भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) इस हमले की पूर्ण जिम्मेदारी लेती है!
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के काफिले पर जानलेवा हमला करके कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं सहित 30 लोगों को मौत के घाट उतार देने के बाद माओवादी मैदान से भागने की बजाय मैदान में उतर आये हैं। माओवादी संगठन द्वारा जहां बीबीसी को एक आडियो संदेश भेजकर इसकी जिम्मेदारी ली गई है वहीं अंग्रेजी सहित तेलुगु और हिन्दी में प्रेस विज्ञप्ति बनाकर गूगल ड्राइव पर अपलोड की गई है। 26 मई को जारी की गई इस प्रेस विज्ञप्ति में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने इस घटना की पूर्ण जिम्मेदारी लेते हुए सूचित किया है कि इसे दण्डकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी ने अंजाम दिया है। कांग्रेस पर इस हमले के लिए कांग्रेस द्वारा चलाये गये आपरेशन ग्रीन हण्ट को जिम्मेदार बताते हुए इसे अनिवार्य प्रतिशोध बताया है।
25 मई 2013 को जन मुक्ति गुरिल्ला सेना की एक टुकड़ी ने कांग्रेस पार्टी के बड़े नेताओं के 20 गाड़ियों के काफिले पर भारी हमला कर बस्तर की उत्पीड़ित जनता का जानी दुश्मन महेन्द्र कर्मा, छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल समेत कुल कम से कम 27 कांग्रेसी नेताओं, कार्यकर्ताओं और पुलिस बलों का सफाया कर दिया। यह हमला उस समय किया गया था जब आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर कांग्रेस के दिग्गज नेता 'परिवर्तन यात्रा' चला रहे थे। इस कार्रवाई में भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री व वरिष्ठ कांग्रेस नेता विद्याचरण शुक्ल समेत कम से कम 30 लोग घायल हो गए। इस ऐतिहासिक हमले में उत्पीड़क, हत्यारा, बलात्कारी, लुटेरा और भ्रष्टाचारी के रूप में बदनाम महेन्द्र कर्मा के कुत्ते की मौत मारे जाने से समूचे बस्तर क्षेत्र में जश्न का माहौल बन गया।
पूर्व में गृहमंत्री के रूप में काम करने वाला नंदकुमार पटेल जनता पर दमनचक्र चलाने में आगे ही रहा था। उसके समय में ही बस्तर क्षेत्र में पहली बार अर्द्धसैनिक बलों (सीआरपीएफ) की तैनाती की गई थी। यह भी किसी से छिपी हुई बात नहीं कि लम्बे समय तक केन्द्रीय मंत्रीमंडल में रहकर गृह विभाग समेत विभिन्न अहम मंत्रालयों को संभालने वाला वी.सी. शुक्ल भी जनता का दुश्मन है जिसने साम्राज्यवादियों, दलाल पूंजीपतियों और जमींदारों के वफादार प्रतिनिधि के रूप में शोषणकारी नीतियों को बनाने और लागू करने में सक्रिय भागीदारी ली। इस हमले का लक्ष्य मुख्य रूप से महेन्द्र कर्मा तथा कुछ अन्य प्रतिक्रियावादी कांग्रेस नेताओं का खात्मा करना था। हालांकि इस भारी हमले में जब हमारे गुरिल्ला बलों और सशस्त्र पुलिस बलों के बीच लगभग दो घण्टों तक भीषण गोलीबारी हुई थी उसमें फंसकर कुछ निर्दोष लोगों और निचले स्तर के कांग्रेस कार्यकर्ताओं, जो हमारे दुश्मन नहीं थे, की जानें भी गईं। इनकी मृत्यु पर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की दण्डकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी खेद प्रकट करती है और उनके शोकसंतप्त परिवारजनों के प्रति संवेदना प्रकट करती है।
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की दण्डकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी इस हमले की पूर्ण जिम्मेदारी लेती है। इस बहादुराना हमले का नेतृत्व करने वाले पीएलजीए के कमाण्डरों, हमले को सफल बनाने वाले वीरयोद्धाओं, इसे सफल बनाने में प्रत्यक्ष और परोक्ष सहयोग देने वाली जनता और समूची बस्तरिया क्रांतिकारी जनता का दण्डकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी इस मौके पर क्रांतिकारी अभिनंदन करती है। इस वीरतापूर्ण हमले से यह सच्चाई फिर एक बार साबित हो गई कि जनता पर अमानवीय हिंसा, जुल्म और कत्लेआम करने वाले फासीवादियों को जनता कभी माफ नहीं करेगी, चाहे वे कितने बड़े तीसमारखां भी क्यों न हो आखिर जनता के हाथों सजा भुगतनी ही होगी।
आदिवासी नेता कहलाने वाले महेन्द्र कर्मा का ताल्लुक दरअसल एक सामंती मांझी परिवार से रहा। इसका दादा मासा कर्मा था और बाप बोड्डा मांझी था जो अपने समय में जनता के उत्पीड़क और विदेशी शासकों के गुर्गे रहे थे। इसके दादा के जमाने में नवब्याहाता लड़कियों को उसके घर पर भेजने का रिवाज रहा। इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसका खानदान कितना कुख्यात था। इनका परिवार पूरा बड़े भूस्वामी होने के साथ-साथ आदिवासियों का अमानवीय शोषक व उत्पीड़क रहा। महेन्द्र कर्मा की राजनीतिक जिंदगी की शुरूआत 1975 में एआईएसएफ के सदस्य के रूप में हुई थी जब वह वकालत की पढ़ाई कर रहा था। 1978 में पहली बार भाकपा की तरफ से विधायक बना था। बाद में 1981 में जब उसे भाकपा की टिकट नहीं मिली थी तो कांग्रेस में चला गया। बीच में जब कांग्रेस में फूट पड़ी थी तो वह माधवराव सिंधिया द्वारा बनाई गई पार्टी में शामिल होकर 1996 में लोकसभा सदस्य बना था। बाद में फिर कांग्रेस में आ गया। 1996 मेें बस्तर में छठवीं अनुसूची लागू करने की मांग से एक बड़ा आंदोलन चला था। हालांकि उस आंदोलन का नेतृत्व मुख्य रूप से भाकपा ने किया था, उस समय की हमारी पार्टी भाकपा (माले) (पीपुल्सवार) ने भी उसमें सक्रिय रूप से भाग लेकर जनता को बड़े पैमाने पर गोलबंद किया था। लेकिन महेन्द्र कर्मा ने बाहर के इलाकों से आकर बस्तर में डेरा जमाकर करोड़पति बने स्वार्थी शहरी व्यापारियों का प्रतिनिधित्व करते हुए उस आंदोलन का पुरजोर विरोध किया था। इस तरह उसी समय उसके आदिवासी विरोधी व दलाल चरित्र को जनता ने साफ पहचाना था। 1980 के दशक से ही बस्तर के बड़े व्यापारी व पूंजीपति वर्गों से उसके सम्बन्ध मजबूत हुए थे।
उसके बाद 1999 में 'मालिक मकबूजा' के नाम से चर्चित एक घोटाले में कर्मा का नाम आया था। 1992-96 के बीच उसने लगभग 56 गांवों में फर्जीवाड़े आदिवासियों की जमीनों को सस्ते में खरीदकर, राजस्व व वन अधिकारियों से सांठगांठ कर उन जमीनों के अंदर मौजूद बेशकीमती पेड़ों को कटवाया था। चोर व्यापारियों को लकड़ी बेचकर महेन्द्र कर्मा ने करोड़ों रुपए कमा लिए थे, इस बात का खुलासा लोकायुक्त की रिपोर्ट से हुआ था। हालांकि इस पर सीबीआई जांच का आदेश भी हुआ था लेकिन सहज ही दोषियों को सजा नहीं हुई।
दलाल पूंजीपतियों और बस्तर के बड़े व्यापारियों के प्रतिनिधि के रूप में कांग्रेस की ओर से चुनाव जीतने के बाद महेन्द्र कर्मा को अविभाजित मध्यप्रदेश शासन मेें जेल मंत्री और छत्तीसगढ़ के गठन के बाद उद्योग मंत्री बनाया गया था। उस समय सरकार ने नगरनार में रोमेल्ट/एनएमडीसी द्वारा प्रस्तावित इस्पात संयंत्र के निर्माण के लिए जबरिया जमीन अधिग्रहण किया था। स्थानीय जनता ने अपनी जमीनें देने से इनकार करते हुए आंदोलन छेड़ दिया जबकि महेन्द्र कर्मा ने जन विरोधी रवैया अपनाया था। तीखे दमन का प्रयोग कर, जनता के साथ मारपीटकर, फर्जी केसों में जेलों में कैद कर आखिर में जमीनें बलपूर्वक छीन ली गईं जिसमें कर्मा की मुख्य भूमिका रही। नगरनार में जमीनें गंवाने वाली जनता को आज तक न तो मुआवजा मिला, न ही रोजगार मिला जैसे कि सरकार ने वादा किया था। वो सब तितर-बितर हो गए।
क्रांतिकारी आंदोलन के प्रति महेन्द्र कर्मा शुरू से ही कट्टर दुश्मन रहा। ठेठ सामंती परिवार में पैदा होना और बड़े व्यापारी/पूंजीपति वर्गों के प्रतिनिधि के रूप में 'बड़ा' होना ही इसका कारण है। क्रांतिकारी आंदोलन के खिलाफ 1990-91 में पहला जन जागरण अभियान चलाया गया था। इसमें संशोधनवादी भाकपा ने सक्रिय रूप से भाग लिया था। इस प्रति-क्रांतिकारी व जन विरोधी अभियान में कर्मा और उसके कई रिश्तेदारों ने, जो भूस्वामी थे, सक्रिय भाग लिया था। 1997-98 के दूसरे जन जागरण अभियान की महेन्द्र कर्मा ने खुद अगुवाई की थी। उसके गृहग्राम फरसपाल और उसके आसपास के गांवों में शुरू हुआ यह अभियान भैरमगढ़ और कुटरू इलाकों में भी पहुंच चुका था। सैकड़ों लोगों को पकड़कर, मारपीट करके जेल भेज दिया गया था। लूटपाट और घरों में आग लगाने की घटनाएं हुईं। महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया। हालांकि हमारी पार्टी और जन संगठनों के नेतृत्व में जनता ने एकजुट होकर इस हमले का जोरदार मुकाबला किया। इससे कम समय के अंदर ही वह अभियान परास्त हो गया था।
उसके बाद क्रांतिकारी आंदोलन और ज्यादा संगठित हो गया। कई इलाकों में सामंतवाद-विरोधी संघर्ष तेज हो गए। इसके तहत हुए जन प्रतिरोध में महेन्द्र कर्मा के सगे भाई जमींदार पोदिया पटेल समेत कुछ नजदीकी रिश्तेदार मारे गए थे। गांव-गांव में सामंती ताकतों व दुष्ट मुखियाओं की सत्ता को उखाड़ फेंककर क्रांतिकारी जन राजसत्ता के अंगों के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई। गांवों में जन विरोधी व सामंती तत्वों से जमीनें छीनकर जनता में बंटवारा करना, अतीत में जारी कबीले के मुखियाओं द्वारा नाजायज जुर्माने वसूले जाने की पद्धति को बंद कर जनता का जनवादी शासन को शुरू करना कट्टर सामंती अहंकार से सराबोर महेन्द्र कर्मा को बिल्कुल रास नहीं आया। महिलाओं की जबरिया शादियां करवाने पर रोक, बहुपत्नीत्व आदि रिवाजों को हतोत्साहित करना आदि प्रगतिशील बदलाव भी सामंती ताकतों के गले नहीं उतरे। उसी समय बस्तर क्षेत्र में भारी परियोजनाएं शुरू कर यहां की जनता को बड़े पैमाने पर विस्थापित कर यहां की प्राकृतिक सम्पदाओं का दोहन करने की मंशा से उतरे टाटा, एस्सार जैसे कार्पोरेट घरानों के लिए भी यहां का विकासशील क्रांतिकारी आंदोलन आंखों की किरकिरी बना था। इसलिए उन्होंने सहज ही महेन्द्र कर्मा जैसी प्रतिक्रांतिकारी ताकतों से सांठगांठ कर ली। उन्हें करोड़ों रुपए की दलाली खिला दी ताकि अपनी मनमानी लूटखसोट के लिए माकूल माहौल बनाया जा सके। दूसरी ओर, देश भर में सच्चे क्रांतिकारी संगठनों के बीच हुए विलय के बाद एक संगठित पार्टी के रूप में भाकपा (माओवादी) के आविर्भाव की पृष्ठभूमि में उसे कुचल देने के लिए शोषक शासक वर्गों ने अपने साम्राज्यवादी आकाओं के इशारों पर प्रतिक्रांतिकारी हमला तेज कर दिया। अपनी एलआईसी नीति के तहत महेन्द्र कर्मा जैसी कट्टर प्रतिक्रांतिकारी ताकतों को आगे करते हुए एक फासीवादी हमले की साजिश रचाई। इस तरह, कांग्रेस और भाजपा की सांठगांठ से एक बर्बरतापूर्ण हमला शुरू कर दिया गया जिसे 'सलवा जुडुम' नाम दिया गया। रमन सिंह और महेन्द्र कर्मा के बीच कितना बढ़िया तालमेल रहा इसे समझने के लिए एक तथ्य काफी है कि मीडिया में कर्मा को रमन मंत्रीमण्डल का 'सोलहवां मंत्री' कहा जाने लगा था। सोयम मूका, रामभुवन कुशवाहा, अजयसिंह, विक्रम मण्डावी, गन्नू पटेल, मधुकरराव, गोटा चिन्ना, आदि महेन्द्र कर्मा के करीबी और रिश्तेदार सलवा जुडूम के अहम नेता बनकर उभरे थे। साथ ही, उसके बेटे और अन्य करीबी रिश्तेदार सरपंच पद से लेकर जिला पंचायत तक के सभी स्थानीय पदों पर कब्जा करके गुण्डागर्दी वाली राजनीति करते हुए, सरकारी पैसों का बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार करते हुए कार्पोरेट कम्पनियों और बड़े व्यापारियों का हित पोषण कर रहे हैं।
और सलवा जुडूम ने बस्तर के जन जीवन में जो तबाही मचाई और जो क्रूरता बरती उसकी तुलना में इतिहास में बहुत कम उदाहरण मिलेंगे। कुल एक हजार से ज्यादा लोगों की हत्या कर, 640 गांवों को कब्रगाह में तब्दील कर, हजारों घरों को लूट कर, मुर्गों, बकरों, सुअरों आदि को खाकर और लूटकर, दो लाख से ज्यादा लोगों को विस्थापित कर, 50 हजार से ज्यादा लोगों को बलपूर्वक 'राहत' शिविरों में घसीटकर सलवा जुडूम जनता के लिए अभिशाप बना था। सैकड़ों महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया। कई महिलाओं की बलाात्कार के बाद हत्या कर दी गई। कई जगहों पर सामूहिक हत्याकाण्ड किए गए। हत्या के 500, बलात्कार के 99 और घर जलाने के 103 मामले सर्वोच्च अदालत में दर्ज हैं तो यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन अपराधों की वास्तविक संख्या कितनी ज्यादा होगी। सलवा जुडूम के गुण्डा गिरोहों, खासकर पुलिस व अर्द्धसैनिक बलों, नगा और मिज़ो बटालियनों ने जनता पर जो कहर बरपाया और जो जुल्म किए उसकी कोई सीमा नहीं रही। ऐसी कई घटनाएं हुईं जिसमें लोगों को निर्ममता के साथ टुकड़ों-टुकड़ों में काटकर नदियों में फेंक दिया गया। चेरली, कोत्रापाल, मनकेली, कर्रेमरका, मोसला, मुण्डेर, पदेड़ा, परालनार, पूंबाड़, गगनपल्ली... ऐसे कई गांवों में लोगों की सामूहिक रूप से हत्याएं की गईं। सैकड़ों आदिवासी युवकों को एसपीओ बनाकर उन्हें कट्टर अपराधियों में तब्दील कर दिया गया। महेन्द्र कर्मा ने खुद कई गांवों में सभाओं और पदयात्राओं के नाम से हमलों की अगुवाई की। कई महिलाओं पर अपने पशु बलों को उकसाकर बलात्कार करवाने की दरिंदगी भरे उसके इतिहास को कोई भुला नहीं सकता। जो गांव समर्पण नहीं करता उसे जलाकर राख कर देने, जो पकड़ में आता है उसे अमानवीय यातनाएं देने और हत्या करने की कई घटनाओं में कर्मा ने खुद भाग लिया था। इस तरह महेन्द्र कर्मा बस्तर की जनता के दिलोदिमाग में एक अमानुष हत्यारा, बलात्कारी, डकैत और बड़े पूंजीपतियों के वफादार दलाल के रूप में अंकित हुआ था। पूरे बस्तर में जनता कई सालों से हमारी पार्टी और पीएलजीए से मांग करती रही कि उसे दण्डित किया जाए। कई लोग उसका सफाया करने में सक्रिय सहयोग देने के लिए स्वैच्छिक रूप से आगे आए थे। कुछ कोशिशें हुई भी थीं लेकिन छोटी-छोटी गलतियों और अन्य कारणों से वह बचता रहा। आखिरकार, कल, जनता के सक्रिय सहयोग से किए गए इस बहादुराना हमले में हमारी पीएलजीए ने महेन्द्र कर्मा का सफाया कर बस्तर की जनता को बेहद राहत पहुंचाई।
इस कार्रवाई के जरिए हमने उन एक हजार से ज्यादा आदिवासियों की ओर से बदला ले लिया जिनकी सलवा जुडूम के गुण्डों और सरकारी सशस्त्र बलों के हाथों हत्या हुई थी। हम उन सैकड़ों मां-बहनों की ओर से बदला ले लिया जो बेहद अमावीय हिंसा, अपमान और अत्याचारों का शिकार हुई थीं। हम उन हजारों बस्तरवासियों की ओर से बदला ले लिया जो अपने घरों, मवेशियों, मुर्गों-बकरों, गंजी-बर्तनों, कपड़ों, अनाज, फसलों... सब कुछ गंवाकर ठहरने की छांव तक छिन जाने से घोर बदहाली झेलने पर मजबूर कर दिए गए थे। घरबार गंवाकर, टिककर रहने तक की जगह के अभाव में, इस अनभिज्ञता से कि अपने प्रियजनों में कौन जिंदा बचा है और कौन खत्म हो गया, बदहवास तितर-बितर हुए तमाम लोगों के गुस्से और आवेश को एक न्यायोचित और आवश्यक अभिव्यक्ति देते हुए हमने महेन्द्र कर्मा का सफाया कर दिया।
इस हमले के तुरंत बाद प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी, छत्तीसगढ़ मुख्यमंत्री रमनसिंह... सभी ने इसे लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला बताया। भाजपा अध्यक्ष राजनाथसिंह इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए यह आह्वान किया कि दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सबको मिलजुलकर नक्सलवाद और आतंकवाद का मुकाबला करना चाहिए। हम पूछते हैं कि क्या शोषक वर्गों के इन पालतू कुत्तों को लोकतंत्र का नाम तक लेने की नैतिक योग्यता है। अभी-अभी, 17 मई को बीजापुर जिले के एड़समेट्टा गांव में तीन मासूमों समेत आठ लोगों की जब पुलिस व अर्द्धसैनिक बलों ने हत्या की तब क्या इनको 'लोकतंत्र' की याद नहीं आई? जिस काण्ड को खुद कांग्रेस के स्थानीय नेताओं को भी मजबूरन 'नरसंहार' बताना पड़ा था, उस पर इन नेताओं के मुंह पर ताले क्यों लग गए थे? 1 मई को नारायणपुर जिले के मड़ोहनार गांव के फूलसिंह और जयसिंह नामक दो आदिवासी भाइयों को पुलिस थाना बुलाकर हरी वद्रियां पहनाकर गोली मारकर जब 'मुठभेड़' की घोषणा की गई थी तब क्या इनका 'लोकतंत्र' खुश था? 20-23 जनवरी के बीच बीजापुर जिले के पिड़िया और दोड्डि तुमनार गांवों पर हमले कर 20 घरों में आग लगाकर, जनता द्वारा संचालित स्कूल तक को जला देने पर क्या इनका 'लोकतंत्र' फलता-फूलता रहा? 6-9 फरवरी के बीच अबूझमाड़ कहलाने वाले बेहद पिछड़े आदिवासी इलाके के गरीब माड़िया लोगों का गांव गट्टाकाल पर जब सरकारी सशस्त्र बलों ने हमला कर, घरों को लूटकर, जनता के साथ मारपीट कर, गांव में क्रांतिकारी जनताना सरकार द्वारा संचालित स्कूल को जलाकर राख कर दिया था तब इनका 'लोकतंत्र' क्या कर रहा था? आज से ठीक 11 महीने पहले 28 जून 2012 की रात में सारकिनगुड़ा में 17 आदिवासियों के खून की होली खेलना और 13 युवतियों के साथ बलात्कार करना क्या 'लोकतंत्रिक मूल्यों' का हिस्सा था? क्या यह लोकतंत्र महेन्द्र कर्मा जैसे हत्यारों और नंदकुमार पटेल जैसे शोषक शासक वर्गों के गुर्गों पर ही लागू होता है? बस्तर के गरीब आदिवासियों, बूढ़ों, बच्चों और महिलाओं पर लागू नहीं होता? उनका चाहे कितनी बड़ी संख्या में, चाहे कितनी ही बार कत्लेआम करना क्या 'लोकतंत्र' का हिस्सा ही था? क्या इन सवालों का जवाब उन लोगों के पास है जो इस हमले पर हाय तौबा मचा रहे हैं?
2005 से 2007 तक चला सलवा जुडूम जनता के प्रतिरोध से पराजित हो गया। उसके बाद 2009 में कांग्रेस-नीत यूपीए-2 सरकार ने देशव्यापी हमले के रूप में आपरेशन ग्रीनहंट की शुरूआत की। इसके लिए अमेरिकी साम्राज्यवादी न सिर्फ मार्गदर्शन और मदद व सहयोग दे रहे हैं, बल्कि अपने स्पेशल फोर्स को तैनात करके काउण्टर इंसर्जेन्सी आपरेशन्स का संचालन करवा रहे हैं। खासकर माओवादी नेतृत्व की हत्या करने पर उनका जोर है। आपरेशन ग्रीनहंट के नाम से 'जनता पर जारी युद्ध' के अंतर्गत कांग्रेस की केन्द्र सरकार ने अभी तक 50 हजार से ज्यादा अर्द्धसैनिक बल छत्तीसगढ़ में भेज दिए। इसके फलस्वरूप नरसंहारों और तबाही में कई गुना बढ़ोत्तरी हुई। अब तक 400 से ज्यादा आदिवासियों को केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा भेजे गए सशस्त्र पुलिस व अर्द्धसैनिक बलों ने मार डाला। 2011 के मध्य से यहां पर प्रशिक्षण के नाम से सैन्य बलों की तैनाती शुरू कर दी गई। प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह के अलावा पहले चिदम्बरम और शिंदे दोनों ही रमनसिंह द्वारा चलाए जा रहे हमले से खुश होकर लगातार वादे पर वादे कर रहे हैं कि मुंहमांगी सहायता दी जाएगी। रमनसिंह भी केन्द्र से मिल रही मदद पर तारीफ के पुल बांधने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। छत्तीसगढ़ में क्रांतिकारी आंदोलन के दमन की नीतियों के मामले में सत्तारूढ़ भाजपा और विपक्षी कांग्रेस के बीच कोई मतभेद नहीं है। सिर्फ जनता के दबाव में और साथ ही, चुनावी फायदों के मद्देनजर कांग्रेस के कुछ स्थानीय नेताओं ने सारकिनगुड़ा, एड़समेट्टा जैसे नरसंहारों का खण्डन करने का दिखावा किया। जबकि उसमें ईमानदारी बिल्कुल अभाव है। राज्य में रमनसिंह द्वारा लागू जन विरोधी और कार्पोरेट अनुकूल नीतियों के प्रति और दमनात्मक नीतियों के प्रति कांग्रेस को कोई विरोध नहीं है। वह विरोध का महज दिखावा कर रही है जो अवसरवाद के अलावा कुछ नहीं है। दमन की नीतियों को लागू करने में इन दोनों पार्टियों की समान भागीदारी है। इतना ही नहीं, आंध्रप्रदेश से ग्रेहाउण्ड््स बलों का बार-बार छत्तीसगढ की सीमा के अंदर घुसना और पहले कंचाल (2008) और अभी-अभी पुव्वर्ति (16 मई 2013) में भारी हत्याकाण्डों को अंजाम देना भी कांग्रेस द्वारा लागू दमनात्मक नीतियों का ही हिस्सा है। इसीलिए हमने कांग्रेस के बड़े नेताओं को निशाने पर लिया।
आज दण्डकारण्य के क्रांतिकारी आंदोलन के खिलाफ खड़े हुए छत्तीसगढ़ मुख्यमंत्री रमनसिंह, गृहमंत्री ननकीराम कंवर, मंत्री रामविचार नेताम, केदार कश्यप, विक्रम उसेण्डी, राज्यपाल शेखर दत्त, महाराष्ट्र गृहमंत्री आर.आर. पाटिल आदि; डीजीपी रामनिवास, एडीजी मुकेश गुप्ता जैसे पुलिस के आला अधिकारी इस गफलत में हैं कि उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। महेन्द्र कर्मा ने भी इस भ्रम को पाल रखा था कि जड प्लस सेक्यूरिटी और बुलेटप्रूफ गाड़ियां उसे हमेशा बचाएंगी। दुनिया के इतिहास में हिटलर और मुस्सोलिनी भी इसी घमण्ड में थे कि उन्हें कोई नहीं हरा सकता। हमारे देश के समकालीन इतिहास में इंदिरा गांधी, राजीव गांधी जैसे फासीवादी भी इसी गलतफहमी के शिकार थे। लेकिन जनता अपराजेय है। जनता ही इतिहास का निर्माता है। मुठ्ठी भर लुटेरे और उनके चंद पालतू कुत्ते आखिरकार इतिहास के कूड़ादान में ही फेंक दिए जाएंगे।
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की दण्डकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी मजदूरों, किसानों, छात्र-बुद्धिजीवियों, लेखकों, कलाकारों, मीडियाकर्मियों, तमाम जनवादियों से अपील करती है कि वे सरकारों से मांग करें कि आपरेशन ग्रीनहंट को तत्काल बंद कर दिया जाए; दण्डकारण्य में तैनात सभी किस्म के अर्द्धसैनिक बलों को वापस लिया जाए; प्रशिक्षण के नाम से भारत की सेना को बस्तर में तैनात करने की साजिशों को बंद किया जाए; वायुसेना के हस्तक्षेप को रोक दिया जाए; जेलों में कैद क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं और आम आदिवासियों को फौरन व बिना शर्त रिहा किया जाए; यूएपीए, छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा कानून, मकोका, अफस्पा जैसे क्रूर कानूनों को रद्द किया जाए; तथा प्राकृतिक संपदाओं के दोहन की मंशा से विभिन्न कार्पोरेट कम्पनियों के साथ किए गए एमओयू को रद्द किया जाए।
(गुड्सा उसेण्डी)
प्रवक्ता,
दण्डकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)
(गूगल ड्राइव पर अपलोड की गई विज्ञप्ति का लिंक)
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