नायक
[पुण्यतिथि पर विशेष आलेख]
प्रवीरचन्द्र भंजदेव – बस्तर के आदिवासियो का शापित नायक
[पुण्यतिथि पर विशेष आलेख]
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आज बस्तर के जन-नायक तथा बस्तर रियासत काल के अंतिम शासक महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव की सैतालीसवी पुण्यतिथि है। उनका सम्पूर्ण जीवन ही संघर्षपूर्ण रहा तथा आदिवासियों के वे एसे नायक बन कर उभरे जिन्होंने लम्बे समय तक बस्तर की राजनीति की दिशा और दशा तय की। 26 मार्च 1966 को राजमहल को घेर कर अनेक संघर्षरत आदिवासियों के साथ उन्हें भी गोली मार दी गयी थी। आज प्रस्तुत है प्रवीर का जीवन संघर्ष -
रियासत काल के अंतिम शासक प्रवीर चन्द्र भंजदेव आधुनिक बस्तर को दिशा प्रदान करने वाले पहले युगपुरुषों में से एक हैं। महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी तथा प्रफुल्ल चन्द्र भंजदेव की द्वितीय संतान प्रवीरचन्द्र भंजदेव का जन्म शिलांग में 12.6.1929 को हुआ था। उनकी माता तथा बस्तर की महिला शासिका महारानी प्रफुलकुमारी देवी के असमय और रहस्यमय निधन के पश्चात लंदन में ही ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधियों ने अंत्येष्टि से पहले उनके छ: वर्षीय ज्येष्ठ पुत्र प्रवीरचन्द्र भंजदेव (1936 – 1947 ई.) का औपचारिक राजतिलक कर दिया। प्रवीर अट्ठारह वर्ष के हुए और जुलाई 1947 में उन्हें पूर्ण राज्याधिकार दे दिये गये। 15.12.1947 को सरदार वल्लभ भाई पटेल ने मध्यप्रांत की राजधानी नागपुर में छत्तीसगढ़ की सभी चौदह रियासतों के शासकों को भारतीय संघ में सम्मिलित होने के आग्रह के साथ आमंत्रित किया। महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव ने अपनी रियासत के विलयन की स्वीकृति देते हुए स्टेटमेंट ऑफ सबसेशन पर हस्ताक्षर कर दिये। बस्तर रियासत को इसके साथ ही भारतीय संघ का हिस्सा बनाये जाने की स्वीकृति हो गयी। 15.08.1947 को भारत स्वतंत्र हुआ तथा 1.01.1948 को बस्तर रियासत का भारतीय संघ में औपचारिक विलय हो गया। 9.01.1948 को यह क्षेत्र मध्यप्रांत में मिला लिया गया।
यह स्वाभाविक था कि सत्ता छिन जाने तथा महाराजा से प्रजा हो जाने की पीडा उनकी वृत्तियों से झांकती रही तथा इसकी खीझ वे एश्वर्य प्रदर्शनों, लोगों में पैसे बाटने जैसे कार्यों से निकालते भी रहे। तथापि उम्र के साथ आती परिपक्वता तथा राजनीति के थपेडों नें उन्हें एक संघर्षशील इंसान भी बनाया तथा धीरे धीरे वे अंचल में आदिम समाज के वास्तविक स्वर और प्रतिनिधि बन कर भी उभरे। उनके जनसंघर्षों की यदि बानगी देखी जाये तो यह समय शुरु होता है जब 13 जून 1953 को उनकी सम्पत्ति कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अंतर्गत ले ली गयी थी। प्रवीर नें 1955 में "बस्तर जिला आदिवासी किसान मजदूर सेवा संघ" की स्थापना की थी। 1957 में प्रवीर बस्तर जिला काँग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए; आमचुनाव के बाद भारी मतो से विजयी हो कर विधानसभा भी पहुँचे। 1959 को प्रवीर ने विधानसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। मालिक मकबूजा की लूट आधुनिक बस्तर में हुए सबसे बडे भ्रष्टाचारों में से एक है जिसकी बारीकियों को सबसे पहले उजागर तथा उसका विरोध भी प्रवीर ने ही किया था। 11 फरवरी 1961 को राज्य विरोधी गतिविधियों के आरोप में प्रवीर धनपूँजी गाँव में गिरफ्तार कर लिये गये। इसके तुरंत बाद फरवरी-1961 में "प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट" के तहत प्रवीर को गिरफ्तार कर नरसिंहपुर जेल ले जाया गया। राष्ट्रपति के आज्ञापत्र के माध्यम से 12.02.1961 को प्रवीर के बस्तर के भूतपूर्व शासक होने की मान्यता समाप्त कर दी गयी इसके साथ ही प्रवीर के छोटे भाई विजयचन्द्र भंजदेव को भूतपूर्व शासक होने के अधिकर दिये गये। इसके विरोध में लौहण्डीगुडा तथा सिरिसगुड़ा में आदिवासियों द्वारा व्यापक प्रदर्शन किया गया था। जिला प्रशासन की जिद और प्रवीर पर हो रही ज्यादतियों का परिणाम 31.03.1961 का लौहंडीगुड़ा गोली काण्ड़ था, जहाँ बीस हजार की संख्या में उपस्थित विरोध कर रहे आदिवासियों पर निर्ममता से गोली चलाई गयी थी। सोनधर, टांगरू, हडमा, अंतू, ठुरलू, रयतु, सुकदेव; ये कुछ नाम हैं जो लौहण्डीगुड़ा गोलीकाण्ड के शिकार बने।
फरवरी 1962 को कांकेर तथा बीजापुर को छोड पर सम्पूर्ण बस्तर में महाराजा पार्टी के प्रत्याशी विजयी रहे तथा यह तत्कालीन सरकार को प्रवीर का लोकतांत्रिक उत्तर था। 30 जुलाई 1963 को प्रवीर की सम्पत्ति कोर्ट ऑफ वार्ड्स से मुक्त कर दी गयी। प्रवीर पर बहुधा बस्तर को नागालैंड बनाने तथा हिंसक प्रवृत्तियों को भडकाने के आरोप लगते रहे हैं तथापि गंभीर विवेचना करने पर ज्ञात होता है कि उनके अधिकतम आन्दोलन शांतिप्रिय तथा लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की परिधि में ही थे। 1964 ई. में प्रवीर ने पीपुल्स वेल्फेयर एसोशियेशन की स्थापना की। 12 जनवरी 1965 को प्रवीर ने बस्तर की समस्याओं को ले कर दिल्ली के शांतिवन में अनशन किया था। गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा द्वारा समस्याओं का निराकरण करने के आश्वासन के बाद ही प्रवीर ने अपना अनशन तोडा था। 6 नवम्बर 1965 को आदिवासी महिलाओं द्वारा कलेक्ट्रेट के सामने प्रदर्शन किया गया जहाँ उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया। इसके विरोध में प्रवीर, विजय भवन में धरने पर बैठ गये। 16 दिसम्बर 1965 को आयुक्त वीरभद्र ने जब उनकी माँगों को माने जाने का आश्वासन दिया तब जा कर यह अनशन टूट सका। 8 फरवरी 1966 को पुन: जबरन लेव्ही वसूलने की समस्या को ले कर प्रवीर द्वारा विजय भवन में अनशन किया गया। 12 मार्च 1966 को नारायणपुर इलाके में भुखमरी और इलाज की कमी को ले कर प्रवीर द्वारा पुन: अनशन किया गया। प्रवीर के आन्दोलन व्यवस्था के लिये प्रश्नचिन्ह बने हुए थे जिनका दमन करने के लिये आदिवासी और भूतपूर्व राजा के बीच के बंध को तोडना आवश्यक था।
इस बीच एक बडी घटना घट गयी। तारीख 18.03.66, शाम के साढे तीन बजे थे। चैत पूजा के लिये लकड़ी का बड़ा सा सिन्दूर-तिलक लगा हुआ लठ्ठा महल के भीतर ले जाया जा रहा था। कंकालिन गुड़ी के सामने परम्परानुसार इस स्तम्भ को लगाया जाना था। इस समय कहीं किसी तरह की अशांति नहीं और न ही कोई उत्तेजना। महिलाओं की संख्या चार सौ से अधिक होंगी; इस समूह में पुरुष भी थे, पूरी तरह नि:शस्त्र, जो संख्या में डेढ़ सौ से अधिक नहीं थे। महिलाओं में अधिकांश के वदन पर नीली साड़ी थी और पुरुषों के सिर नीली पगडियाँ; यह भूषा प्रवीर नें अपने समर्थकों को दी थी जिन्हें वे मेम्बर तथा मेम्ब्रीन कहते थे; इस समय इस समूह का प्रवीर से केवल इतना ही सम्बन्ध भर था। यह जुलूस महल के प्रमुख प्रवेश – सिंह द्वार के निकट पहुँचा ही था कि एकाएक उस पर लाठीचार्ज हो गया। इसके बाद स्थिति विस्फोटक हो गयी तथा उत्तेजित ग्रामीणों नें तीर-कमान निकाल लिये थे। इस अप्रिय स्थिति को प्रवीर के हस्तक्षेप के बाद ही टाला जा सका था। स्थिति यही नहीं थमी। 25 मार्च 1966 के दिन राजमहल में सामने का मैदान आदिम परिवारों से अटा पड़ा था। कोंटा, उसूर, सुकमा, छिंदगढ, कटे कल्याण, बीजापुर, भोपालपटनम, कुँआकोंडा, भैरमगढ, गीदम, दंतेवाडा, बास्तानार, दरभा, बकावण्ड, तोकापाल लौहण्डीगुडा, बस्तर, जगदलपुर, कोण्डागाँव, माकडी, फरसगाँव, नारायनपुर.....जिले के कोने कोने से या कहें कि विलुप्त हो गयी बस्तर रियासत के हर हिस्से से लोग अपनी समस्या, पीड़ा और उपज के साथ महल के भीतर आ कर बैठे हुए थे। भीड़ की इतनी बड़ी संख्या का एक कारण यह भी था कि अनेकों गाँवों के माझी 'आखेट की स्वीकृति' अपने राजा से लेने आये थे। चैत की नवदुर्गा में आदिवासी कुछ बीज राजा को देते और फिर वही बीज उनसे ले कर अपने खेतों में बो देते थे। चैत और बैसाख महीनों में आदिवासी शिकार के लिये निकलते हैं जिसके लिये राजाज्ञा लेने की परम्परा रही है। यह भी एक कारण था कि भीड़ में धनुष-वाण बहुत बड़ी संख्या में दिखाई पड़ रहे थे, यद्यपि वाणों को युद्ध करने के लिये नहीं बनाया गया था। ज्यादातर वाण वो थे जिनसे चिडिया मारने का काम लिया जाना था। इसी बीच आदिवासियों और पुलिस में एक विचाराधीन कैदी को जेल ले जाते समय झड़प हुई जिसमे एक सूबेदार सरदार अवतार सिंह की मौत हो गयी। इसके बाद पुलिस नें आनन-फानन में राजमहल परिसर को घेर लिया; आँसूगैस छोडी गयी तथा फिर बिना चेतावनी के ही फायरिंग होने लगी। दोपहर बारह बजे तक अधिकतम आदिवासी मैदानों से हट कर महल के भीतर शरण ले चुके थे। धनुषों पर वाण चढ़ गये और जहाँ-तहाँ से गोलियों का जवाब भी दिया जाने लगा। दोपहर के दो बजे गोलियों की आवाज़े कुछ थमीं। सिपाहियों के लिये खाने का पैकेट पहुँचाया गया था। छुटपुट धमाके फिर भी जारी रहे। कोई सिर या छाती नजर आयी नहीं कि बंदूखें गरजने लगती थीं। दोपहर के ढ़ाई बजे; लाउडस्पीकर से घोषणा की गयी – " सभी आदिवासी महल से बाहर आ कर आत्मसमर्पण कर दें। जो लोग निहत्थे होंगे उनपर गोलियाँ नहीं चलायी जायेंगी।" प्रवीर ने औरतों और बच्चों को आत्मसमर्पण करने के लिये प्रेरित किया। लगभग डेढ़ सौ औरतें अपने बच्चों के साथ बाहर आयीं। जैसे ही वे सिंहद्वार की ओर आत्मसमर्पण के लिये बढीं, मैदान में सिपाहियों ने उन्हें घेर लिया। यह जुनून था अथवा आदेश...बेदर्दी से लाठियाँ बरसाई जाने लगीं। क्या इसके बाद किसी की हिम्मत हो सकती थी कि वो आत्मसमर्पण करे? शाम साढे चार बजे एक काले रंग की कार प्रवीर के निवास महल के निकट पहुँची। प्रवीर और उसके आश्रितों को आत्मसमर्पण के लिये आवाज़ दी गयी। आवाज सुन कर प्रवीर पोर्चे से लगे बरामदे तक आये किंतु अचानक ही उनपर गोली चला दी गयी, गोली जांघ में जा धँसी थी। इसके बाद महल के भीतरी हिस्सों में जहाँ तहाँ से गोली चलने की आवाज़े आने लगी थीं। आदिम वाणों ने बहुत वीरता से देर तक गोलियों को अपने देवता के शयनकक्ष तक पहुँचने से रोके रखा। एक प्रत्यक्षदर्शी अर्दली के अनुसार बहुत से सिपाही राजा के कमरे के भीतर घुस आये थे। जब वह सीढियों से नीचे उतर कर भाग रहा था उसे गोलियाँ चलने की कई आवाजें सुनाई दीं...वह जान गया था कि उनके महाराज प्रवीर चंद्र भंजदेव मार डाले गये हैं। शाम के साढे चार बजे इस आदिवासी ईश्वर का अवसान हो गया था। प्रवीर की मृत्यु के साथ ही राजमहल की चारदीवारी के भीतर चल रहे संघर्ष ने उग्र रूप ले लिया। अब यह प्रतिक्रिया का युद्ध था जिसमें मरने या मारने का जुनून सन्निहित था। रात्रि के लगभग 11.30 तक निरंतर संघर्ष जारी रहा और गोली चलाने की आवाजें भी लगातार महल की ओर से आती रहीं थीं। इसके बाद रुक रुक कर गोली चलाये जाने का सिलसिला अलगे दिन की सुबह चार बजे तक जारी रहा। 26.03.1966; सुबह के ग्यारह बजे; जिलाधीश तथा अनेकों पुलिस अधिकारी महल के भीतर प्रविष्ठ हो सके। इसी शाम प्रवीर का अंतिम संस्कार कर दिया गया। प्रवीर बस्तर की आत्मा थे वे नष्ट नहीं किये जा सके। आज भी वे बस्तर के लगभग हर घर में और हर दिल मे उपस्थित हैं।
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- Ak Pankaj, Pankaj Chaturvedi, Sunil Kumar Sharma and 39 others like this.
- Indrajeet Kashyap Kisi Samaaj ko andhakar main dhakelne ke liye uske netrutva ko khatm karne ka ye kutil tarika bahut puraana hain aur ye ghatna bastar ke aadiwasiyon ke itihaas ko andhakar ke aur modne wali ghatna thi jiski kimat aaj bhi Bastar chuka raha hain.
Lekh ke liye Abhaar
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