बाल ठाकरे : प्रामाणिक भारतीय फासीवाद
Author: समयांतर डैस्क Edition : December 2012
प्रवीण स्वामी
महान मार्क्सवादी बुद्धिजीवी अंतोनियो ग्राम्शी ने अपनी एक पुस्तक में फासीवाद की जो परिभाषा दी थी, उसे बालासाहेब केशव ठाकरे ने शायद कभी न पढ़ा हो, लेकिन आजीवन वे उसका जीता-जागता उदाहरण बने रहे। ग्राम्शी लिखते हैं, "फासीवाद का अपना कोई पक्ष नहीं है; उसके दरवाजे सभी के लिए खुले हैं; संकटमोचक होने का वादा निभाने के क्रम में उसने एक ऐसी भीड़ को भावनाओं, नफरत व इच्छाओं के हिंसक इजहार पर धुंधले राजनीतिक आदर्शों का मुलम्मा चढ़ाने में समर्थ बना दिया है जिसका अपना कोई चेहरा नहीं है। फासीवाद इस प्रकार सामाजिक रीति का सवाल बन चुका है: इसकी पहचान अब इटली में रहने वाले एक वर्ग विशेष की बर्बर और समाजविरोधी मनोदशा से होने लगी है जिसके ऊपर नई परंपरा, शिक्षा और एक सुव्यवस्थित व सुशासित राज्य में सह-अस्तित्व के विचार का कोई असर नहीं पड़ा है।"
ठाकरे के गुजरने पर देश के तमाम प्रभावशाली चेहरों ने जैसा विलाप शुरू किया, वैसा आम तौर पर संत-महात्माओं या फिल्मी सितारों के लिए बचा कर रखा जाता है। अजय देवगन ने उन्हें 'दृष्टा' बताया, तो रामगोपाल वर्मा ने 'सत्ता का सच्चा प्रतीक'। अमिताभ बच्चन ने उनके 'साहस की प्रशंसा' कर डाली तो लता मंगेशकर को लगा जैसे वे 'अनाथ' हो गई हों। यहां तक कि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी खुद को रोक नहीं पाए और ठाकरे के निधन को 'अपूरणीय क्षति' करार दिया। टीवी के रिपोर्टर मिमियाते स्वर में उनके लिए जिस सबसे अप्रिय शब्द का इस्तेमाल कर सके, वह था 'विभाजक'।
इस घिनौने कोरस को डर या चापलूसी से उपजा कह पाने का लोभ संवरण मैं नहीं कर पा रहा। इसके बावजूद, कुछ और गहरा लक्षण इसके पीछे जरूर है। ठाकरे ने 1967 में दैनिक नवकाल से कहा था, "आज भारत को एक हिटलर की जरूरत है।" भारत का गणतंत्र विरोधी अभिजात वर्ग दरअसल इसी विरासत का मर्सिया गा रहा है।
ठाकरे को कई बातों के लिए याद किया जाएगा। इसमें 1992-93 के हिंसक सांप्रदायिक दंगे भी शामिल हैं। वे हालांकि ऐसी सामूहिक हत्याओं के जनक तो नहीं थे, न ही उन्हें इसका बहुत अभ्यास था लेकिन जिस खांटी हिंदुस्तानी फासीवाद का यह नतीजा रहा, उसे आकार देने का काम ठाकरे ने ही किया था।
ठाकरे का फासीवाद एक यूटोपिया था, लेकिन वैसा नहीं जैसा हम आम तौर पर समझते आए हैं। ठाकरे ने जिस जमीन पर अपना फासीवादी प्रोजेक्ट लगाया, वहां वाम ताकतें पहले से ही काफी मजबूत थीं और वे एक नए समतावादी विश्व की परिकल्पना में जुटी हुई थीं। पहले से मौजूद कांग्रेस पार्टी की परिकल्पना वाला समाज कहीं ज्यादा दुनियावी था, शायद ज्यादा वास्तविक भी। यह धरती पर स्वर्ग जैसा कुछ-कुछ था, जो नगरपालिका के छोटे-मोटे घोटालों से लेकर कुछ बड़े घपलों तक मरीन ड्राइव पर बने अपार्टमेंट की शक्ल में अभिव्यक्त होता था। ठाकरे की शिव सेना के पास एक नहीं कई मुखौटे थे, जैसे वह दक्षिण भारतीयों की विरोधी थी, तो उत्तर भारतीयों की भी विरोधी थी, और मुस्लिम की विरोधी तो थी ही। सेना की परिकल्पना में स्वर्ग जैसा कुछ भी नहीं था। उसका बस एक वादा था कि आप जब चाहे तब किसी को अपने नरक की सजा दे सकते थे, और उसी अवसर का वह दोहन करती थी।
मुंबई के बारे में जिन्होंने शिद्दत से लिखा है, वे बताते हैं कि साठ और सत्तर के दशक में यह शहर संस्कृतियों का संगम हुआ करता था। यह अवसरों की राजधानी था। यह शहर एक जीता-जागता नरक भी था। एस. गीता और मधुरा स्वामिनाथन ने 1995 में लिखा कि मुंबई की आधी आबादी झुग्गियों में रहती है जो शहर के समूचे भूक्षेत्र का सिर्फ 6 फीसदी है। तीन-चौथाई लड़कियां और दो-तिहाई से ज्यादा लड़के अल्पपोषित हैं। माइक डेवीज ने लिखा कि शहर में औपचारिक आवासन का तीन-चौथाई एक कमरे का दड़बा है जिनमें छह या उससे ज्यादा लोगों के परिवार "15 वर्ग मीटर में ठुंसे रहते हैं और छह परिवार एक ही शौचालय को साझा करते हैं।"
मुंबई में कारखानों के केंद्र गिरगांव का पतन सत्तर के दशक में शुरू होता है जो सेना की फासीवादी परियोजना के लिए फायदेमंद साबित होता है। मजदूर नेता दत्ता सामंत ने जब 1982 में कपड़ा मजदूरों की ऐतिहासिक हड़ताल करवाई थी, उस वक्त गिरगांव में 2,40,000 लोग काम करते थे। एक दशक के भीतर यह हालत हो गई कि कुछ के पास ही नौकरियां बचीं। जिन जमीनों पर मिलें खड़ी थीं, वे बेहद महंगी हो गईं और मिल मालिकों ने जान-बूझ कर अपने उद्योगों को दिवालिया होने के कगार पर ला दिया ताकि सरकार उन्हें बीमारू ठहरा कर जमीन बेचने की इजाजत दे सके।
इन्हीं गलियों में ठाकरे ने अपनी राजनीति चमकाई। उन्होंने एक ऐसी राजनीति खड़ी की जो अवसरविहीन पढ़े-लिखे युवाओं के असंतोष को आवाज देती थी और हिंसा को मुक्ति का रास्ता बताती थी। शिव सेना के कार्यकर्ताओं को इससे कोई मतलब नहीं होता था कि उनकी हिंसा का शिकार कौन हो रहा था- उनमें छोटे उद्योग-धंधे चलाने वाले दक्षिण भारतीय और गुजराती थे, वामपंथी मजदूर नेता थे, मुस्लिम थे और उत्तर भारत से काम की तलाश में पलायन कर के आए हुए लोग भी थे।
अमिताभ बच्चन और बाल ठाकरे के करीबी रिश्तों पर फिर हमें अचरज नहीं होना चाहिए। यश चोपड़ा द्वारा निर्देशित 1975 में आई फिल्म दीवार में बच्चन का पात्र अपनी ट्रेड यूनियन विरासत को खारिज करता है और बगावत के नाम पर अपराधी बन जाता है। अंत में अच्छी छवि वाला उसका पुलिसिया सगा भाई उसे मार देता है। फिल्म जिस चेतना का निर्माण करती है, शिव सेना दरअसल ठीक उसी की पैदाइश थी। अमिताभ बच्चन द्वारा निभाए गए बुरे पात्र के साथ तमाम भारतीय युवाओं की तरह सेना के रंगरूटों की भी सहानुभूति थी।
इसी मुंबई में पले-बढ़े माफिया दाउद इब्राहिम कास्कर की तर्ज पर सेना भी लोगों को संरक्षण देती थी, उन्हें ताकत का अहसास कराती थी और पैसे कमाने के अवसर देती थी। उसका मूल कारोबार हालांकि लोगों को उनकी मरदानगी का अहसास करवाना रहा, वरना सेना के चलाए स्कूल, अस्पताल या धर्मार्थ संस्थान न के बराबर हैं। सेना अच्छे काम करने के लिए बनी ही नहीं थी।
फासीवादी खतरा
ग्राम्शी के मुताबिक फासीवाद निष्क्रिय हो चुकी राजनीतिक व्यवस्था का उत्पाद है। फासीवाद परिणाम है, कारण नहीं। उदारवादी भारत की सबसे बड़ी नाकामी दरअसल फासीवाद के साथ सह-अस्तित्व की कवायद है। जाहिर है, न तो फिल्म उद्योग में बैठे ठाकरे के चाहने वाले और न ही प्रणब मुखर्जी वैचारिक रूप से प्रतिक्रियावादी हैं। उदार भारतीय राजनीतिक संस्कृति का केंद्र रही कांग्रेस ने लगातार सांप्रदायिकता के साथ समझौते किए हैं। यह कोई संयोग नहीं कि 1992-93 तक और उसके बाद भी ठाकरे के उभार पर कांग्रेस की दयादृष्टि बनी रही।
इस ऐतिहासिक नाकामी के असर को देश की विविधता ने लगातार कम किया है। ठाकरे, कश्मीरी इस्लामिक ताकतें, खालिस्तानी या बिहार की रणवीर सेना का फासीवाद स्थानीय या ज्यादा से ज्यादा प्रांतीय रहा। यहां तक कि 1992-93 में हिंदुत्ववादी फासीवाद का महान उभार भी अंतत: भारतीय चुनावी परिदृश्य की विविधता में कहीं खो गया।
इसके बावजूद हम ऐसी कामयाबी को हलके में नहीं ले सकते। फासीवाद दरअसल युवाओं की राजनीति है। इसमें कोई अचरज नहीं कि ठाकरे अपने अंत से पहले तक बाल रंगते रहे और अपनी झुर्रियां छुपाने के लिए सौंदर्य प्रसाधन लगाते रहे। ध्यान रहे कि अब से लेकर 2026 तक भारत के राजनीतिक रूप से कुछ संवेदनशील हिस्सों जैसे बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर में युवाओं की आबादी लगातार बढऩे वाली है।
हरबर्ट मोलर ने 1968 में एक महत्त्वपूर्ण लेख में लिखा था कि कैसे 1900 से 1914 के बीच पैदा हुए बच्चों का अचानक रोजगार के बाजार में 'एक दस्ते' की तरह उभार हुआ- जो कि "पहले के किसी अन्य आबादी वर्ग के मुकाबले कहीं ज्यादा विशाल था"- जिसने जर्मनी में नाजियों के उभार को अपना कंधा दिया। इतिहासकार पॉल मैडेन ने नाजी पार्टी की आरंभिक सदस्यता पर 1983 में एक अध्ययन किया और पाया कि "पार्टी युवाओं की थी और आंदोलन जबरदस्त रूप से पुरुषबल पर टिका था जिसने निम्न मध्य वर्ग और छोटे काम-धंधों से जुड़े लोगों को भारी संख्या में अपना सदस्य बनाया।"
पिछले कई वर्षों में आए आर्थिक बदलावों ने जब अधिकांश जनता के लिए आत्मसम्मान और नागरिक भागीदारी के साथ जीना बेहद मुश्किल कर दिया हो, हमने इसके समानांतर युवा आबादी की प्रतिक्रियाओं में बढ़ते हठ और जोर को भी देखा है जिसे अपरिपक्व भी नहीं कहा जा सकता। हरियाणा में महिलाओं का बलात्कार करने वाले आदिम गिरोहों से लेकर हालिया सांप्रदायिक हिंसा की लहर पर सवार कट्टर हिंदू और मुस्लिम नौजवानों तक नजर दौड़ाएं तो हम पाते हैं कि सड़कछाप राजनीति अब विकृत मरदानगी से और ज्यादा संचालित हो रही है। इस पीढ़ी के आक्रोश का दोहन करने में जो कामयाबी ठाकरे ने हासिल की थी, इसमें कोई शक नहीं कि हिंसा के दूसरे पैरोकार भी आने वाले वर्षों में उसी राह पर आगे बढ़ेंगे।
भारत को अब एक ऐसे राजनीतिक अभियान की सख्त जरूरत है जिसमें मरदानगी के प्रगतिशील संस्करण की गुंजाइश बन सके और उसका निर्माण परिवार, संस्कृति से लेकर आर्थिक न्याय आदि हर चीज के एक नए नजरिये के इर्द-गिर्द हो। फिलहाल, ऐसी किसी पहल का कोई अगुवा दूर-दूर तक नहीं दिखता।
अनु.: अभिषेक श्रीवास्तव,साभार: द हिंदू
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