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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Sunday, March 31, 2013

समग्र वर्ग की चेतना से कंगाल:हिन्दू

गैर-मार्क्सवादियों से संवाद-5

     समग्र वर्ग की चेतना से कंगाल:हिन्दू  


हरिलाल दुसाध


गैर-मार्क्सवादियों से संवाद-5 समग्र वर्ग की...
Dusadh Hari Lal

मित्रों ! क्या आप बता सकते हैं कि भारत में रातों-रात क्रांति करने के दावे के साथ वजूद में आये संगठनों में एक खास साम्यता क्या है?नहीं आपको मानसिक कसरत से बचाते हुए मैं बताता हूँ.ऐसे संगठनों के साथ सबसे बड़ी साम्यता यह है कि वे सामाजिक मनोविज्ञान से दूर भागते हैं.चाहे 1920 से वजूद में आकर नरम-गरम असंख्य टुकड़ों में बंटे मार्क्सवादी संगठन हों या महात्मा गाँधी-जेपी  के अधुना अवतार हजारे-केजरीवाल के नेतृत्व में चला भ्रष्टाचार विरोधी संगठन आईएसी(इंडिया अगेंस्ट करप्शन),सभी के नेता और समर्थक बुद्धिजीवियों ने सामाजिक मनोविज्ञान की पूरी तरह अनदेखी की है.जिस देश के सर्वस्वहारा दैविक गुलाम(divine-slave)हों;जिस देश के शोषक, शोषण करना अपना दैविय अधिकार(divine right) मानते हों एवं जहां असंख्य समाजों में बंटे लोगों के परस्पर व्यवहार में घृणा एवं शत्रुता(hatred n enemity) की क्रियाशीलता हो वह भारत समाज पूरी तरह मानसिक –व्याधि से ग्रसित समाज है.इसकी मानसिक व्याधि के कारकों को समझे बिना रातो-रात क्रन्तिकारी बदलाव के सपने का जो हस्र होना चाहिए वह हुआ.भारत पृथ्वी की छाती पर एकमात्र ऐसा देश है जहां क्रांति सपना बनी हुई है.बहरहाल भारत में वर्षों से क्रांति का सपना देख-देख उद्भ्रान्त हो चुके मार्क्सवादी अभी भी क्रांति की उम्मीद नहीं छोड़े हैं.किन्तु यदि उनके सपनो का महल आकार लेता है तो उसकी बुनियाद गणतांत्रिक-व्यवस्था के ध्वंस पर ही खड़ी होगी.मान लिया जाय उनका संघर्ष सफल होता है तो ज़ाहिर है भारत में भी रूस,चीन,चेकोस्लाविया इत्यादि  की भांति ही तानाशाही सत्ता कायम होगी.वह तानाशाही मानसिक व्याधि- ग्रस्त भारतीय समाज के लिए कितनी उपयोगी हो सकती है,उसका कयास लगाने के प्रयास से ही जुडी है आज की मेरी शंकाएं.          

वैसे तो तानाशाही किसी भी देश के लिए सुखकर नहीं साबित हो सकती .किन्तु प्रयोजनवश इसका प्रयोग उन देशों में हो सकता है जिनका स्वरूप श्रेणी-समाजों जैसा है,जहाँ भारत जैसी जाति व्यवस्था नहीं है.इसका अच्छा परिणाम रूस और चीन जैसे देशों में सामने आया है. श्रेणी समाजों के छोटे-बड़े हिटलर,चाउसेस्कू,गद्दाफी तमाम कमियों के बावजूद एक विशेष गुण से समृद्ध होने कारण राष्ट्रहित में बेहतर परिणाम दे सके.वह विशेष गुण यह है कि वहां के लोग काफी हद तक 'समग्र-वर्ग की चेतना' से लैस  रहे.लेकिन भारत जैसे देश में किसी भी किस्म की संस्था में व्यक्तिविशेष के हाथ शक्ति का संकेन्द्रण घातक  हो सकता है.कारण भारत के जाति समाज में 'समग्र-वर्ग की चेतना' से लैस  व्यक्ति का उदय असंभव है..यहाँ व्यक्ति की  सोच स्व-जाति/वर्ण  के स्वार्थ की सरिता के मध्य प्रवाहित होती रहती है.यहाँ महान से महान  व्यक्ति निज हित से ऊपर उठने पर सबसे पहले सजाति-हित की चिंता करता है.इससे ऊपर उठने पर अधिक से अधिक स्व-वर्ण की बात सोचेगा.इससे आगे जाते –जाते उसकी परहित सोच दम तोड़ देती है .स्व-जाति/वर्ण की इस मानसिक-व्याधि से उबरने का दृष्टान्त आजतक इस देश का बड़ा से बड़ा समाज सुधारक-नेता ,साधु-संत,लेखक-कलाकार तक स्थापित नहीं कर पाया है .यही कारण है सवर्ण समाज में जन्मी सूर-तुलसी,राजा राममोहन-विद्यासागर-दयानंद सरस्वती ,रवि-बंकिम,सत्यजित-विमल राय जैसी विरल प्रतिभायें तक बहुजन समाज को उपकृत करने में व्यर्थ रहीं.ऐसा नहीं कि जाति समाज की इस चिरपरिचित दुर्बलता से बहुजन नायक मुक्त रहे.इस कारण ही आंबेडकर जैसे भारत के सर्वकाल के सर्वश्रेष्ठ मनीषी बहुतों द्वारा महारों के नेता कहलाने के लिए अभिशप्त हुए.आज मायावती,मुलायम-लालू,पासवान जैसे नेता अपनी चमत्कारिक उपस्थिति दर्ज कराने के बावजूद  क्रमशः गैर-चर्मकार,गैर-यादव और गैर-दुसाधों का यथेष्ट सम्मान जीतने में काफी हद तक व्यर्थ हैं.लेकिन निंदकों से परे हटकर यदि हम यह मान लें कि बाबासाहेब,फुले,पेरियार,कांशीराम जैसे श्रेष्ठ बहुजन नायक या आज के माया-मुलायम,लालू-पासवान जाति की सीमाओं से मुक्त रहे या हैं तो भी क्या हम इस बात से इनकार कर सकते हैं कि इनकी प्रतिभा से उपकृत सिर्फ बहुजन समाज हुआ है,शेष अल्पजन नहीं.इसका मतलब यह हुआ कि भारत की अपवाद मानी जानेवाली प्रतिभाएं तक समग्र-वर्ग की चेतना से समृद्ध नहीं रहीं.  

मित्रों दुसाध का दावा है कि भारत के जाति समाज में आज तक एक भी ऐसा व्यक्ति भूमिष्ठ नहीं हुआ जो समग्र वर्ग की चेतना से संपन्न हो .विनम्रता से कहूँ कि समाज मनोविज्ञान से जुड़ा मेरा यह रह्स्योद्घाटन मार्क्स के वैज्ञानिक चिंतन से कई सौ प्रतिशत ज्यादा वैज्ञानिक है .अभी परसों मैं महात्मा गाँधी और पेरियार से जुड़ा जो वार्तलाप पोस्ट किया था उसमें  आपने देखा होगा गाँधी ने एक अच्छे ब्राह्मण का नाम बताकर पेरियार को तो चौका दिया था .पर,मेरा दृढ विश्वास है कि आप दुसाध को नहीं चौका पाएंगे क्योंकि,साहित्य,राजनीति,फिल्म ,कला इत्यादि किसी भी क्षेत्र में आज तक ऐसा कोई व्यक्ति पैदा ही नहीं हुआ जो ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शुद्रातिशुद्र इत्यादि सबको समान रूप से देखे.भारत समाज सुधर के जनक राजा राममोहन राय और विद्यासागर का सबसे बड़ा अवदान क्रमशः सती और विधवा प्रथा का उन्मूलन था.ये समस्याएं सवर्ण विशेषकर उन दोनों महमानोवों के स्व-जाजति की समस्याएं थी.आज़ाद भारत में पंडित नेहरु,इंदिरा गाँधी,जेपी,ज्योति बासु जैसे राजनीति के सुपर स्टार पैदा हुए पर,माओवादियों को जगह देने के लिए इसलिए अभिशप्त हुए कि समग्र वर्ग की चेतना के अभाववश वे वर्ण-व्यवस्था के वंचितों की स्थिति में इच्छित बदलाव न ला सके.आज सुर-तुलसी-मीरा से लेकर बंकिम –शरत-प्रेमचंद बहुजनों द्वारा इसलिए खारिज हो चुके हैं क्योंकि वे स्व-जाति स्वार्थ के चलते बहुजन हित का चिंतन न कर सके.मैं लेखक जैसा भी व्यक्ति बहुत अच्छा हूँ,ऐसा दावा मेरे संसर्ग में आनेवाले सभी करते हैं.किन्तु तमाम मानवीय गुणों के बावजूद 50 किताबों के लेखक दुसाध की सारी प्रतिभा सर्वजन नहीं,बहुजन के हित में इसलिए इस्तेमाल हो रही है,क्योंकि दुसाध भी समग्र वर्ग की चेतना का कंगाल है.भारतीय समाज की इस व्याधि को देखते हुए मैं सोनिया गांधी से कुछ इसलिए उम्मीद रखता हूँ क्योंकि उनका जन्म एक जाति- मुक्त समाज में हुआ है .जब उन्होंने प्रधानमंत्री का पद ठुकरा दिया था,तब मैंने बहुत भारी मन से लिखा था-'समग्र वर्ग की चेतना संपन्न प्रधानमंत्री से वंचित देश'.

मित्रों उपरोक्त पंक्तियों में हिंदुओं की मानसिक व्याधि  का जिक्र करते हुए मैंने दावा किया है कि मेरा यह चिंतन  मार्क्स के वैज्ञानिक चिंतन से कई सौ गुना वैज्ञानिक है.जानते हैं इस दावे का स्रोत क्या है? बाबासाहेब आंबेडकर का सामाजिक चिंतन.हिंदुओं की चेतना से जुड़े विचार के प्रणेता डॉ.आंबेडकर हैं.उन्होने ही समाज विज्ञान के अध्ययन की दुनिया में मील का पत्थर बनी अपनी रचना 'जाति के उच्छेद' में कहा है -'हिंदुओं में उस चेतना का सर्वथा अभाव है जिसे समाज विज्ञानी समग्र वर्ग की चेतना कहते हैं.उनकी चेतना समग्र वर्ग से सम्बंधित नहीं है.हरेक हिंदू में जो चेतना पाई जाती है ,वह उसकी अपनी जाति के बारे में होती है.जब भी कोई समुदाय अपने स्वार्थ से प्रेरित होता है,उसमे असामाजिकता की भावना पैदा हो जाती है.यह असामाजिकता की भावना अर्थात अपने स्वार्थ रक्षा की भावना विभिन्न जातियों  के एक दूसरे से अलग होने का ऐसा ही एक विशिष्ट लक्षण,है जैसा की अलग-अलग राष्ट्रों का.ब्राह्मणों का मुख्य उद्देश्य है कि गैर-ब्राह्मणों के विरुद्ध अपने स्वार्थ की रक्षा करें और गैर-ब्राह्मणों का मुख्य उद्देश्य यह है कि ब्राह्मणों के विरुद्ध अपने स्वार्थ की  रक्षा करें.इसलिए  हिंदू समुदाय विभिन्न जातियों का संग्रह मात्र नहीं,बल्कि वह शत्रुओं का समुदाय है.उसका हर विरोधी वर्ग स्वयं अपने लिए और अपने समुदाय के लिए जीना चाहता है.'    

मित्रों,हिंदुओं की इस विशेष मानसिक –व्याधि से आपको अवगत कराने के पीछे जो उद्योग  लिया हूँ उसका खास कारण यह है कि 93 वर्ष से मार्क्सवादी भारत में क्रांति करने का जो प्रयास कर रहे हैं,हो सकता है लाल झंडे का भाग्योदय हो और उसे लाल किले पर हम फहराते हुए देखें.अगर वह दिन आता है तो वह शासन प्रणाली भारत से विलुप्त हो जायेगी,जिसके तहत जनता के वोट से चुनकर जनप्रतिनिधि सत्ता में आते हैं.कारण,तब भारत में सर्वहारा की तानाशाही कायम हो जायेगी.चूँकि नरम-गरम  तमाम मार्क्सवादी दल ही ब्राह्मणों की गिरफ्त में हैं इसलिए वह तानाशाही,दरअसल ब्राह्मणों की ही तानाशाही होगी.ऐसे में आपके समक्ष मेरी शंका है-

1-जिस देश में बड़े-बड़े साधु-संत,राजा-महाराजा से लेकर राजा राममोहन –विद्यासागर,दयानंद-विवेकानंद जैसे समाज सुधारक;सुर-तुलसी,बंकिम-रवि-प्रेमचंद जैसे साहित्यकार और पंडित नेहरु-इदिरा गांधी-वाजपेयी -जेपी-ज्योति बासु जैसे उच्च वर्णीय,खासकर ब्राह्मण नेता समग्र वर्ग की चेतना से कंगाल रहे वहां आज की तारीख में सक्रिय भद्र से भद्र ब्राह्मण-सवर्ण मार्क्सवादी के हाथ में सत्ता  की बागडोर जाने पर क्या वह ओबीसी-एससी/एसटी और अल्प संख्यकों के भी हितों की समान रूप से रक्षा कर पायेगा?

2-जिस देश में एक-एक समुदाय, एक –एक विरोधी राष्ट्र की भूमिका में दण्डायमान हों ;जहां ब्राह्मण,गैर-ब्राह्मणों और गैर-ब्राह्मण,ब्राह्मणों के विरुद्ध अपनी स्वार्थ रक्षा में सदैव तत्पर  हों, वहां सर्वहारा की तानाशाही क्या परस्पर शत्रुता से लबरेज विभिन्न सामाजिक समूहों की स्वार्थ रक्षा के लिए उपयुक्त हो सकती है?  

3-क्या आप विश्वास करेंगे कि सवर्णों द्वारा परिचालित क्रन्तिकारी संगठन सोशल साइक्लोजी की इसलिए अनदेखी करते हैं क्योंकि इससे बहस के केन्द्र में जाति आ जायेगी और जाति के केन्द्र में आने पर उनके मंसूबों पर पानी फिर जायेगा?

मित्रों ,कल मैंने वादा किया था कि आज शंकाओं का ज्यादा बोझ आप पर नहीं डालूंगा.अपने वादे पर कायम रहते हुये आज नाम मात्र की शंकाओं के साथ आपसे विदा लेता हूँ.कल फिर कुछ शंकाओं के मिलूँगा.

दिनांक:31 मार्च,2013                       जय भीम-जय भारत           

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