मौकापरस्ती, धोखा और बेशर्मी जैसे शब्द भी राजीव शुक्ला से शर्मा जाएंगे
राजीव शुक्ला का चरित्रनामा वरिष्ठ पत्रकार दयानंद पांडेय ने पहले भी लिखा था. वो अगर ठीक से पढ़ लिया गया होता तो बरास्ताआईपीएल कांग्रेस कुछ बदनामी से बच सकती थी.
दयानंद पांडेय
इंडिया टुडे में एक स्टोरी छपी जिसमें एक जगह लिखा था कि राजीव शुक्ला अमर सिंह से भी बडे पावर ब्रोकर हैं : सफलता का अब एक और नाम है मौकापरस्ती. पर जब राजीव शुक्ला का नाम आता है तो यह मौकापरस्ती शब्द भी शर्मा जाता है. तब और जब उसमें एक और तत्व जुड़ जाता है धोखा.
और अब देखिए राजीव शुक्ला का नाम आते ही धोखा शब्द भी शर्माने लगा. बेशर्मी शब्द भी उनसे शर्मा-शर्मा जाता है. ऐसे बहुतेरे शब्द हैं जो राजीव शुक्ला नाम आते ही पानी मांगने लग जाते हैं. रही बात निष्ठा, आस्था जैसे शब्दों की तो यह शब्द उनके शब्दकोष से नदारद हैं. राजीव शुक्ला कभी पत्रकार भी थे. तब यह पत्रकारिता शब्द भी उनसे शर्माता था. बेतरह शर्माता था. लेकिन राजीव शुक्ला पर तब सफलता के नशे में सीढी दर सीढी चढते जाने की धुन सवार थी. उन्हें इन सब चीज़ों की हरगिज परवाह नहीं थी कि उनके बारे में कौन क्या कह रहा है. वह तो एक सीढी तलाशते हैं और चढ जाते हैं ऊपर. और फिर उस सीढी को तोड़ कर कहिए या छोड़ कर आगे बढ जाते हैं.
यह उनकी सुविधा और मूड पर है कि वह तोड़ते हैं कि छोड़ देते हैं. कानपुर में एक पत्रकार हैं दिलीप शुक्ला. वरिष्ठ पत्रकार हैं. सत्तर के दशक में जब कानपुर से आज शुरू हुआ तो वह विनोद शुक्ला की टीम के 'योद्धा' थे. कह सकते हैं सफल पत्रकार. पर विनोद शुक्ला की सोहबत और मदिरापान के व्यसन में वह जय हो गए हैं. खैर, तबके समय रात की ड्यूटी में जब वह होते तो राजीव शुक्ला दिलीप शुक्ला के लिए टिफिन में खाना लेकर आते थे. नेकर पहनने की उम्र थी तब राजीव शुक्ला की. नेकर पहन कर ही आते थे. ज़िक्र ज़रूरी है कि राजीव शुक्ला दिलीप शुक्ला के अनुज हैं.
खैर, कह सकते हैं कि अखबार से राजीव शुक्ला का बचपन से ही वास्ता पड़ गया. बाद के दिनों में वह जब बालिग हुए तो कानपुर में ही दैनिक जागरण में आ गए. जल्दी ही नरेंद्र मोहन ने उनकी 'प्रतिभा' को पहचान लिया. और राजीव शुक्ला को लखनऊ ब्यूरो में रख दिया. राजीव शुक्ला ने अपना हुनर दिखाया और तबके उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के खास बन गए. उनके साथ इधर-उधर डोलने लगे. उनसे 'काम-धाम' भी करवाने लगे. जल्दी ही लखनऊ में राजीव शुक्ला की पहचान एक अच्छे लायजनर में शुमार हो गई.
विश्वनाथ प्रताप सिंह जब मुख्यमंत्री पद से विदा हुए तब भी सत्ता के गलियारे में राजीव शुक्ला की धमक बनी रही. लेकिन अब राजीव शुक्ला को लखनऊ का आकाश छोटा लगने लगा. वह दिल्ली के लिए पेंग मारने लगे. और जब 1983 में जनसत्ता छपा तो राजीव शुक्ला भी पहली टीम में थे. बाकायदा इम्तहान पास करके. पर चयन के बाद प्रभाष जोशी तक राजीव शुक्ला की प्रसिद्धि पहुंची. उन्होंने राजीव शुक्ला का चयन तो नहीं रद किया पर उन्हें ब्यूरो में नहीं रखा. डेस्क पर कर दिया. पर राजीव शुक्ला ने डेस्क का काम भी बढिया ढंग से संभाला. और प्रभाष जोशी को लगातार प्रसन्न करने की कोशिश में लगे रहे.
कानपुर में प्रभाष जोशी की ससुराल है. उन संपर्कों से भी दबाव बनवाया राजीव ने. पर सब बेकार. क्योंकि प्रभाष जोशी कुछ और ही मिट्टी के बने थे. तो भी राजीव शुक्ला ने हार नहीं मानी. लगे रहे. जनसत्ता ज्वाइन करने के बाद तमाम सहयोगी किराए का सस्ता घर खोजते फिर रहे थे. और ज़्यादातर लोग जमुनापार ही में घर पा पाए. प्रभाष जोशी खुद जमुनापार निर्माण विहार में एक छोटे से मकान में रहते थे. पर राजीव शुक्ला ने साऊथ डेल्ही में एक बढिया मकान लिया. न सिर्फ़ बढिया मकान लिया बढिया फ़र्नीचर भी मंगवा लिए.
हां तो राजीव शुक्ला की जनसत्ता के सहयोगियों में चर्चा थी. गुपचुप. वैसे भी तब जनसत्ता में कानपुर लाबी और मध्य प्रदेश लाबी हावी थी. कई फ़ैक्टर थे तब. दो लाबी और थी. बनवारी लाबी और दूसरी हरिशंकर व्यास लाबी. पर इन सब पर भारी थी कानपुर लाबी. एक तो जोशी जी की ससुराल तिस पर कानपुर के लोगों की संख्या भी सर्वाधिक थी. आक्रामक भी. कानपुर के ही देवप्रिय अवस्थी तो तबके कार्यकारी समाचार संपादक गोपाल मिश्र की पैंट हरदम उतारते रहते थे. फ़ुल नंगई के साथ. खैर बात राजीव शुक्ला की हो रही थी. अपने मन की न होने के बावजूद राजीव शुक्ला ने कभी बगावती तेवर नहीं दिखाए. लगातार डिप्लोमेसी से अपना काम चलाते रहे. सबसे हंसी मजाक भी. दोनों हथेलियां मलते हुए. ऐसे जैसे हथेली न मल रहे हों, गोया ताश के पत्ते फ़ेंट रहे हों. लगभग वैसे ही जैसे कई सारे रामदेव के अनुयायी नाखून से नाखून रगड़ते मिलते है. क्या तो बाल जल्दी सफेद नहीं होंगे.
राजीव शुक्ला उन दिनों लतीफ़े भी खूब सुनाते और सच्चे झूठे किस्से भी. पूरा रस ले-ले कर. सोहनलाल द्विवेदी उनके प्रिय शगल थे. उनके ताबड़तोड दो किस्से वह सुनाते थे. ठेंठ कनपुरिया अंदाज़ में. आप भी सुनिए. उन दिनों सोहनलाल द्विवेदी राष्ट्र कवि कहे जाते थे. एक कवि सम्मेलन और मुशायरा में वह ज़रा नहीं पूरी देरी से पहुंचे. इतनी देरी हो गई थी कि अध्यक्षता कर रहे फ़िराक साहब अपना कलाम पढ रहे थे. अचानक सोहनलाल द्विवेदी अपने चेलों चपाटों के साथ पहुंचे. अफरा-तफरी मच गई. इतनी कि फ़िराक साहब ने अपना कलाम पढना रोक दिया.
और जब सोहनलाल द्विवेदी मसनद लगा कर तिरछा हो कर बैठ गए तब फ़िराक साहब बोले कि अभी क्या सुना रहा था, मैं तो भूल गया. पर चलिए अब सोहनलाल जी आए हैं तो इन्हीं पर कुछ सुन लीजिए. और उन्होंने शुरू किया- सोहनलाल द्विवेदी आए, सोहनलाल द्विवेदी आए. और यही मिसरा पूरे आरोह-अवरोह के साथ पांच-छ बार फ़िराक साहब ने दुहराया. और जब वह कहते सोहनलाल द्विवेदी आए तो सोहनलाल जी और चौडे़ हो कर बैठ जाते. सीना और फुलाते, मारे गुरूर के और तिरछे हो जाते. मसनद पर और फैल जाते. अंतत: फ़िराक साहब ने शेर पूरा किया- सोहनलाल द्विवेदी आए, एतना बड़ा-बड़ा चूतड लाए. अब सोहनलाल द्विवेदी का चेहरा फक्क. मुशायरा समाप्त.
सोहनलाल द्विवेदी को लेकर वह एक और वाकया सुनाते. हुआ यह कि एक बार जागरण ने दिल्ली में अपने एक संवाददाता को नौकरी से निकाल दिया. उन दिनों खबर भेजने के लिए टेलीग्राफिक अथारिटी का इस्तेमाल किया जाता था. वह उस संवाददाता ने वापस नहीं किया. और नौकरी से निकाले जाने के कुछ दिन बाद उसने सोहनलाल द्विवेदी के निधन की एक डिटेल पर फर्जी खबर लिखी और देर रात उसी टेलीग्राफिक अथारिटी से जागरण कानपुर को भेज दिया. जागरण में वह खबर लीड बन कर पहले पन्ने पर छ्प गई.
तब कानपुर में आकाशवाणी के संवाददाता और आगे की चीज़ थे. उन्होंने सुबह पांच बजे अखबार में छपी खबर देखी और फ़ौरन अपने दिल्ली आफ़िस खबर भेज दी. सुबह छ बजे की बुलेटिन में सोहनलाल द्विवेदी के निधन की खबर प्रसारित हो गई. सुबह आठ बजे की बुलेटिन में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री से लगायत देश भर से शोक संदेश का तांता लग गया. अब सोहनलाल द्विवेदी जीवित और थे कानपुर में ही थे. उनके घर लोग आने लगे. अंतत: उन्होंने जागरण अखबार के सामने धरना दे दिया.
ऐसे तमाम किस्से सुनते-सुनाते राजीव शुक्ला जनसत्ता डेस्क पर अपना टाइम पास करते रहे, जोशी जी को मनाते रहे. एक बार किसी ने उनसे कभी चंठई की तो वह उसे तरेरते हुए बोले, 'होश में रहा करो. और यह मत भूलो कि मैं कभी तुम्हें नौकरी भी दे सकता हूं.' वह सहयोगी तब भी राजीव की हंसी उड़ा बैठा. बोला, 'तुम्हारे जैसे छत्तीस ठो रोज मिलते हैं.' बहरहाल जनसत्ता का जब मेरठ ब्यूरो खुला तब राजीव मेरठ चले गए. रिपोर्टिंग करने. और वहां से भी एक से एक खबरें फ़ाइल करने लगे. मुझे याद है तब कमलापति त्रिपाठी का एक बड़ा सा इंटरव्यू उन्होंने मेरठ से ही फ़ाइल किया था, जो खासा चर्चित भी हुआ था. लेकिन राजीव शुक्ला ने मेरठ में ज़्यादा दिन नहीं गुज़ारे.
फ़रवरी, 1985 में पत्रकारिता में काफी बदलाव हुआ. सुरेंद्र प्रताप सिंह रविवार कलकत्ता छोड़ कर नवभारत टाइम्स दिल्ली आ गए. उदयन शर्मा रविवार के संपादक बन गए. उन्होंने संतोष भारतीय को लखनऊ से बुला कर अपनी जगह ब्यूरो चीफ़ बना दिया. संतोष भारतीय की जगह लखनऊ में शैलेश को प्रमुख संवाददाता बना दिया. और इसी उलटफेर में राजीव शुक्ला भी मेरठ से दिल्ली आ गए रविवार में प्रमुख संवाददाता बन कर. मैं भी इसी फ़रवरी, 1985 में दिल्ली छोड कर स्वतंत्र भारत लखनऊ आ गया था.
राजीव शुक्ला मुझे उसी फ़रवरी में लखनऊ में मिले तो कहने लगे, 'यह 1985 का फ़रवरी महीना हिंदी पत्रकारिता के लिए ऐतिहासिक है.' उन्होंने जोडा, ' यह मैं नहीं कह रहा, एसपी कहते हैं.' खैर, अब राजीव शुक्ला थे और उनके पास दिल्ली का आकाश था उडने के लिए. इस बीच राजनीतिक परिवर्तन भी हो चुका था. इंदिरा गांधी की हत्या हो चुकी थी. दिल्ली सहित देश में दंगे हो चुके थे. राजीव गांधी प्रधानमंत्री बन चुके थे और कि अमिताभ बच्चन भी बाल सखा राजीव गांधी की मदद में राजनीति में आ कर इलाहाबाद से सांसद हो चुके थे.
शुरू शुरू में तो सब कुछ ठीक रहा पर जल्दी ही इलाहाबाद की राजनीति में अमिताभ बच्चन और विश्वनाथ प्रताप सिंह आमने-सामने हो गए. बाद में बोफ़ोर्स भी आ गया. लपेटे में अमिताभ बच्चन भी आ चले. सांसद पद से उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया और राजनीति को प्रणाम किया. इसी बीच एक और घटना घटी. इधर उत्तर प्रदेश में मुलायम भी विश्वनाथ प्रताप सिंह से किसी बात पर खफ़ा हुए. और उनके डहि्या ट्र्स्ट में घपले की खबर लेकर दिल्ली के अखबारों में घूमने लगे. किसी ने भाव नहीं दिया तो उन्होंने लगभग साइक्लोस्टाईल करवा कर इसे सभी अखबारों और राजनीतिक गलियारों में भी बंटवा दिया. तब भी किसी ने इसे बहुत तरजीह नहीं दिया. पर अचानक रविवार के एक अंक में राजीव शुक्ला के नाम से डहि्या ट्र्स्ट पर कवर स्टोरी छपी मिली. लोग हैरान थे. कि यह राजीव शुक्ला तो विश्वनाथ प्रताप सिंह का बड़ा सगा, बड़ा खास था. फिर भी एक साइक्लोस्टाइल बंटे कागज को कवर स्टोरी लिख दिया?
बहरहाल, राजीव शुक्ला की 'सफलता' में रविवार की यह डहि्या ट्र्स्ट की कवर स्टोरी मील का पत्थर साबित हुई. नतीज़ा यह हुआ कि अमिताभ बच्चन को राजीव शुक्ला बड़े काम की चीज़ लगे. और अपने पास बुलवाया. जल्दी ही राजीव शुक्ला को उन्होंने राजीव गांधी से भी मिलवा दिया. कहते हैं कि राजीव गांधी ने ही अपनी मित्र अनुराधा प्रसाद से राजीव शुक्ला को मिलवाया. बाद में शादी भी करवा दी. इसके बाद राजीव शुक्ला ने जो उड़ान भरी वह लगातार जारी है. उन्हीं दिनों राजीव गांधी एक बार कानपुर आए तो खुली जीप में उन के साथ एक तरफ अनुराधा प्रसाद खडी थीं हाथ जोड़े तो दूसरी तरफ राजीव शुक्ला. बाकी नेता आगे-पीछे.
अब इसी से राजीव गांधी से राजीव शुक्ला और अनुराधा प्रसाद की करीबी जानी जा सकती है. उन दिनों एक बार शैलेष दिल्ली से लखनऊ आए. किसी बात पर बताने लगे कि कैबिनेट मिनिस्टर की भी कार प्राइम मिनिस्टर के घर के बाहर रोक दी जाती है. पर राजीव शुक्ला की कार सीधे प्राइम मिनिस्टर की पोर्च में रूकती है. तब सचमुच राजीव शुक्ला का जलवा था. पर व्यक्तिगत कंजूसी उनकी वैसी ही थी.
उन दिनों अमेठी में उपचुनाव हो रहा था. रविवार बंद हो चुका था. राजीव अब संडे में पोलिटिकल एडीटर थे. लखनऊ के हज़रतगंज में घूमते-घामते मिल गए. मोती महल रेस्टोरेंट की तरफ बढते हुए बोले, ' यहां दही बताशे बहुत अच्छे बनते हैं. चलो खिलाओ.' पेमेंट मुझ से ही करवाया.
खैर, मैंने पूछा कि, 'कब आए.?'
बोले, 'बस एयरपोर्ट से चला आ रहा हूं.'
मैंने पूछा, 'सामान कहां है?'
वह बोले, 'कोई सामान नहीं है.'
फिर मैंने पूछा, 'काम कैसे चलेगा? आखिर कपड़े-लत्ते, पेस्ट, ब्रश वगैरह.'
'अरे सब होटल में मिल जाता है. कंपनी पेमेंट कर देती है.'
'ओह!' कह कर फिर मैं चुप हो गया.
क्या कहता भला? फिर पूछा कि, 'इतनी अंगरेजी लिखने आती है कि संडे के लिए काम करने लगे?'
यह सवाल सुनने पर वह थोड़ा बिदके. पर बोले, 'हो जाता है काम. अरेंज हो जाता है.'
बात खत्म हो गई. कुछ समय बाद पता चला कि राजीव अंबानी के अखबार संडे आब्जर्वर में संपादक हो गए. एक बार दिल्ली गया तो बाराखंबा रोड के आफ़िस में उनसे मिला. वह मिले तो ठीक से पर व्यस्त बहुत दिखे. बाद में यह अखबार भी बंद हो गया. फिर न्यूज़ चैनलों का ज़माना आ गया. वह 'रूबरू' करने लगे. लायजनिंग जो पहले दबी ढंकी करते थे, खुल्लमखुल्ला करने लगे. अब वह पावर ब्रोकर कहलाने लगे. खेल गांव में तो वह पहले ही से रहते थे, अब 'खेल' करने भी लगे. अमर सिंह जैसे लोग उनसे पानी मांगने लगे. उन दिनों अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे.
इंडिया टुडे में एक स्टोरी छपी जिसमें एक जगह लिखा था कि राजीव शुक्ला अमर सिंह से भी बडे पावर ब्रोकर हैं. बताया गया था कि राजीव शुक्ला इतने बडे पावर ब्रोकर हैं कि अगर चाहें तो किसी को एक साथ अटल बिहारी वाजपेयी और सोनिया गांधी से मिलवा सकते हैं. वगैरह-वगैरह. मैंने इंडिया टुडे में एक मित्र जो जनसत्त्ता में काम कर चुके थे, से पूछा कि, 'राजीव शुक्ला के बारे में ऐसा आप लोगों ने छाप दिया. राजीव शुक्ला ने बुरा नहीं माना?' मित्र बोले, 'बुरा?' और उन्होंने जैसे जोड़ा, 'अरे उसने यह सब कह कर लिखवाया है.' मैं 'ओह!' कह कर रह गया.
राजीव की पावर ब्रोकरी का जहाज अब आसमान पूरे शबाब पर था. राजीव गांधी के निधन से थोड़ा ब्रेक ज़रूर लगा लेकिन जल्दी ही उन्होंने फिर से रफ़्तार पकड़ ली. आखिर सौ तालों की चाभी एक अनुराधा प्रसाद उनके पास थी. बाद के दिनों में सोनिया और अमिताभ के रिश्ते खराब हुए तो उन्होंने भी आस्था बदलने में देरी नहीं की. अमिताभ को लात मार कर खट शाहरूख खान को पकड़ लिया. इन दिनों बसपा के एक राज्यसभा सदस्य हैं नरेश अग्रवाल. मौकापरस्ती में राजीव शुक्ला से भी बीस कदम आगे. एक समय कांग्रेसी थे. पर भाजपा सरकार में साझीदार बनने के लिए कांग्रेस तोड़ कर नई पार्टी बना बैठे.
उन दिनों वह राजनाथ सिंह सरकार में ताकतवर मंत्री थे. ऊर्जा विभाग देखते थे. 'सेक्यूलर ताकतों' की पैरवी में लगे रहने वाले राजीव शुक्ला ने नरेश अग्रवाल को जाने क्या सुंघा दिया कि उन्होंने राज्यसभा के लिए तब हो रहे चुनाव में राजीव शुक्ला को अपना 'निर्दलीय' उम्मीदवार बना दिया. तब जबकि जीतने भर की संख्या में कुछ कमी थी उनके पास. पर भाजपा के कुछ वोट सरप्लस थे. वह वोट तो उन्हें मिले ही और भी जाने कहां-कहां से वोट मिल गए. सेक्यूलरिज़्म का दिन-रात पहाड़ा पढने वाले राजीव शुक्ला भाजपा के मिले वोटों की बदौलत रिकार्ड मतों से राज्यसभा के लिए चुन लिए गए. भाजपा प्रत्याशियों को भी उतना वोट नहीं मिला. अप्रत्याशित था यह.
सबने माना कि राजीव के लिए नरेश अग्रवाल ने पूरा ज़ोर लगा दिया. और यह देखिए कि उन्हीं नरेश अग्रवाल की पार्टी का सम्मेलन हरिद्वार में हो रहा था. राजीव शुक्ला भी गए थे. उन दिनों मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह से नरेश की ठनी हुई थी. बीच सम्मेलन में राजनाथ सिंह ने नरेश अग्रवाल को मंत्री पद से बर्खास्त कर दिया. यह खबर ज्यों राजीव शुक्ला को मिली, वह खट हरिद्वार से दिल्ली निकल गए. सिराज़ मेंहदी को साथ लेकर. नरेश अग्रवाल से मिलना या फ़ोन करना भी उन्हें तब अपराध लगा. ऐसे ही जाने कितनी कथाएं राजीव शुक्ला के जीवन में भरी पड़ी हैं कि अपनी सफलता की द्रौपदी पाने के लिए आस्था बदलने में उन्होंने क्षण भर की भी देरी नहीं की.
विश्वनाथ प्रताप सिंह, अमिताभ बच्चन, नरेश अग्रवाल मात्र कुछ पड़ाव हैं. ऐसे अनगिनत पड़ाव है उनके जीवन में. लिखा जाए तो पूरी किताब कम पड़ जाएगी. अब तो वह क्रिकेट के भी खेवनहार बरसों से बने बैठे हैं. भाजपा से लाख मतभेद हों पर क्रिकेट की राजनीति में वह अरूण जेटली के साथ हैं. जो वह कभी सहयोगियों से कहते थे कि नौकरी दूंगा. तो अब वह खुद अरबों रूपयों की कंपनी के सर्वेसर्वा हैं. न्यूज़ २४ वह चला ही रहे हैं. जाने किस-किस का पैसा वह वहां लगवाए बैठे हैं. मुझे तो हैरत थी कि अभी तक वह मंत्री पद से क्यों महरूम रहे?
आखिर बरसों से वह प्रियंका गांधी के आगे पीछे डोल रहे थे. उनके बच्चों के पोतड़े धो रहे थे. चलिए भले ज़रा देर से ही सही, पोतड़े धोने का इनाम मिला तो सही. अब देखिए न कहने को तो गांधी और नेहरू भी पत्रकार थे. विंस्ट्न चर्चिल भी. पर चलिए छोड़िए वह लोग श्रमजीवी पत्रकार नहीं थे. और मेरी जानकारी में हिंदी के श्रमजीवी पत्रकारों में पंडित कमलापति त्रिपाठी ही कैबिनेट मंत्री तक पहली बार पहुंचे. पर आखिर में उनकी बहुत भद पिटी.
कमलापति जी के बाद भी बहुत पत्रकार राजनीति और सत्ता की कुर्सी भोगते रहे हैं. श्रीकांत वर्मा से लगायत खुशवंत सिंह, तक राज्यसभा में रहे. चंदूलाल चंद्राकर तो मंत्री भी बने. पर एक घोटाले में भद पिटी और पद छोड़ना पडा. अरूण शौरी भी फ़ज़ीहत फ़ेज़ में पड़े बैठे हैं. राज्यसभा के पत्रकारों की सूची लंबी है. लोकसभा में भी कुछ पत्रकार रहे हैं. अब राजीव शुक्ला भी सत्ता में मंत्री पद के स्वाद की चाकलेट पा गए हैं. तो मुकेश का गाया एक पुराना फ़िल्मी गाना याद आ रहा है कि, 'सपनों का सौदागर आया/ तुमसे किस्मत खेल चुकी/ अब तुम किस्मत से खेलो.' आखिर अब समय भी कहां आ गया है भला?
दिल्ली पहुंचने वाले अब तमाम युवा पत्रकार अज्ञेय, रघुवीर सहाय, मनोहर श्याम जोशी, प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर या रामशरण जोशी आदि बनने का सपना लिए नहीं जाते. वह तो राजीव शुक्ला, रजत शर्मा या आलोक मेहता बनना चाहते हैं. अब इसके लिए आस्था बदलनी पड़े, मां, बहन, बेटी या और भी कुछ कुर्बान करना पड़े तो वह सहर्ष तैयार बैठे हैं. आप मौका देकर तो देखिए. कोई उद्योगपति चाहे तो राजीव शुक्ला जैसे लोगों को बनाने की फ़ैक्ट्री खोल ले तो यकीन मानिए कच्चे माल की कमी हरगिज नहीं होगी. हमारे युवा प्राण-प्रण से टूट पड़ेंगे.
दयानंद पांडेय लेखक, वरिष्ठ पत्रकार, उपन्यासकार और समीक्षक हैं.
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