निधन : सधुक्कड़ी का कलाकारः गणेश पाईन
Author: समयांतर डैस्क Edition : April 2013
(11 जून 1937-12 मार्च 2013)
चित्रकार गणेश पाईन का सारा जीवन कला को समर्पित रहा और वह लगभग साठ साल तक भारतीय कलाचर्चा में रहे। देश की प्रसिद्ध सीमा गैलरी से लेकर अंतरराष्ट्रीय संग्राहक सथबी व क्रिस्टी तक की प्रदर्शनियों में उनको प्रतिनिधित्व मिला। वह भारतीय कला के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के हस्ताक्षर थे। सुप्रसिद्ध चित्रकार मकबूल फिदा हुसेन ने एक बार उनके बारे में कहा था कि 'बंगाल में केवल एक ही कलाकार है'।
इस कलाकार की रूपकल्प अवतारण की एक बानगी उनके बनाए 1951 के कुछ व्यक्ति चित्रों में देखी जा सकती है। चौदह वर्ष की उम्र में बनाए परिवार व मित्रों के कुछ रंगीन यथार्थवादी शबीहों में रैखीय शक्ति व रूप की गजब की पकड़ है। अत: उनके कलाकर्म की शुरुआत बड़े बौद्धिक जगत में न होकर दादी-नानी की कहानियों, मिथ व श्रुत साहित्य से शुरू कर और फिर दुनिया को गुन-पढ़ कर उन्होंने अप्राकृत रूपों की पूरी दुनिया रची।
गणेश पाईन का वास्ता बंगला स्कूल शैली से था। बंगला स्कूल की समझ राष्ट्रवादी थी व संस्कृति की उन्नीसवीं सदी की राष्ट्रवादी चेतना में उसकी जड़ें थीं, जिसने मिथक व इतिहास में अपनी जड़ें तलाशी थीं। यह संस्कृति की स्वदेशी समझ थी जिसका उद्देश्य स्वशासन था। अंग्रेज आलोचक हैवेल की अकादमिकता से किंचित विमुख। इस शैली में तेल रंग की बजाए जलरंग को प्रमुखता है। इसमें उसी तरह की अलंकरण समृद्धियां हैं जिनके दर्शन अजंता, ऐलोरा से लेकर प्राचीन भारतीय मूर्तिशिल्पों में होते हैं। बंगला शैली ने प्रतीकों, आद्यरूपों के कई शैलीगत ढंग रचे व कला के कई उपादानों में इन्हीं के अलंकरण की अनेकानेक सरणियां हैं। गणेश पाईन के चित्रों के रूप-विन्यास में भी इसी गांभीर्य का विरूपण-निरूपण है तथा उन के चित्रों के रूपारोप में भी जलरंग ही है। बंगाल जैसे तटीय व आद्र्रीय प्रदेश में वॉश, टेंपेरा व ग्वाश माध्यम में काम करने का अपना ही मजा है—चित्रक्षेत्र में देर तक पानी के प्रभाव को देखना, उसे दूर तक ले जाना व उसको बनाए रखते हुए उसके प्रभाव से खेलना, पाईन के प्रभाववादी चित्रों में देखा जा सकता है।
द्वितीय महायुद्ध के समय के मानव जनित दुर्भिक्ष की यातना, संत्रास व डर की यादें गोया उनके जेहन में स्थाई हो गई थीं — कंकाल सरीखी आकृतियां उनके उपचेतन से मानो यूं ही बह निकलती थीं। पिता की असामयिक मृत्यु व सांप्रदायिक दंगों की विभीषिका ने तो इस दुख को और भी सघन कर दिया। विडंबनाओं के इन्हीं रूपों के गणेश पाईन सच्चे द्रष्टा-स्रष्टा बने व इसी बोध की अनगिनत ध्वनियां उनके चित्रों में संपे्रषित हुईं। वस्तुत: पाईन के चित्र समाज सापेक्ष हैं—निदान की युक्ति के साथ। और साथ में हैकलम का जोश—परत-दर-परत निर्मिति, त्रिआयामी प्रभाव… एक दृढ़ता, शक्तिमयता—मजबूती किंतु भाव-प्रवण। सूक्ष्म तूलिका घात के ये चित्र इस्पात के मूर्तिशिल्प की प्रतिकृति सरीखे हैं। दाना, खत व वृतुल आघात की श्रमसाध्य वृतना देखी जा सकती है इन चित्रों में। सच में रोलिंग, मॉड्यूलिंग व स्क्रैपिंग के अद्भुत रूपारोप हंै। इस विपुल सर्जना में सबसे प्रमुख हैं उनके रंग और रंगों की पूरी गरिमामयता। रंग को जीवन की तरह जीना और उन्हें जीवन देने की साधना है। स्याह रंग को जितनी गरिमा उन्होंने ही अन्यत्र न मिलेगी। यह उनका प्रथम रंग है व इसकी अनेकों छटाओं को उन्होंने बरतने का सलीका दिखाया। रूपक की तरह उसको रेखांकित किया। सच यह है कि एक ही धरातल पर गहरे से गहरे व उजास से उजास प्रभाव को बनाए रख पाना मुश्किल होता है।
गणेश पाईन की कला की पहचान उनके विद्यार्थी जीवन में ही सीमा आर्ट गैलरी की निदेशक राखी सरकार, विक्टर बनर्जी, प्रकाश केजरीवाल, असित पोद्दार, विवेक दास व प्रदीप राय सरीखे कला पारखियों, कला संग्राहकों व मर्मज्ञों द्वारा कर ली गई थी। साथ ही वे सोमनाथ, चित्तप्रसाद बंदोपाध्याय, जोगेन चौधरी व लाल प्रसाद शॉ जैसे होनहार व प्रगतिशील चेतना के कलाकारों के साथ गहरे संवाद में रहे। उनकी कला अपने समय व स्थान के प्रश्नों और प्राचीन से अर्वाचीन कला-कौशल के औजारों से लबरेज है। 'बाउल', 'चांद नीला पीर', 'म्यूजीशियन', 'सारंगी', 'वैष्णवी' व 'स्वर' जैसे शीर्ष के चित्र हैं जिनकी कथावस्तु, सौंदर्य दर्शन व कला पद्धति में नानक, कबीर, रैदास, रहीम, दादु की-सी रंगत है। पूरी जिंदगी ढीला गेरुआ कुरता व धोती पहने यह कलाकार अपने इतिहास व परिवेश को साधता रहा। उनकी चित्रभाषा एक सधुक्कड़ी कला का नमूना है। वास्तव में गणेश पाईन भारतीय संत कला के प्रणेता थे। उनके 'दुशाला', 'अंबा', 'एकलव्य' व 'युयुत्सु' नामक चित्रों में इसी तरह के गहरे दर्शन, रंगों के अनूठे प्रयोग, विचित्र व कल्पनात्मक शैलीगत प्रभाव देखने को मिलते हैं।
आठवें दशक में विलेज आर्ट गैलरी की निदेशक डाली नारंग ने दिल्ली में उनका एकल शो किया व उन्हीं दिनों जे. स्वामीनाथन के निर्देशन में धूमीमल आर्ट गैलरी में उनको प्रतिनिधित्व दिया। इसी प्रकार 1962-65 तक के बने 400 रेखांकनों व स्केचों को मुकुंद लाठ, प्रकाश केजरीवाल व अमेरिकी चेस्टर हेरविट्ज सरीखे कला संग्राहकों ने अपने संग्रहों में शामिल किया। अपने विद्यार्थी काल में सीमा आर्ट गैलरी की एक प्रदर्शनी में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने उनके चित्र 'मेरी झांसी नहीं दूंगी' को सराहा व उनको उस प्रदर्शनी का प्रथम पुरस्कार दिया। एक कलाकार के लिए सथबी व क्रीस्टी जैसी एजेंसी के संपर्क में आना भारतीय कला जगत के हिसाब से एक बड़ी परिघटना होती है। 90 के दशक से उनके चित्रों को कई बार इन विश्वविख्यात एजेंसियों ने प्रतिनिधित्व दिया, साथ ही अनेकों जानी-मानी देशी-विदेशी गैलरियों ने उनके काम को अपने शो में स्थान दिया।
उनके चित्रों में रेंब्रा जैसी चमक व पॉलकली जैसी 'मेटाफिजिकलिटी' है। मातिस की तरह वह अपने कर्मक्षेत्र को छोड़कर नहीं गए। वह गहरी एकाग्रता व निश्छल कला परिणति के कलाकार थे। शक्ति चट्टोपाध्याय ने उनके बारे में ठीक ही लिखा है, "यह एक सतत अंतर्लोकवासी के अविच्छिन्न अभिज्ञान का काव्यकूट है।
- सुल्तान त्यागी
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