Sunday, 24 March 2013 12:27 |
कमलेश इस दूसरी प्रवृत्ति के नेता जेम्स मिल थे। उन्होंने संस्कृत भाषा, साहित्य, दर्शन, हिंदू धर्म, हिंदू समाज व्यवस्था और ब्राह्मणों की निंदा शुरू की। इन कुतर्कों को जेम्स मिल ने 1817 में 'ब्रिटिश भारत के इतिहास' में व्यवस्थित ढंग से रखा। इसे भारत का पहला प्रामाणिक इतिहास मान लिया गया। जेम्स मिल 1819 में कंपनी के 'बोर्ड' में नियुक्त हुए और दस वर्षों के भीतर ही भारत का संपूर्ण ब्रिटिश प्रशासन उनके अधीन आ गया। उनकी पुस्तक कंपनी सरकार के हर कर्मचारी को पढ़नी पड़ती थी। उसी आधार पर भारत का शासन चलता था। मिल भारत कभी नहीं आए। उन्होंने मनुस्मृति के एक भ्रष्ट अनुवाद और हालहेडकृत 'ए कोड आॅफ गेंटू लॉज' के प्रमाण पर हिंदू विरोधी, भारत विरोधी, ब्राह्मण विरोधी और संस्कृत विरोधी स्थापनाएं कर डालीं जो बहुत प्रभावी हुर्इं। भगवान सिंह मार्क्सवादी हैं, क्योंकि ऋग्वेद पर उनका सारा काम भौतिकवादी (मैटेरियलिस्ट) है। कोसंबी मार्क्सवादी इतिहास लिखने की प्रतिज्ञा करते हैं, लेकिन मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन को जहां-तहां उद्धृत करने के अलावा वे अधिकतर भाववादी (पॉजिटिविस्ट) इतिहास लिखते हैं। कोसंबी जिस एकमात्र इतिहासकार को उल्लेखनीय और उद्धरणयोग्य समझा है, वह है जेम्स मिल जो उनका आदर्श है। उनके हिंदू विरोध, ब्राह्मण विरोध, संस्कृत उपहास आदि का स्रोत मिल में है। मार्क्सवादी इतिहासकारों को इतिहास का ढांचा ब्रिटिश साम्राज्यवादी जेम्स मिल ने दिया है। हेगेल, मार्क्स, ऐंगेल्स ने भी भारत विषयक अज्ञानपूर्ण विवरण मिल से ही पाए। मार्क्स की तो आलोचना की जा सकती है, लेकिन जेम्स मिल की नहीं। मैक्समूलर, एलीफिन्सटन, एचएच विल्सन जैसे भारतविद्याविद जेम्स मिल के कठोर आलोचक थे। विल्सन ने मिल के इतिहास के पांचवें संस्करण का संपादन किया था। उसकी भूमिका में उसने मिल के हिंदू विरोध का खंडन किया था और बताया था कि यह किताब पढ़ कर भारत जाने वाले प्रशासक वहां के समाज से अनभिज्ञ और विच्छिन्न हो जाते हैं। लेकिन कोसंबी ने मिल विरोधी इतिहासकारों को उल्लेखयोग्य भी नहीं समझा। कोसंबी पुरातत्त्वविद नहीं थे। कुछ लोग मुद्राशास्त्र को पुरातत्त्व में जोड़ लेते हैं। कुलदीप कुमार जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पढ़े हुए हैं। शीरीन रत्नागार वहां अनेक वर्षों तक पुरातत्त्व की प्रोफेसर थीं। पुरातत्त्व जाने बिना प्राचीन इतिहास लिखने के लिए वह कोसंबी की आलोचना करती थीं। उनका लेख 'इकॉनामिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली' (26 जुलाई, 2008) में छपा था। पुणे के डेकन कॉलेज में देश का सबसे बड़ा पुरातत्त्व विभाग था, कोसंबी प्रतिष्ठित पुरातत्त्वशास्त्री एचडी सांकलिया का मजाक ही उड़ाते रहते थे। डॉक्टर स्वराज प्रकाश गुप्त निस्संदेह कोसंबी से बड़े पुरातत्त्वविद थे। वे 1967 से ही मध्य एशिया में पुरातात्त्विक उत्खनन कार्य कर रहे थे। उन्होंने वहां के 'नवपाषाणकाल' और 'मध्य एशिया पर प्रागैतिहासिक भारतीय संस्कृति का प्रभाव' और 'प्रागैतिहासिक मध्य एशिया में मृतकों की अंतिम क्रिया' आदि पुस्तकें लिखीं। मार्क्सवादी इतिहासकारों को भी इनका उल्लेख करना पड़ता है। उन्होंने भगवान सिंह के कार्य का अनुमोदन किया तो वह निश्चय ही एक बड़े पुरातत्त्वशास्त्री का अनुमोदन है। कुलदीप कुमार को भारतीय इतिहास की समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं है। वे मार्क्सवादी हैं। मार्क्सवाद संपूर्ण विचार है। वहां हर समस्या पहले से ही सोची जा चुकी है। संपूर्णता वालों से संवाद असंभव हो जाता है। मार्क्सवादी और साम्राज्यवादी इतिहासकारों की आलोचना करने वालों पर दक्षिणपंथी होने का या 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्रीय इतिहास के एजेंडा' का अनुसरण करने वाला कह कर उसकी हत्या कर दी जाती है। कु.कु. ने साम्राज्यवादी भाषा में यही करने का प्रयत्न किया है। भारत पर दो सौ वर्षों से साम्राज्यवादी भाषा और विचारों का ऐसा घटाटोप छाया हुआ है कि कुछ अपवादों को छोड़ कर यहां के इतिहासकार, समाजशास्त्री, नृतत्त्वशास्त्री, राजनीतिशास्त्री भारतीय समाज की समझ खो बैठे हैं और पश्चिम से सीखी कोटियों को अपनी योग्यता के अनुसार प्रयुक्त करते रहते हैं। कबीला (ट्राइब), नस्ल (रेस), 'एनीमिज्म' जैसी कोटियों में भटकते रहते हैं। कुछ विख्यात मार्क्सवादी नृतत्त्वशास्त्री भी 'ट्राइब' जैसी कोटियों को संदिग्ध मानते हैं। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/41183-2013-03-24-06-57-54 |
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Sunday, March 31, 2013
भारतीय इतिहास का साम्राज्यवादी दमन
भारतीय इतिहास का साम्राज्यवादी दमन
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