समकालीन हिंदी कविता के महत्वपूर्ण कवि -वीरेन डंगवाल और उनकी कविताएँ
वरिष्ठ हिंदी कवि -वीरेन डंगवाल सम्पर्क -09675956903 |
परिचय -
वीरेन डंगवाल समकालीन हिंदी कविता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं | सत्तर के दशक में समकालीन हिंदी कविता में वीरेन डंगवाल ,मंगलेश डबराल .राजेश जोशी ,अरुण कमल और अलोक धन्वा जैसे कवि खासे चर्चित हुए ||वीरेन डंगवाल पेशे से अध्यापक और पत्रकार दोनों ही रहे हैं | पहाड़ का दर्द इनकी कविताओं में साफ़ -साफ़ देखा जा सकता है |प्रसिद्ध आलोचक परमानन्द श्रीवास्तव के शब्दों में वीरेन डंगवाल एक कार्यकर्ता [एक्टिविस्ट ]कवि हैं जिन्होंने प्रचलन के विरुद्ध अपना सर्वथा नया मुहावरा गढ़ा है | वीरेन डंगवाल का जन्म 05-08-1947 में कीर्तिनगर टिहरी गढ़वाल में हुआ था | प्रारम्भिक शिक्षा मुजफ्फ़रनगर ,सहारनपुर ,कानपूर ,बरेली और फिर नैनीताल में हुई |उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्व विद्यालय में सम्पन्न हुई | इलाहाबाद से हिंदी में एम0 ए० और हिंदी मिथकों और प्रतीकों पर डी०फ़िल 0 की उपाधि हासिल किया | अरसे तक हिंदी दैनिक अमर उजाला के सम्पादकीय सलाहकार रहे अब भी उसके बोर्ड सदस्य हैं | बरेली कालेज में हिंदी अध्यापन से भी जुड़े रहे | विश्व के महत्वपूर्ण कवियों पाब्लो नेरुदा ,बर्तोल्ल ब्रेख्त ,मिरोस्लाव होलुब ,वास्को पोपा तदेउष रूजेविच और नाज़िम हिकमत जैसे कवियों की कविताओं का अनुवाद वीरेन डंगवाल के महत्वपूर्ण साहित्यिक अवदान हैं |वीरेन डंगवाल की कविताओं का अनुवाद बांग्ला ,मराठी ,पंजाबी ,मलयालम ,मैथिली और अंग्रेजी में हो चुका है | रघुवीर सहाय स्मृति सम्मान ,शमशेर सम्मान ,श्रीकांत वर्मा सम्मानसे सम्मानित वीरेन डंगवाल को वर्ष 2004 में दुश्चक्र में स्रष्टा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार /सम्मान दिया गया |कृतियाँ -इसी दुनिया में ,दुश्चक्र में स्रष्टा ,स्याह ताल और आधारशिला प्रकाशन से इनकी कविताओं का अंगेजी अनुवाद -इट हैज बीन लांग सिंस आई फाउंड एनिथिंग नाम से प्रकाशित हुआ है |वीरेन डंगवाल के अच्छे स्वास्थ्य की कामना के साथ हम उनके कविता संसार से आज अंतर्जाल के पाठकों को सुपरिचित करा रहे हैं |आभार सहित -
वरिष्ठ हिंदी कवि वीरेन डंगवाल और उनकी कविताएँ
एक
सैनिक अनुपस्थिति में छावनी
लाम पर गई है पलटन
बैरकें सूनी पड़ी हैं
निर्भ्रान्त और इत्मीनान से
सड़क पार कर रही बन्दरों की एक डार
एक शैतान शिशु अन्दर
चकल्लस में बार -बार
अपनी माँ की पीठ पर बैठा जा रहा
डांट भी खा रहा बार -बार
छावनी एक साथ कितनी निरापद
और कितनी असहाय
अपने सैनिकों के बग़ैर
दो
बकरियों ने देखा जब बुरूंस वन वसन्त में
लाल -झर -झर -लाल -झर -झर -लाल
हरा बस किंचित कहीं ही ज़रा -ज़रा
बहुत दूरी पर उकेरे वे शिखर -डांडे श्वेत -श्याम
ऐसा हाल !
अद्भुत
लाल !
बकरियों की निश्चल आँखों में
ख़ुमार बन कर छा गया
आ गया
मौसम सुहाना आ गया |
तीन
मोबाइल पर उस लड़की की सुबह
सुबह सबेरे
मुंह भी मैला
फिर भी बोले
चली जा रही
वह लड़की मोबाइल पर
रह -रह चिहुंक जाती है |
कुछ नई -नई -सी विद्या पढ़ने को
दूर शहर से आकर रहने वाली
लडकियों के लिए
एक घर में बने निजी छात्रावास की बालकनी है यह
नीचे सड़क पर
घर वापस लौट रहे भोर के बूढ़े अधेड़ सैलानी
परिंदे अपनी कारोबारी उड़ानों पर जा चुके
सत्र शुरू हो चुका
बादलों भरी सुबह है ठण्डी -ठण्डी
ताज़ा चेहरों वाले बच्चे निकल चले स्कूलों को
उनकी गहमागहमी उनके रुदन- हास से
फिर से प्रमुदित -स्फूर्त हुए वे शहरी बन्दर और कुत्ते
छुट्टी भर थे जो अलसाये |
मार कुद्द्का लम्बी टांगों वाली
हरी -हरी घासहारिन तक ने
उन ही का अभिनन्दन किया
इस सबसे बेख़बर किंतु वह
उद्विग्न हाव -भाव बोले जाती है
कोई बात ज़रूरी होगी अथवा
बात ज़रूरी नहीं भी हो सकती है
चार
रामगढ़ में आकाश के ऊपर भी परछाईं
मंथर चक्कर लगा कर
चीलें
सुखा रहीं अपने डैनों की सीलन को
नीचे हरी -भरी घाटी के किंचित बदराये शून्य में
वही आकाश है उनका उतने नीचे
रात -भर बरसने के बाद
अब जाकर सकुचाई -सी खुली है धूप
मेरी परछाईं पड़ रही
बूंदे टपकाते
बैंगनी -गुलाबी फलों से खच्च लदे
आलूचे के पेड़ पर
बीस हाथ नीचे
मगर उस आकाश से काफ़ी ऊपर |
पांच
नैनीताल में दीवाली
ताल के हृदय बले
दीप के प्रतिबिम्ब अतिशीतल
जैसे भाषा में दिपते हैं अर्थ और अभिप्राय और आशय
तड़ -तड़ाक -तड़ -पड़ -तड़ -तिनक भूम
छूटती है लड़ी एक सामने पहाड़ पर
बच्चों का सुखद शोर
फिंकती हुई चिनगियाँ
बग़ल के घर की नवेली बहू को
माँ से छिपकर फूलझड़ी थमाता उसका पति
जो छुट्टी पर घर आया है बौडर से
छः
समता के लिए
बिटिया कैसे साध लेती है इन आंसुओं को तू
कि वे ठीक तेरे खुले हुए मुंह के भीतर लुढ़क जाते हैं
सड़क पर जाते ऊंट को देखते -देखते भी
टप -टप जारी रहता है जो
अरे वाह ,ये तेरा रोना
बेटी ,खेतों में पतली लतरों पर फलते हैं तरबूज
और आसमान पर फलते हैं तारे
हमारे मन में फलती हैं अभिलाषाएँ
ककड़िया ऐसी
एक दिन बड़ी होना
सब जगह घूमना तू
हमारी इच्छाओं को मजबूत जूतों की तरह पहने
प्रेम करना निर्बाध
नीचे झांक कर सूर्य को उगते हुए देखना
हम नहीं होंगे
लेकिन ऐसे ही तो
अनुपस्थित लोग
जा पहुँचते हैं भविष्य तक
सात
कवि
मैं ग्रीष्म की तेजस्विता हूँ
और गुठली जैसा
छिपा शरद का उष्म ताप
मैं हूँ वसन्त में सुखद अकेलापन
जेब में गहरी पड़ी मूंगफली को छांट कर
चबाता फ़ुरसत से
मैं चेकदार कपड़े की कमीज़ हूँ
उमड़ते हुए बादल जब रगड़ खाते हैं
तब मैं उनका मुखर गुस्सा हूँ
इच्छाएँ आती हैं तरह -तरह के बाने धरे
उनके पास मेरी हर जरूरत दर्ज है
एक फ़ेहरिस्त में मेरी हर कमज़ोरी
उन्हें यह तक मालूम है
कि कब मैं चुप हो कर गरदन लटका लूँगा
मगर फिर भी मैं जाता रहूँगा ही
हर बार भाषा को रस्से की तरह थामे
साथियों के रास्ते पर
एक कवि और कर ही क्या सकता है
सही बने रहने की कोशिश के सिवा
आठ
प्रेम कविता
प्यारी ,बड़े मीठे लगते हैं मुझे तेरे बोल !
अटपटे और उल जुलूल
बेसर -पैर कहाँ से -कहाँ तेरे बोल !
कभी पहुँच जाती है अपने बचपन में
जामुन की रपटन -भरी डालों पर
कूदती हुई फल झाड़ती
ताड़का की तरह गुत्थम -गुत्था अपने भाई से
कभी सोचती है अपने बच्चे को
भांति -भांति की पोशाकों में
मुदित होती है
हाई स्कूल में होमसाइंस थी
महीने में जो कहीं देख लीं तीन फ़िल्में तो धन्य ,
प्यारी
गुस्सा होती है तो जताती है अपना थक जाना
फूले मुंह से उसाँसे छोड़ती है फू -फू
कभी -कभी बताती है बच्चा पैदा करना कोई हँसी नहीं
आदमी लोग को क्या पता
गर्व और लाड़ और भय से चौड़ी करती ऑंखें
बिना मुझे छोटा बनाये हल्का -सा शर्मिन्दा कर देती है
प्यारी
दोपहर बाद अचानक में उसे देखा है मैंने
कई बार चूड़ी समेत कलाई को माथे पर
अलसाये
छुप कर लेटे हुए जाने क्या सोचती है
शोक की लौ जैसी एकाग्र
यों कई शताब्दियों से पृथ्वी की सारी थकान से भरी
मेरी प्यारी !
नौ
नौ
रामसिंह
[1970 में इलाहाबाद में लिखी गई वीरेन डंगवाल की चर्चित कविता ]
[1970 में इलाहाबाद में लिखी गई वीरेन डंगवाल की चर्चित कविता ]
दो रात और तीन दिन का सफ़र तय करके
छुट्टी पर अपने घर जा रहा है रामसिंह
रामसिंह अपना वार्निश की महक मारता ट्रंक खोलो
अपनी गन्दी जर्सी उतार कर कलफदार वर्दी पहन लो
रम की बोतलों को हिफ़ाज़त से रख लो रामसिंह ,वक्त ख़राब है ;
खुश होओ ,तनो ,बस घर में बैठो ,घर चलो |
तुम्हारी याददाश्त बढ़िया है रामसिंह
पहाड़ होते थे अच्छे मौके के मुताबिक
कत्थई -सफ़ेद -हरे में बदले हुए
पानी की तरह साफ़
ख़ुशी होती थी
तुम कंटोप पहन कर चाय पीते थे पीतल के चमकदार गिलास में
घड़े में ,गड़ी हई दौलत की तरह रक्खा गुड़ होता था
हवा में मशक्कत करते चीड़ के पेड़ पसीजते थे फ़ौजियों की तरह
नींद में सुबकते घरों पर गिरा करती थी चट्टानें
तुम्हारा बाप
मरा करता था लाम पर अँगरेज़ बहादुर की ख़िदमत करता
माँ सारी रात रात रोती घूमती थी
भोर में जाती चार मील पानी भरने
घरों के भीतर तक घुस आया करता था बाघ
भूत होते थे
सीले हुए कमरों में
बिल्ली की तरह कलपती हई माँ होती थी ,बिल्ली की तरह
पिता लाम पर कटा करते थे
ख़िदमत करते चीड़ के पेड़ पसीजते थे सिपाहियों की तरह ;
सड़क होती थी अपरिचित जगहों के कौतुक तुम तक लाती हई
मोटर में बैठ कर घर से भागा करते थे रामसिंह
बीहड़ प्रदेश की तरफ़ |
तुम किसकी चौकसी करते हो रामसिंह ?
तुम बन्दूक के घोड़े पर रखी किसकी ऊँगली हो ?
किसका उठा हुआ हाथ ?
किसके हाथों में पहना हुआ काले चमड़े का नफ़ीस दस्ताना ?
ज़िन्दा चीज़ में उतरती हुई किसके चाकू की धार ?
कौन हैं वे ,कौन
जो हर समय आदमी का एक नया इलाज ढूंढते रहते हैं ?
जो रोज़ रक्तपात करते हैं और मृतकों के लिए शोकगीत गाते हैं
जो कपड़ों से प्यार करते हैं और आदमी से डरते हैं
वो माहिर लोग हैं रामसिंह
वे हत्या को भी कला में बदल देते हैं |
पहले वे तुम्हें कायदे से बन्दूक पकड़ना सिखाते हैं
फिर एक पुतले के सामने खड़ा करते हैं
यह पुतला है रामसिंह ,बदमाश पुतला
इसे गोली मार दो ,इसे संगीन भोंक दो
उसके बाद वे तुम्हें आदमी के सामने खड़ा करते हैं
ये पुतले हैं रामसिंह बदमाश पुतले
इन्हें गोली मार दो ,इन्हें संगीन भोंक दो ,इन्हें ...इन्हें ...इन्हें ...
वे तुम पर खुश होते हैं -तुम्हें बख्शीश देते हैं
तुम्हारे सीने पर कपड़े के रंगीन फूल बांधते हैं
तुम्हें तीन जोड़ा वर्दी ,चमकदार जूते
और उन्हें चमकाने की पॉलिश देते हैं
खेलने के लिए बन्दूक और नंगीं तस्वीरें
खाने के लिए भरपेट खाना ,सस्ती शराब
वे तुम्हें गौरव देते हैं और इसके बदले
तुमसे तुम्हारे निर्दोष हाथ और घास काटती हई
लडकियों से बचपन में सीखे गये गीत ले लेते हैं
सचमुच वे बहुत माहिर हैं रामसिंह
और तुम्हारी याददाश्त वाकई बहुत बढ़िया है |
बहुत घुमावदार है आगे का रास्ता
इस पर तुम्हें चक्कर आयेंगे रामसिंह मगर तुम्हें चलना ही है
क्योंकि ऐन इस पहाड़ की पसली पर
अटका है तुम्हारा गाँव
इसलिए चलो ,अब ज़रा अपने बूटों के तस्में तो कस लो
कन्धे से लटका ट्रांजिस्टर बुझा दो तो खबरें आने से पहले
हाँ ,अब चलो गाड़ी में बैठ जाओ ,डरो नहीं
गुस्सा नहीं करो ,तनो
ठीक है अब ज़रा ऑंखें बन्द करो रामसिंह
और अपनी पत्थर की छत से
ओस के टपकने की आवाज़ को याद करो
सूर्य के पत्ते की तरह कांपना
हवा में असमान का फड़फड़ाना
गायों का रंभाते हुए भागना
बर्फ़ के ख़िलाफ़ लोगों और पेड़ों का इकठ्ठा होना
अच्छी खबर की तरह वसन्त का आना
आदमी का हर पल हर पल मौसम और पहाड़ों से लड़ना
कभी न भरने वाले ज़ख्म की तरह पेट
देवदार पर लगे खुशबूदार शहद के छत्ते
पहला वर्णाक्षर लिख लेने का रोमांच
और अपनी माँ की कल्पना याद करो
याद करो कि वह किसका खून होता है
जो उतर आता है तुम्हारी आँखों में
गोली चलने से पहले हर बार ?
कहाँ की होती है वह मिटटी
जो हर रोज़ साफ़ करने के बावजूद
तुम्हारे बूटों के तलवों में चिपक जाती है ?
कौन होते हैं वे लोग जो जब मरते हैं
तो उस वक्त भी नफ़रत से आंख उठाकर तुम्हें देखते हैं ?
आंखे मूंदने से पहले याद करो रामसिंह और चलो |
दस -वीरेन डंगवाल की हस्तलिपि में एक कविता
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