नक्सलवाद का विरोध करने वाले हमारे अधिकतर मित्र नक्सलवाद से क्या समझ रहे हैं ! वे समझ रहे हैं कि शोषण, दमन और उत्पीड़न का विरोध तो सही है। मगर खुद हथियार उठा कर संघर्ष गलत है क्योंकि हथियार की लड़ाई में सुरक्षा देने वाले सेना और पुलिस के सिपाही मारे जाते हैं। मगर अमीरों के पक्ष में नीतियाँ बनाने वाले पॉलिटीशियन बच जाते हैं – यह तो सच है।
… और जब सवाल सुरक्षा का आता है, तो पूछना पड़ता है कि सुरक्षा देने वाले फौज़ी क्या हमें सुरक्षा देते हैं? क्या वे उन्हीं राजनीतिज्ञों की सेवा नहीं कर रहे होते हैं? जब वे निहत्थे आन्दोलनकारियों पर कहर बरपाते हैं, तो वे सुरक्षा दे रहे होते हैं। मगर किसको? न्याय माँगने गये लोगों को या अन्याय के लिये ज़िम्मेदार तन्त्र को?
क्या इस तन्त्र में वास्तविक न्याय मिलना सम्भव है? क्या इस जनविरोधी तन्त्र में सब का विकास सम्भव है? क्योंकि विकास का वास्तविक अर्थ है सब का विकास। नहीं न! तो इस व्यवस्था में क्रान्ति के पक्ष में लगातार बात चलाने से ही सबका विकास होगा। क्रान्ति का अर्थ है – वैचारिक स्तर का विकास। 'मैं' की जगह 'हम' का बोध विकसित करना। क्योंकि 'हम' के बोध के बाद व्यक्तिवाद की जगह सामूहिकता की भावना आ जाती है। मगर इस व्यवस्था में मुट्ठी भर लोग अकेले-अकेले अपने विकास के चक्कर में सब लोगों का विकास रोकते रहते हैं। और इसी के चलते सारा झगड़ा है। इस झगड़े का निपटारा सरकार बल से करती है, तो नक्सली भी हथियार से करते हैं। मगर वे भी तो केवल जंगलों के भीतर ही कर पा रहे हैं।… औरअगर जंगलों में भी खनिज-सम्पदा को पूँजीपतियों के हवाले करने का काम नहीं होता, तो क्या सरकार भी वहाँ अपनी सेना इस तरह से नक्सलवादियों से लड़ने के लिये भेजती? और तब अगर आदिवासियों के सामने अपने जंगल को सरकारी कब्ज़े से बचाने की चिन्ता नहीं होती, तो उस हालत में क्या नक्सलवादियों को इतना भी जन-समर्थन मिल पाता? नहीं न!
नक्सलवादी धारा बचकानी आतुरता का शिकार है। अतिवाद की इसी कमी को गहराई से समझने की ज़रूरत है। देश वैसे ही न तो सोच सकता है और न ही सोच पा रहा है, जैसे हमारे बन्दूकधारी साथी चाहते हैं और सोच रहे हैं। देश तो पहले भी लड़ा है और आज भी लड़ ही रहा है और आगे आने वाले दिनों में आर-पार की लड़ाई भी लड़ेगा ही। मगर अपनी पूरी तैयारी के बाद। और उसकी तैयारी में अभी समय शेष है। लड़ाई में आतुरता से नहीं धैर्य से काम लेना होता है। क्रान्तिकारियों की आतुरता क्रान्ति के शत्रु को ही लाभ पहुँचाती है। इस अतिवाद को रंग-रोगन से और चमकाने का और मीडिया के प्रचार-तन्त्र के दम पर दुष्प्रचार करने का सत्ता-प्रतिष्ठान के सेवक 'बुद्धिजीवी' और व्यवस्था के 'चाकर' मौका पा जाते हैं और फिर परिणामस्वरूप सत्ता और व्यवस्था आम लोगों में क्रान्तिकारियों के बारे में तरह-तरह से दहशत और भ्रम फैलाती है।
फिर क्रान्ति का फोटो स्टेट नहीं होता। चीन में जो नवजनवादी क्रान्ति लड़ी गयी, वह रूस जैसी नहीं थी और भारत में जो लड़ी जायेगी, वह चीन जैसी नहीं हो सकती। परिस्थिति और परिवेश के अन्तर को समझना ज़रूरी है। अब व्यवस्था और भी अधिक जटिल और संश्लिष्ट हो चुकी है। वह और भी केन्द्रीकृत और सबल हो चुकी है। आतंकवादी सैन्यवादी कार्य दिशा और जन दिशा के अन्तर को समझना ज़रूरी है। क्रान्ति जनता करती है। मात्र मुट्ठी भर क्रान्तिकारी मुक्ति के देवदूत नहीं हो सकते। अगर हो सकते होते, तो सड़सठ से अब तक नवजनवादी क्रान्ति की मंज़िल मानने वाले सफल हो चुके होते।
तथाकथित सामन्तवाद अब मात्र खण्डहर के तौर पर जान बूझ कर तन्त्र द्वारा रिजर्वेशन और जातिवाद के सहारे बचाया गया है और ब्राह्मणवाद के विरुद्ध नव-दलितवाद को खड़ा करके जन-सामान्य की एकजुटता के रास्ते की खाई को और भी बढ़ाया जा रहा है। और कहावत है "खण्डहर ढहे, न बुढिया मरे"। इस खण्डहर को ढहाने के लिये सांस्कृतिक क्रान्तियों की अगणित श्रृंखलायें चलानी पड़ेंगी। अभी तो इनके पीछे ही छिप कर पूँजी मासूम जन के श्रम का शिकार कर रही है। इसीलिये आतंकवादी-सैन्यवादी कार्य दिशा सही नहीं है। क्रान्तिकारी विचारों के प्रचार-प्रसार के दौरान इस ढहते हुये सामन्तवाद के नकली दुश्मन से लड़ने के बजाय असली दुश्मन यानी कि देशी-विदेशी पूँजी का पर्दाफाश किया जाना अधिक लाभकार होगा।
मुख्य समाज के लोग इस व्यवस्था के भीतर जीने वाले लोग हैं। वे नक्सली तरीके से लड़ नहीं सकते। इसलिये ही भगत सिंह का जनदिशा का रास्ता क्रान्ति का सही रास्ता है। इसमें केवल बम-पिस्तौल नहीं, बल्कि बौद्धिक और सामूहिक प्रयास किया जाता है। सब लोगों को साथ लेकर लम्बे समय तक की लड़ाई की तैयारी करनी होती है। क्रान्ति के नाम पर चल रहा अन्ना, केजरीवाल और रामदेव का तरीका तो सफल होता नहीं दिख पा रहा है। और फिर अन्ना और अरविन्द के बीच भी मतभेद पैदा हुआ क्योंकि अन्ना केवल आन्दोलन के ज़रिये ही लड़ना चाहते थे जबकि अरविन्द को संसद का रास्ता पसन्द आया। उनके बीच मतभेद की वही रेखा है, जो भाकपा, माकपा और नक्सल आन्दोलन के बीच है। फिर भी चूँकि दोनों को ही व्यवस्था के घेरे के भीतर ही लड़ना है, इसलिये दोनों अपने मतभेद के बावज़ूद एक दूसरे का साथ देते रहेंगे। जबकि असली लड़ाई तो इस व्यवस्था से ही है। और इस व्यवस्था से लड़ने में इन्कलाबी तभी सफल हो सकते हैं, जब व्यवस्था की शक्ति को अपने अखाड़े के अन्दर घुसा ले जायें। उनके अखाड़े में जा कर तो हम उनके जाल में फँसते ही रहे हैं।
…और संसद भी उनका ही अखाड़ा है।
क्या अन्ना नहीं जानते कि उनके ही इलाके के ढाई लाख किसानों ने पूँजी के जाल में फँस कर आत्महत्या की है? फिर भी क्या वजह है कि कभी भी तो वह इस पर नहीं बोल सके? क्या अरविन्द नहीं जानते कि जिन्दल के चलते आदिवासियों का नरमेध हो रहा है। फिर भी वह जिन्दल से पुरस्कार लेते हैं। क्यों? सोचिए। सच सामने है।
http://hastakshep.com/?p=31026
युवाओं को ही दुनिया बदलने के इस काम के लिये हर तरह से तैयार करना होगा। मुझे तो यही समझ में आता है। फिर वे जैसा चाहेंगे, करेंगे। या तो वे भी घूसखोर अफसर बन जायेंगे या भगत सिंह की तरह लोगों को जगाने का काम आगे बढ़ायेंगे। हम लोग इसी तरीके से क्रान्तिकारी शक्तियों को जोड़ने, सिखाने और विकसित करने में यकीन करते हैं। इसके साथ ही हम सब को मिल जुल कर यह कोशिश करनी ही होगी कि अधिकतम मतभेद और न्यूनतम बिन्दुओं पर सहमति होने पर भी देश के सभी जनवादी और प्रगतिशील संगठनों के तौर पर और संगठनों से अलग रह कर व्यक्तिगत स्तर पर सक्रिय साथियों के बीच एकजुटता का कोई ढीला-ढाला ही सही एक आधार बन सके। तभी भारतीय क्रान्ति का दशकों पुराना सपना साकार हो सकेगा।
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