह के मत प्रकट किए जा रहे हैं, चिंतायें प्रकट की जा रही हैं, आशायें प्रकट की जा रही हैं। और कभी-कभी यह देखने को मिलता है कि प्रगतिशील और वामपंथी आन्दोलन के अन्दर एक प्रकार की आशंका भी इस बात को लेकर प्रकट की जा रही है।
जिसे हम मध्यम वर्ग कहते हैं, मिडिल क्लास, हालाँकि इसे मिडिल क्लास कहना कहाँ तक उचित है, यह भी एक शोध कार्य का विषय है – यह हमारे समाज का, दुनिया के समाज का काफी पुराना तबका रहा है। इतिहास में इसने हमारे देश में और दुनिया में बहुत महत्वपूर्ण भूमिकायें अदा की हैं, इसे मैं रेखांकित करना चाहूँगा। आप सब औद्योगिक क्रान्ति और उस युग के साहित्य से परिचित हैं। मार्क्स और दूसरे महान विचारकों, जिनमें वेबर और दूसरे अनेक समाजशास्त्रियों ने इस विषय पर काफी कुछ अध्ययन किया है, लिखा है। इसलिये मध्य वर्ग एक स्वाभाविक परिणाम है, वह दरमियानी तबका, जो औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप पैदा हुआ। इसका चरित्र अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक कारणों और कारकों से तय होता है। जब इस दुनिया में पूँजीवाद आया, और जब हमारे देश में भी जब पूँजीवाद आया तो उसकी देन के रूप में मध्य वर्ग आया – उसका एक हिस्सा मिडिलिंग सेक्शन्स थे। फ्रेंच में एक शब्द आता है – बुर्जुआ, जो अँग्रेजी में आ गया है और बाद में हिन्दी में भी आ गया है। दुर्भाग्य से आज क्रान्तिकारी या चरम क्रान्तिकारी लोग हैं, वे इस शब्द का उपयोग गाली देने के लिये इस्तेमाल करते हैं। बुर्जुआ का अर्थ होता है मध्यम तबका। यह मध्य वर्ग तब पैदा हुआ जब यूरोप में सामन्ती वर्ग और मज़दूर वर्ग के बीच में एक वर्ग पैदा हुआ।
अगर आप फ्रांसीसी क्रान्ति और यूरोपीय क्रान्तियों पर नज़र डालें तो इसमें सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों और क्रान्तियों में मध्यम वर्ग की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका नज़र आती है। मध्यम वर्ग वह वर्ग था, जिसने उस दौर में सामन्ती मूल्यों, सामन्ती संस्कृति, और सामन्ती परम्पराओं के खिलाफ़ विद्रोह की आवाज़ उठायी। जिसका एक महान परिणाम था 1779 की महान फ्रांसीसी क्रान्ति। फ्रांसीसी क्रान्ति एक दृष्टि से मध्यम वर्ग के नेतृत्व में चलने वाली राज्य क्रान्ति के रूप में इतिहास में दर्ज़ हो चुकी है। सामन्तवाद विरोधी क्रान्तियाँ तब होती हैं, जब पुराने सम्बंध समाज को जकड़ने लगते हैं, परम्परायें जकड़ने लगती हैं और जब मशीन पर आधारित उत्पादन, नई सम्भावनायें खोलता है। हमारे यहाँ भी भारत में अँग्रेजों के ज़माने में एक विकृत किस्म की औद्योगिक क्रान्ति हुयी थी आगे चलकर। यूरोप पर अगर नज़र डाली जाये तो यूरोप में बिना मध्यम वर्ग के किसी भी क्रान्ति की कल्पना नहीं की जा सकती है। महान अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ, विचारधारा को जन्म देने वाले विद्वान मुख्य रूप से मध्य वर्ग से ही आये थे। वॉल्टेयर, रूसो, मॉन्टिस्क्यो, एडम स्मिथ,रिकार्डो, मार्क्स, एंगेल्स, हीगेल, जर्मन दार्शनिक, फ्रांसीसी राजनीतिज्ञ, इंग्लैण्ड के अर्थशास्त्रियों ने औद्योगिक क्रान्ति के परिणामों का अध्ययन और विश्लेषण कर नई ज्ञानशाखाओं को जन्म दिया। सामाजिक विज्ञानों के क्षेत्र में, साहित्य में, प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में – चार्ल्स डार्विन को कोई भुला नहीं सकता, न्यूटन तथा अन्य वैज्ञानिकों ने हमारी विचार-दृष्टि, हमारा दृष्टिकोण बदलने में सहायता की है। और इसलिये जब हम औद्योगिक क्रान्ति की बात करते हैं तो यह मध्यम तबके के पढ़े-लिखे लोग, जो अभिन्न रूप से इस नई चेतना के साथ जुड़े हुये हैं। ऐसा इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था। यह भी एक विचारणीय विषय है कि औद्योगिक क्रान्ति से पहले का जो मानव-विकास का युग रहा है, उसमें जो बुद्धिमान लोग रहे हैं और औद्योगिक क्रान्ति के युग में जो बुद्धिमान विद्वान पैदा हुये हैं, उनमें क्या अन्तर है? उन्होंने क्या भूमिका अदा की है? मैं समझता हूँ कि जो पुनर्जागरण पैदा हुआ, जो एक नई आशा का संचार हुआ, जो नये विचार पैदा हुये – समाज के बारे में, समानता के बारे में, प्राकृतिक शक्तियों को अपने नियन्त्रण में लाने, सामाजिक शक्तियों पर विजय पाने, कि ये जो आशायें पैदा हुयीं इससे बहुत महत्वपूर्ण किस्म की खोजें हुयीं और इनसे मानव-मस्तिष्क का विकास, मानव-चेतना का विकास इससे पहले उतना कभी नहीं हुआ था, जितना औद्योगिक क्रान्ति के दौरान हुआ। और इसका वाहक था – मध्यम वर्ग। इस मध्यम वर्ग की खासियत यह है, उस के साथ एक फायदा यह है कि वह ज्ञान के संसाधनों के नज़दीक है। इस पर गहन रूप से विचार करने की ज़रूरत है। जब हम मध्यम वर्ग के एक हिस्से को बुद्धिजीवी वर्ग कहते हैं, इनन्टेलिजेन्सिया, जो ज्ञान के स्रोतों, उन संसाधनों के नज़दीक है, यह उनका इस्तेमाल करता है, जो समाज के अन्य वर्ग नहीं कर पाते हैं, दूर हैं। पूँजीपति वर्ग उत्पादन में लगा हुआ है, पूँजी कमाने में लगा हुआ है और उसके लिये ज्ञान का महत्व उतनी ही दूर तक है, जिससे कि उत्पादन हो, कारखाने लगें, यातायात के साधनों का प्रचार-प्रसार हो, उसी हद तक वह विज्ञान का इस्तेमाल करता है। अन्यथा उसे उतनी दिलचस्पी नहीं भी हो सकती है और हो भी सकती है।
वैसे मार्क्स ने मेनिफेस्टो में पूँजीपति वर्ग को अपने ज़माने में सामन्तवाद के साथ खड़ा करते हुये कहा था कि यह एक क्रान्तिकारी वर्ग है, जो निरन्तर उत्पादन के साधनों में नवीनीकरण लाकर समाज का क्रान्तिकारी आधार तैयार करता है। और समाज का नया आधार तैयार करते हुये शोषण के नये स्वरूपों को जन्म देता है। दूसरी ओर मज़दूर वर्ग मेहनत करने में लगा हुआ है, किसान मेहनत करने में लगा हुआ है और अपनी जीविका अर्जन करने में, अपनी श्रमशक्ति बेचने में, मेहनत बेचने में लगा हुआ है। इसलिये मध्यम वर्ग की भूमिका बढ़ जाती है। क्योंकि मध्यम वर्ग ज्ञान के, उत्पादन के, संस्कृति के, साहित्य के उन स्रोतों के साथ काम करता है, जो सामाजिक विकास का परिणाम होते हैं। फैक्ट्री में क्या होता है, उसका अध्ययन; खेती में क्या होता है, उसके परिणामों का अध्ययन; विज्ञान में क्या होता है, उसके परिणामों का अध्ययन; राज्य क्या है, राजनीति क्या है, राजनीतिक क्रान्तियाँ कैसी होनी चाहिये या राजनीतिक परिवर्तन कैसे होने चाहिये; जनवादी मूल्य या जनवादी संरचनायें कायम होनी चाहिये कि नहीं होनी चाहिये – इस पर मध्यम वर्ग ने कुछ एब्स्ट्रेक्ट थिंकिंग की। इसलिये बुद्धिजीवियों का कार्य हमेशा ही रहा है, खासकर आधुनिक युग में, कि वह जो राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक घटनायें होती हैं, उस का सामान्यीकरण करते हैं, उनसे जनरलाइज़्ड नतीजे निकालते हैं। फ्रांसीसी क्रान्ति नहीं होती, अगर वॉल्टेयर और रूसो के विचार क्रान्तिकारियों के बीच प्रसारित नहीं होते। रूसी क्रान्ति नहीं होती, अगर लेनिन के विचार, या अन्य प्रकार के क्रान्तिकारी विचार या मार्क्स के विचार जनता के बीच नहीं फैलते। और हम सिर्फ मार्क्स और लेनिन का ही नाम न लें, बल्कि इतिहास में ऐसे महान बुद्धिजीवी, ऐसे महान विचारक पैदा हुये हैं, जिन्होंने हमारे मानस को, हमारी चेतना को तैयार किया है। आज हम उसी की पैदाइश हैं। कार्ल ट्रात्स्की, डेविड रिकार्डो,बर्नस्टीड, रोज़ा लक्ज़मबर्ग, ब्रिटिश पार्लियामेंटरी सिस्टम, इससे सम्बंधित जो एक पूरी विचारों की व्यवस्था है; आधुनिक दर्शन, जिसे भौतिकवाद और आदर्शवाद के आधार पर श्रेणीबद्ध किया जाता है। और अर्थशास्त्र से सम्बंधित सिद्धान्त – आश्चर्य और कमाल की घटनायें हैं कि अर्थशास्त्र जैसा विषय, जो पहले अत्यन्त ही सरल हुआ करता था, पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के साथ, उस उत्पादन पद्धति का एक एक तन्तु वह उजागर करके रखता है, जिससे कि हम पूरी अर्थव्यवस्था को स्पष्ट रूप से देख पाते हैं, यह बुद्धिजीवियों का काम है। या अर्थशास्त्रियों ने ये महान काम इतिहास में किये हैं। समाजशास्त्रियों ने हमें समाज के बारे में बहुत कुछ बताया है। यह मंच मुख्य रूप से संस्कृति और लेखन का मंच है, सांस्कृतिक और साहित्यिक हस्तियाँ इतिहास में किसी के पीछे नहीं रही हैं। मैक्सिम गोर्की,विक्टर ह्यूगो, दोस्तोव्स्की जैसी महान हस्तियों ने, ब्रिटिश लिटरेचर, फ्रेंच लिटरेचर, रूसी लिटरेचर ने खुद हमारे देश में भी पूरी की पूरी पीढ़ियों को तैयार किया है। इसलिये मैं कहना चाहूँगा कि बुद्धिजीवी समाज की चेतना का निर्माण करता है, समाज की चेतना को आवाज़ देता है। लेकिन वह आवाज़ देता है – सामान्यीकृत, जनरलाइज़ कन्सेप्शन्स के आधार पर; सामान्यीकृत प्रस्थापनाओं के आधार पर, यहाँ बुद्धिजीवी तबका बाकी लोगों से अलग है।
बहुत सारे लोग यह कहते हुये पाए जाते हैं कि ये बुद्धिजीवी है, मध्यम वर्ग के लोग हैं, पढ़े-लिखे लोग हैं, इनका जनता से कोई सरोकार नहीं है। मैं इस से थोड़ा मतभेद रखता हूँ। जनता से सरोकार तो होना चाहिये, इसमें कोई दो राय नहीं है। लेकिन जनता से सरोकार किस रूप में होना चाहिये? मसलन, मार्क्स क्या थे? मार्क्स का जनता से सरोकार किस रूप में था? मार्क्स या वेबर या स्पेंसर या रॉबर्ट ओवेन या हीगेल या ग्राम्शी – इनका जनता से गहरा सरोकार था। मसलन मार्क्स का ही उदाहरण ले लें। और अगर मैं मार्क्स का उदाहरण ले रहा हूँ तो अन्य सभी बुद्धिजीवियों का उदाहरण भी ले रहा हूँ कि उन्होंने बहुत अध्ययन किया। मेरा ख्याल है, उन्होंने ज़्यादा समय मज़दूर बस्तियों में बिताने की बजाय पुस्तकालयों में जाकर समय बिताया – किताबों के बीच। लेकिन लाइब्रेरी में किताबों के बीच समय बिताते हुये उन्होंने जनता नामक संरचना, जनसमूह, समाज और प्रकृति के बारे में जो अमूर्त विचार थे, जितना अच्छा मार्क्स ने प्रकट किया है, उतना अच्छा और किसी ने नहीं किया है। और कार्ल मार्क्स इसीलिये युग पुरुष कहलाते हैं क्योंकि उनके विचार में पूरे युग का सार – द एसेन्स ऑफ दि एज – को उन्होंने पकड़ा, समझा और प्रकट किया। मज़दूर वर्ग पहले भी संघर्षशील था लेकिन मार्क्स के सिद्धान्तों ने या अन्य सिद्धान्तकारों के सिद्धान्तों ने संघर्षशील जनता को नये वैचारिक हथियार प्रदान किये। और मैं समझता हूँ कि बुद्धिजीवियों का यह सबसे बड़ा कर्तव्य है। बुद्धिजीवी का यह कर्तव्य हो सकता है, होना चाहिये कि वह झण्डे लेकर जुलूस में शामिल हो, और नारे लगाये 'इन्कलाब ज़िन्दाबाद' के, लेकिन मैं यह नहीं समझता हूँ कि इन्कलाब जिन्दाबाद का नारा लगा देने से ही बुद्धिजीवी क्रान्तिकारी हो जाता है। क्रान्ति की परिभाषा ये है – औद्योगिक क्रान्ति ने जो सारतत्व हमारे सामने प्रस्तुत किया कि क्या हम परिवर्तन को समझ रहे हैं! समाज एक परिवर्तनशील ढाँचा है, प्रवाह है। और प्रकृति भी एक परिवर्तनशील प्रवाह है, जिसके विकास के अपने नियम हैं, जिसकी खोज मार्क्स या डार्विन या न्यूटन या एडम स्मिथ ने की और जब उन्होंने की तो इनसे मज़दूरों को, किसानों को मेहनतकशों को परिवर्तन के हथियार मिले। इसलिये सामाजिक और प्राकृतिक परिवर्तन जब सिद्धान्त का रूप धारण करता है, तो वह एक बहुत बड़ी परिवर्तनकारी शक्ति बन जाता है। और उसी के बाद हम देखते हैं कि वास्तविक रूप में, वास्तविक अर्थों में क्रान्तिकारी, परिवर्तनकारी मेहनतकश आन्दोलन पैदा होता है। मेहनतकशों का आन्दोलन पहले भी था, लेकिन ये उन्नीसवीं सदी में ही क्यों क्रान्तिकारी आन्दोलन बना? इसलिये, क्योंकि एक ऐसा वर्ग पैदा हुआ, जिसकी स्थिति उत्पादन में क्रान्तिकारी थी। यह खोज मार्क्स की थी, जो उन्होंने विकसित की ब्रिटिश राजनीतिक अर्थव्यवस्था से। ब्रिटिश साहित्य या फ्रेंच साहित्य इस बात को प्रतिबिम्बित करता है कि कैसे मनी-कमोडिटी रिलेशन्स, वस्तु-मुद्रा विनिमय, दूसरे शब्दों में आर्थिक सम्बंध – मनुष्यों के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक, धार्मिक सम्बंधों को तय करते हैं। अल्टीमेट एनालिसिस! आखिरकार। यह उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के बुद्धिजीवियों की बहुत बड़ी खोज थी। दोस्तोव्स्की ने एक जगह लिखा है, बहुत इंटरेस्टिंग है – 'नोट्स फ्रॉम द प्रिज़न हाउस' में उन्होंने लिखा है कि एक कैदी भाग रहा है, भागने की तैयारी कर रहा है साइबेरिया से, कैम्प से। वह पैसे जमा करता है। उनका कमेंट है, ''मनी इज़ मिंटेट फ्रीडम'' – ''सिक्का मुद्रा के रूप में ढाली गयी आज़ादी है।'' कितने गहरे रूप में पूँजीवादी युग में मुक्ति, व्यक्ति और वर्ग की आज़ादी को सिर्फ एक लाइन में फियोदोर दोस्तोव्स्की ने अपनी किताब में प्रदर्शित किया है।
जारी…
इप्टानामा से साभार
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