मंच: बिजनौर से बैनेटकोलमैन
Author: समयांतर डैस्क Edition : March 2013
के.एस. तूफान
एक समय था कि नई दिल्ली से हिंदी के केवल दो दैनिक अखबार नवभारत टाइम्स तथा हिंदुस्तान प्रकाशित होते थे। आजकल तो नई दिल्ली में दैनिकों की बाढ़ आई हुई है। प्रत्येक मीडिया ग्रुप नई दिल्ली से अपना दैनिक प्रकाशित कर अपने को तीसमार खां समझता है, भले ही उस अखबार की सामग्री पठनीय, सुरुचिपूर्ण एवं गुणवत्तापूर्ण नहीं हो।नवंबर, 2012 के समयांतर में बैनेट कोलमैन एंड कंपनी के विषय में भूपेन सिंह का अत्यंत गंभीर एवं सारगर्भित लेखछपा था। उन्होंने इस लेख में जैन बंधुओं की कारगुजारी के विषय में विस्तृत प्रकाश डाला है। इसी बैनेट कोलमैन एंड कंपनी के कर्मचारी निदेशक रमेशचंद्र जैन से मेरा घनिष्ठ परिचय रहा; जिनका निधन सितंबर, 2005 में हुआ। इस बहाने मैं यहां पर उन परिस्थितियों का उल्लेख करना चाहता हूं कि किस प्रकार टाइम्स ऑफ इंडिया समूह ने अपने अनेक संपादकों को बाहर का रास्ता दिखाया और किस प्रकार दिनमान, धर्मयुग, सारिका तथा माधुरी की अकाल मृत्यु हो गई।
यह शायद मई 1970 की की एक दोपहर थी। बिजनौर से तत्कालीन लोकसभा सदस्य स्वामी रामानंद शास्त्री की अध्यक्षता में बिजनौर निवासियों की एक बैठक आयोजित हुई। बैठक का उद्देश्य था राजधानी दिल्ली में प्रवासी बिजनौरियों का एक ऐसा संगठन बनाया जाए, जो आपसी भाईचारे, सांप्रदायिक सद्भाव के साथ ही बिजनौर जिले के विकास में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाए। यह ख्याल 'गढ़वाल सभा' की गतिविधियां एवं गढ़वाल भवन को देखकर आया था। उस समय बिजनौर सभा के अध्यक्ष अजीज हैदर तथा महामंत्री जी.एस. सूद चुने गए, जो अनेक वर्षों तक अपने पदों पर कार्यरत रहे। रमेशचंद्र जैन, जो उस समय बैनेट कोलमैन एंड कंपनी के जनरल मैनेजर और बाद में कंपनी के कार्यकारी निदेशक बने, को बिजनौर सभा का संरक्षक चुना गया था। मैं भी बिजनौर सभा की कार्यकारिणी का सदस्य, फिर मंत्री तथा बाद में महामंत्री चुना गया। चूंकि साहूजैन फैमिली नजीबाबाद, जिला बिजनौर (उत्तर प्रदेश) से है, अत: उनका बिजनौर के प्रति लगाव होना स्वाभाविक है।
कहा जाता है कि तीखी नोक-झोंक अथवा आलोचना के बाद जो मित्रता होती है, वह बहुत गहरी एवं जीवंत होती है। ऐसी ही कुछ बात मेरे तथा रमेशचंद्र जैन के साथ हुई। यह सितंबर 1977 की बात है कि टाइम्स हाउस के मीटिंग हॉल में 'बिजनौर सभा' की बैठक बिजनौर के तत्कालीन लोकसभा सदस्य महीलाल की अध्यक्षता में हुई। इस बैठक में बिजनौर सभा के अध्यक्ष पद पर रमेशचंद्र जैन तथा महामंत्री पद पर एन.पी. मित्तल (कई सिनेमा घरों के मालिक) के नाम प्रस्तावित किए गए। मैं यह देखकर आश्चर्यचकित था कि इन दोनों नामों के समक्ष कोई अन्य नाम नहीं आया। इन दोनों का निर्विरोध चुना जाना लगभग निश्चित था। तभी मैं खड़ा हुआ और दोनों नामों का प्रबल विरोध करते हुए कहा कि बिजनौर सभा के पदाधिकारी ऐसे होने चाहिए जो किसी को भी हर समय उपलब्ध रहें। इन दोनों से मिलने के लिए तो हमें चपरासी से आज्ञा लेनी होगी। मेरी बात का किसी ने भी समर्थन नहीं किया, अत: दोनों सज्जन चुन लिए गए।
जलपान के बाद जब मीटिंग हॉल से बाहर आए, तो नवभारत टाइम्स में कार्यरत गेंदालाल चमन ने मुझसे कहा, "भाई साहब बात तो आपकी बिल्कुल सही थी, किंतु हम ठहरे इनके नौकर, अत: इनका विरोध कैसे कर सकते थे। " बहरहाल मैंने बिजनौर सभा के तत्कालीन महामंत्री जी.एस. सूद से कहा कि "भाई साहब, सभा के कागजात इन्हें मत दे देना, इनके बस की सभा चलाना नहीं है। " दिलचस्प पहलू यह है कि मेरी भविष्यवाणी सही सिद्ध हुई और बिजनौर सभा एक वर्ष तक ठप्प पड़ी रही। ठीक एक वर्ष बाद सितंबर 1978 में टाइम्स हाउस के उसी मीटिंग हॉल में सांसद महीलाल की अध्यक्षता में बिजनौर सभा की बैठक आयोजित हुई। कोई भी कार्यवाही प्रारंभ होने से पूर्व ही रमेशचंद्र जैन खड़े हुए और मेरी ओर संकेत करके कहा कि पिछले वर्ष इन्होंने जो बात कही थी वह बिल्कुल सही है। हमारे पास सभा की सेवा करने का समय नहीं है, अत: हम अपने पदों से त्याग पत्र देते हैं। तब उसी बैठक में सर्वसम्मति से अजीज हैदर तथा जी.एस. सूद को बिजनौर सभा का क्रमश: अध्यक्ष एवं महामंत्री पुन: चुन लिया गया।
उस समय रमेशचंद्र जैन 4, तिलक मार्ग की कोठी में रहते थे। वह चूंकि बिजनौर सभा के संरक्षक थे, अत: अनेक बार बिजनौर सभा की बैठक 4, तिलक मार्ग पर हुई तथा मैं भी सभा के कार्यों के सिलसिले में अनेकों बार वहां उनसे मिलने गया। चूंकि मैं ए.जी.सी.आर. बिल्डिंग में बैठता था, अत: श्री जैन से मिलने अनेक बार 'टाइम्स हाउस' भी चला जाता था। मातृभूमि से अत्यधिक प्रेम होने के कारण बैनेट कोलमैन एंड कंपनी के स्वामी साहू शांति प्रसाद जैन होली के अवसर पर बिजनौर निवासियों को पटेल मार्ग स्थित अपनी कोठी पर बुलाकर सबको गुलाल आदि लगाते थे तथा तगड़ा नाश्ता भी करवाते थे। होली की सायं आयोजित होने वाले इस कार्यक्रम में मैं लगभग तीन बार शामिल हुआ। क्योंकि अक्सर होली के अवसर पर मैं अपने घर बिजनौर चला जाता था। साहू शांति प्रसाद जैन के यहां ही हमने चांदी के बर्तनों में खाया-पिया तथा सर्वप्रथम काला गुलाब मैंने उन्हीं की कोठी में देखा। फूल तथा गुलाब अनेक रंगों में थे, किंतु काला गुलाब देखकर एक अलग ही अनुभूति हुई थी। साहू शांति प्रसाद जैन के निधन के बाद होली पर होने वाला 'मिलन समारोह' फिर वहां कभी नहीं हुआ। इस मध्य श्री रमेशचंद्र जैन से मेरा घनिष्ठ परिचय हो चुका था और वह मुझे स्नेह एवं सम्मान देते थे।
मुझे पढऩे का बहुत शौक था, जो आज भी बना हुआ है। 1975 में आपातकाल के दौरान सबसे तगड़ा हमला समाचार पत्र, पत्रिकाओं पर हुआ, किंतु उस समय लगभग सभी संपादक सुरक्षित रहे। मेरे लिए यह आश्चर्य का विषय था कि मोरारजी देसाई सरकार ने बैनेट कोलमैन एंड कंपनी पर इतना दबाव डाला कि उसने नवभारत टाइम्स से अक्षय कुमार जैन, दिनमान से रघुवीर सहाय, धर्मयुग से धर्मवीरभारती तथा सारिका से कमलेश्वर को विदा कर दिया। सारिका उन दिनों बंबई से निकलती थी और चूंकि कमलेश्वर की फिल्मों तथा दूरदर्शन में अत्यधिक व्यस्तता थी, इसलिए कमलेश्वर को विदा करने के लिए सारिका को दिल्ली लाया गया और कन्हैयालाल नंदन को, जो बच्चों की पत्रिका पराग को देखते थे, सारिका का संपादक बना दिया गया। मैं यह सब तमाशा चुपचाप देख रहा था। किंतु जब कन्हैयालाल नंदन को दिनमान का संपादक बनाया गया, तो मेरे धैर्य का बांध टूट गया। इस विषय में मैंने दिनांक 4 मई, 1982 को रमेशचंद्र जैन को एक कड़ा विरोध पत्र लिखा कि अब दिनमान का 'दीन और ईमान' खतरे में पड़ गया है। यह रमेशचंद्र जैन की उदारता कहिए कि उन्होंने न केवल मेरे पत्र का उत्तर दिया, बल्कि मुझे वार्ता के लिए आमंत्रित भी किया।
आगे बढऩे से पूर्व यहां यह बताना उचित होगा कि कन्हैयालाल नंदन को मैंने रमेशचंद्र जैन के पैर छूते हुए देखा है। तभी मुझे उनकी योग्यता पर संदेह हो गया था, और मैं यह सोचने पर मजबूर हो गया था कि यह कैसा संपादक है, जो मालिकों के पैर छूता है। बहरहाल जून 1982 में मैंने टाइम्स हाउस जाकर रमेशचंद्र जैन से भेंट की और वार्तालाप के दौरान उन्हें बतलाया कि नवभारत टाइम्स, धर्मयुग, दिनमान, सारिका तथा माधुरी लडख़ड़ा रहे हैं। यद्यपि जैन साहब मेरी बात से बहुत अधिक सहमत नहीं दिखे, तथापि मेरा कहना था कि एक सजग पाठक होने के नाते मैं जानता हूं कि इन पत्रिकाओं की महत्त्वपूर्ण सामग्री और गुणवत्ता में प्रचुर मात्रा में कमी आई है। प्रबंधन में नवभारत टाइम्स में तो राजेंद्र माथुर को बुला लिया, किंतु आगे चलकर मेरी भविष्यवाणी सही सिद्ध हुई कि लगभग 6-7 वर्ष बाद दिनमान, धर्मयुग, सारिका तथा माधुरी औंधे मुंह गिर पड़े और अंतत: बंद हो गए। उन दिनों दिल्ली में यह लतीफा, चटखारे लेकर सुना-सुनाया जाता था कि बैनेट कोलमैन एंड कंपनी के तत्कालीन अध्यक्ष अशोक जैन के पास कुछ साहित्यकार बैठे थे। उनमें से एक बड़े साहित्यकार ने कहा कि मुझे आपके यहां नौकरी चाहिए। इस पर अशोक जैन ने कहा कि बताएं कौन-सी पत्रिका को संभालना चाहते हैं। इस पर साहित्यकार ने कहा कि मुझे तो किसी भी सीमेंट फैक्ट्री अथवा जूट मिल का मैनेजर बना दीजिए। तब जैन साहब ने कहा कि आप साहित्यकार हैं, अत: आप मिल का प्रबंधन कैसे संभालेंगे। साहित्यकार ने उत्तर दिया कि जब कन्हैयालाल नंदन दिनमान के संपादक बन सकते हैं, तो मैं किसी मिल या फैक्ट्री का मैनेजर क्यों नहीं बन सकता?
कालांतर में रमेश जी का दर्जा घटाकर उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ का अध्यक्ष बनाकर लोदी रोड स्थित कार्यालय में भेज दिया गया। भारतीय ज्ञानपीठ विभिन्न भाषाओं के साहित्यकारों को प्रतिवर्ष नकद पुरस्कार देकर सम्मानित करती है। आजकल इस पुरस्कार की राशि 11 लाख रुपए कर दी गई है। ज्ञानपीठ पुरस्कारों के विषय में मेरे साहित्यकार मित्र भोला नाथ त्यागी का कहना है कि "ज्ञान की ओर पीठ करने वाले को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिल जाता है। " इस पुरस्कार के विषय में एक तथ्य अवश्य है, जिसका उल्लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं ने भी किया है कि ज्ञानपीठ पुरस्कार लेखकों, कवियों को अंतिम समय में दिया जाता है। जिसका वे उपभोग नहीं कर पाते। उदाहरण स्वरूप श्रीलाल शुक्ल तथा शहरयार के नाम लिए जा सकते हैं।
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