Anand Singh · Friends with Ram Puniyani and 16 others आरती जी, आपने बड़ी ही चतुराई से मेरे द्वारा पूछे हुए सवालों को दरकिनार कर अपने सवाल उठा दिये हैं। इस उम्मीद के साथ कि आप भी मेरे सवालों के जवाब देंगी, मैं आपके सवालों से मुख़ातिब हो रहा हूं। हलांकि आप जातिवाद से लड़ने का दावा करती हैं, परन्तु आपकी टिप्पणियों और सवालों से तो यही जान पड़ता है कि आपके पूरे विश्लेषण का प्रस्थान बिन्दु व्यक्तियों के जन्म के समय की जाति ही होती है। यह तो वही ब्राह्मणवादी पद्धति है जिसकी आप मुखर आलोचना करती हैं। किसी संगठन या विचारधारा से जुड़े हुए लोगों की राजनीति पर बहस करने की बजाय आपके लिए सबसे प्रमुख मुदृा यह है कि वे जिस परिवार में पैदा हुए उसकी जाति क्या थी। इसी किस्म का विश्लेषण करके मौजूदा शासक वर्ग निम्न जातियों के मुठ्ठी भर मुखर हिस्से को अपनी ओर कर बहुसंख्यक आम आबादी से उसको दूर करता है। सत्ता और प्रतिष्ठा की मलाई काटकर यह छोटा सा हिस्सा शासक वर्ग का गुणगान करता है। इस किस्म की रणनीति शासक वर्ग की और उसके रहमोकरम पर पलने वाले कुछ बुद्धिजीवियों की तो हो सकती है, परन्तु श्रम की लूट और जाति व्यवस्था का ख़ात्मा करने के लिए कृतसंकल्प लोगों के लिए विश्लेषण की यह ब्राह्मणवादी पद्धति अत्यन्त घातक है। शायद आपने इस किस्म का बेतुका सवाल इसलिए पूछा कि आपको कम्युनिस्ट होने का मतलब नहीं पता। अगर आपको पता होता तो आप यह जानतीं कि सम्पत्ति सम्बन्धों सहित सभी जातीय और धार्मिक पहचानों का परित्याग किये बगैर कोई कम्युनिस्ट बन ही नहीं सकता। ब्राह्मण कम्युनिस्ट और दलित कम्युनिस्ट जैसे शब्द वही इस्तेमाल करते हैं जिन्होंने न तो ब्राह्मणवाद को समझा है और न ही कम्युनिज़्म को। कोई भी कम्युनिस्ट संगठन जाति, लिंग आदि जैसी अस्मिताओं के समानुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर नहीं बल्कि कम्युनिज़्म की विचारधारा के आधार पर बनता है। किसी भी संगठन के कम्युनिस्ट चरित्र का पैमाना इतिहास के किसी बिन्दु पर उसमें तमाम अस्मिताओं की समानुपातिक प्रतिनिधित्व को माना जायेगा तो दुनिया का कोई भी संगठन कभी भी कम्युनिस्ट नहीं कहला सकेगा। यहां तक कि रूस की पार्टी और चीन की पार्टी भी नहीं क्योंकि शुरूआती दौर में उनमें भी पुरूषों का अनुपात महिलाओं की तुलना में और मध्य वर्गीय पृष्ठभूमि से आये लोगों का का अनुपात मज़दूर पृष्ठभूमि से आये लोगों की तुलना में बहुत ज़्यादा था। मेरे विचार से किसी संगठन के कम्युनिस्ट क्रांतिकारी चरित्र का पैमाना सिद्धांत और व्यवहार में द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दृष्टिकोण पर अमल होना चाहिए। यदि कोई संगठन वास्तव में ऐसे दृष्टिकोण को अपनाता है तो इतिहास की गति के साथ हर जाति और हर अस्मिता के मेहनतकश लोग उससे जुड़ेंगे क्योंकि वह उनके हितों का सच्चा प्रतिनिधित्व करेगा। कोई भी सार्थक बहस विचारों और राजनीति पर ही आधारित हो सकती है और इसीलिए मैंने आपसे लेख को पढ़कर बहस करने के लिए कहा था। लेकिन अफ़सोस आपकी विवेचना व्यक्तियों की पैदाइशी जाति से आगे एक कदम भी आगे नहीं बढ़ रही है।
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