Sunday, 31 March 2013 11:56 |
कुलदीप कुमार कोसंबी का महत्त्व भारतीय समाज के इतिहास के अध्ययन में नई दृष्टि अपनाने, उसमें पुरातत्त्व के इस्तेमाल की हिमायत करने और 'पैराडाइम शिफ्ट' करने के लिए माना जाता है। उन्होंने पुरातत्त्व के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया, लेकिन न तो उन्होंने कभी उस अर्थ में पुरातत्त्वशास्त्री होने का दावा किया और न ही उन्हें ऐसा माना जाता है, जिस अर्थ में एचडी सांकलिया या बीबी लाल पुरातत्त्वशास्त्री थे। कमलेश इकोनॉमिक ऐंड पोलिटिकल वीकली के 26 जुलाई, 2008 के अंक में प्रकाशित शिरीन रतनागर के आलोचनात्मक लेख का तो जिक्र करते हैं, लेकिन यह उल्लेख नहीं करते कि यह सामान्य अंक नहीं, इपीडब्ल्यू का कोसंबी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित विशेषांक था, जो उनकी जन्मशताब्दी वर्ष की समाप्ति पर निकाला गया था। अगर कोसंबी ऐसे ही बौद्धिक बौने थे, तो वीकली ने उन पर विशेषांक ही क्यों निकाला? और शिरीन ने उन पर लिख कर अपना समय क्यों नष्ट किया? कमलेश की राय में कोसंबी को संस्कृत भी नहीं आती थी। वे लिखते हैं: ''संस्कृत न जानते हुए भी उन्होंने शतकत्रय और सुभाषित रत्नागार के संपादन का बीड़ा उठाने का साहस कर लिया और सम्मानित प्रकाशकों ने उन्हें यह काम सौंप दिया।'' मगर वे यह नहीं बताते कि ये और अन्य ग्रंथ भारतीय विद्या भवन की सिंघी शृंखला, आनंदाश्रम प्रेस की आनंदाश्रम संस्कृत शृंखला, निर्णयसागर प्रेस और हार्वर्ड विश्वविद्यालय की हार्वर्ड ओरिएंटल शृंखला के अंतर्गत प्रकाशित हुए थे, जिन्हें विश्व भर में प्रतिष्ठा प्राप्त है। उनके द्वारा भर्तृहरि पर संपादित एक पुस्तक की भूमिका आचार्य जिन विजय मुनि ने लिखी थी। यों भी इस कोटि के प्रकाशक अयोग्य व्यक्ति को संपादक बना कर अपनी प्रतिष्ठा दांव पर नहीं लगाते। कमलेश को तो यह तक नहीं मालूम कि ग्रंथ का नाम 'सुभाषित रत्नागार' नहीं, 'सुभाषित रत्नकोष' है। उनका निष्कर्ष है कि संस्कृत ज्ञान से कोरे कोसंबी को इन महत्त्वपूर्ण ग्रंथों के संपादन का दायित्व दिया जाना ''एक असाधारण घटना थी, जो केवल 'नेटवर्किंग' का परिणाम थी।'' यानी इन सभी प्रकाशकों से परिचय के आधार पर जुगाड़ करके संस्कृत न जानने वाले कोसंबी ने संपादकी हथिया ली! और इस घृणित आरोप को प्रमाणित करने की तो कोई जरूरत ही नहीं, क्योंकि, 'मुस्तनद है मेरा फरमाया हुआ...'। पाठक खुद तय करें कि इस प्रकार की टिप्पणियां कीचड़ उछालने की नीयत से की गई हैं या गंभीर चर्चा के लिए। यहां यह बता दूं कि कोसंबी के कार्य को दुनिया भर के संस्कृतज्ञ पाठ-आलोचना का मानक मानते हैं। कमलेश दावा करते हैं कि कोसंबी महान पुरातत्त्वविद एचडी सांकलिया का मजाक उड़ाते थे। उन्हें पता ही नहीं कि खुद सांकलिया ने कोसंबी के बारे में क्या लिखा है। जानने के लिए वे 1974 में प्रकाशित स्मृति ग्रंथ के पन्ने पलट सकते हैं। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/41585-2013-03-31-06-27-04 |
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Sunday, March 31, 2013
दमन का वाद नहीं होता
दमन का वाद नहीं होता
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