Wednesday, 12 June 2013 09:58 |
अरविंद मोहन यों प्रदेशों में भाजपा कई बार टूट चुकी है- कर्नाटक का उदाहरण सबसे नया है। पर यह भी सही है कि भाजपा (और कांग्रेस से भी) से जो बाहर गया बहुत सफल नहीं हो पाया है। लालकृष्ण आडवाणी कर्नाटक के लिंगायत नेता येदियुरप्पा जैसी भूमिका में आ जाएंगे यह अटकल लगाने वाले भी थे। पर आडवाणी ने कदम पीछे खींचे तो इसमें ज्यादा हैरत की बात नहीं है। इतना जरूर है कि अपने इस्तीफे से उन्होंने भाजपा के मौजूदा नेतृत्व और नरेंद्र मोदी की 'सत्ता' को काफी हद तक ध्वस्त कर दिया है। उनके इस्तीफे ने अव्वल तो मोदी के समर्थन में आ गई पार्टी को शीर्षासन करा दिया। फिर जद (एकी) को सांस लेने और मजबूती से मोदी का जवाब देने का अवसर दे दिया है, वरना मोदी पर नाक-भौं सिकोड़ने वाले नीतीश और उनकी पार्टी को भाजपा ने ठीक से घेर लिया था। इसमें महाराजगंज उपचुनाव के नतीजे ने भी अपनी भूमिका निभाई थी। पर आडवाणी का इस्तीफा आते ही जद (एकी) नेताओं के तेवर तीखे बदल गए। शरद यादव ने राजग के अस्तित्व पर ही सवाल उठा दिया। तीसरी चीज यह हुई है और आगे भी होगी कि एक बार मोदी की चमक उतरने और उनके इकबाल को इतनी साफ चुनौती मिलने के बाद उन प्रदेशों के क्षत्रप भी मजे से उनके 'डिक्टेट' को लेने से इनकार कर देंगे, जहां अगले कुछ महीनों में चुनाव होने वाले हैं। वसुंधरा राजे की कार्यशैली पिछली दफा राजनाथ सिंह के लिए ही सबसे बड़ा सिरदर्द बनी थी और उन्होंने गडकरी को भी कटारिया की यात्रा के सवाल पर पानी पिला दिया था। और अगर कहीं राजग को बचाने को भाजपा ने प्राथमिकता दी और आडवाणी की राजी-खुशी से मायने रखने लगी तो मोदी का गुब्बारा पूरा फूलने के पहले ही फट जाएगा। मोदी और अभी के अधिकतर भाजपा नेता तो आडवाणी की ही 'रचना' हैं, सो उनके नाम पर आडवाणी के भड़कने को निजी कुंठा और अब भी सत्ता का मोह न छूटना बताने में संघ का हजार मुखों वाला दुष्प्रचार तंत्र पीछे नहीं रहेगा। उनके पछतावे और बार-बार की रथयात्रा की चर्चाएं पहले संघ परिवार की तरफ से आती रही हैं। आजकल ब्लॉग और सोशल मीडिया में यही चर्चा छाई हुई है। मान-मनौवल के बीच उनकी परवाह न करने और उनकी उपेक्षा करने जैसी चर्चाएं भी आने लगी हैं। और यह भी साफ दिखता है कि इस मान-मनौवल में आडवाणी के घर जुटने वाले लोग और हैं, राजनाथ सिंह के घर जुटने वाले और। बहुत कम लोग हैं, जो दोनों घरों पर आते-जाते दिखते हैं। बीच-बचाव में एस गुरुमूर्ति और राकेश सिन्हा जैसे 'बाहरी' लोग ही प्रमुख बने हैं। साफ है कि पार्टी में लकीरें खिंच चुकी हैं। इसमें रोज पाला बदलने वाले होंगे, पर उनसे पंचायत नहीं कराई जा सकती। जब तक दोनों पक्षों का भरोसा न हो, पंच का मतलब ही नहीं बनता। आज जद (एकी) और शिवसेना जैसे सहयोगी भी पंचायत करने की स्थिति में नहीं हैं। आडवाणी की राजनीति से कभी भी सहमति न रखने वाले इस लेखक जैसे काफी सारे लोगों का मानना है कि दुष्प्रचार अपनी जगह है, पर जो बातें आडवाणी ने अपने इस्तीफे में उठाई हैं उनको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। भाजपा अपने राजनीतिक दर्शन और 'पार्टी विद ए डिफरेंस' की स्थिति से नीचे गई है और हर नेता अपने-अपने निजी एजेंडे से काम कर रहा है। इस काम में नरेंद्र मोदी अव्वल हैं तो राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी और संघ के शीर्ष वाले लोग भी अलग नहीं दिखते। सब कुछ जान कर ये सभी छोटे-छोटे स्वार्थ के लिए उनका साथ देने लगे हों तो चाहे आडवाणी हों या कोई और, अगर वह कुछ बुनियादी सच्चाइयों की तरफ ध्यान दिलाता है तो इसमें कुछ गलत नहीं है। आज कांग्रेस और भाजपा में अर्थनीति, विदेश नीति और शासन के तरीके में क्या फर्क रह गया है? स्वदेशी को छोड़ कर कांग्रेस से भी ज्यादा विदेशपरस्त अर्थनीति और अमेरिकापरस्त विदेश नीति अपनाने के बाद अब अगर राजनाथ सिंह को स्वदेशी और सर्वोदय की याद आती है तो यह एक दिखावे से अलग क्या हो सकता है? मोदी अस्सी फीसद रोजगार देने के झूठ पर तालियां बटोरने लगें तो यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है। और सबसे बड़ी बात यह है कि अगर मोदी को आगे करने और इस शैली में आगे करने से विपक्षी अभियान कमजोर होता है, भ्रष्टाचार से दागदार यूपीए को फिर से शासन में लौटने का अवसर मिल जाता है तो यह विडंबना ही होगी। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/46752-2013-06-12-04-30-10 |
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Wednesday, June 12, 2013
भाजपा का मूसलयुद्ध
भाजपा का मूसलयुद्ध
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