[आठवें दशक में पंडित रविशंकर सिर्फ एक रात के लिए लखनऊ आए थे। उस दौरान लेखक आकाशवाणी लखनऊ केंद्र में कार्यक्रम अधिकारी थे। इस अंतराष्ट्रीय ख्याति के संगीताकार का किस तरह साक्षात्कार लिया गया उसकी यह रोचक कहानी कई स्तरों पर महत्त्वपूर्ण है। यह तत्कालीन अधिकारियों के समर्पण, ज्ञान और कर्तव्य-निष्ठा को तो दर्शाती ही है साथ में आकाशवाणी के महत्त्व को भी बतलाती है। ]
जब पंडित रविशंकर सन् 1976 में भारत आए तो उस समय देश में आपातकाल की स्थिति थी। मुझे अच्छी तरह स्मरण है जुलाई चार को आकाशवाणी लखनऊ में दिल्ली से संदेश आया कि पंडित जी वहां आ रहे हैं और तुरंत संपर्क करके उनका कार्यक्रम रिकार्ड किया जाना चाहिए। इतना ही नहीं उन्होंने बताया कि दूरदर्शन दिल्ली ने संपर्क किया था किंतु उन्होंने समय नहीं दिया। यह बात मुझे 4 जुलाई को बताई गई उन दिनों लखनऊ में केंद्र निदेशक का पद खाली था। परमेश्वर माथुर दिल्ली प्रोन्नति पर जा चुके थे। अत: जब तक दूसरे महाशय केंद्र निदेशक का कार्यभार संभालते तब तक के लिए केवल रत्न गुप्ता (इंजीनियर इंचार्ज) को यह कार्य दिया गया। गुप्ता मूल रूप से जम्मू के रहने वाले थे। जब मैं सन् 58 में जम्मू केंद्र पर कार्यरत था तब वह वहां टेकनिकल अस्सिटेंट थे। बाद में जम्मू-कश्मीर राज्य के विलीनीकरण के कारण उनकी सारी सेवाएं जुड़ गईं और वह काफी वरिष्ठ हो गए थे। हम दोनों वहां प्राय: रात्रि को तीसरी सभा के कार्यक्रम देखते थे अर्थात् मैं कार्यक्रम तथा वे तकनीकी पक्ष देखते थे। हममें अच्छी मित्रता हो गई थी। लखनऊ में मैं आपातकाल के दौरान संगीत कार्यक्रमों का कार्यक्रम अधिकारी था। पंडित जी को रिकार्ड करने का आदेश एक चुनौती था। गुप्ता ने सर्वप्रथम सहायक केंद्र निदेशक राजेंद्र प्रसाद को बुलाया और दिल्ली का आदेश सुनाया। वह भी पूर्व में तकनीकी सहायक थे। गुप्ता जी की तरह ही विज्ञान के स्नातक भी। राजेंद्र प्रसाद विज्ञान के स्नातक तो थे किंतु उन्हें तुलसी साहित्य का अच्छा ज्ञान था और संघ लोक सेवा आयोग से पूर्व में नियुक्ति पा चुके थे। उनका पद उस समय मुझसे एक पद ऊंचा था। उन्होंने गुप्ता जी को बताया कि इस कार्य को केवल मैठाणी ही अंजाम दे सकते हैं। संगीत कार्यक्रम के इंचार्ज होने के नाते वह यहां के तो सभी कलाकारों को जानते हैं और पंडित जी तो बहुत बड़े कलाकार हैं। मुझे बुलाया गया। गुप्ता ने मुझे बैठाकर जम्मू वाली मित्रता की याद दिलाई और कहा आपको हर हाल में पंडित जी को रिकार्ड करना है। यह मेरी इज्जत का सवाल हैं राजेंद्र प्रसाद ने भी मुझे सारी बाते समझाई मैंने विनम्र भाव से कहा, "गुप्ता जी! यह तो बड़ा कठिन कार्य है। आप तो जानते ही हैं कि दूरदर्शन दिल्ली वालों को भी उन्होंने अपनी असमर्थता बताई है तब आकाशवाणी लखनऊ क्या चीज है?" गुप्ता को मेरा उत्तर अच्छा नहीं लगा। "मैठाणी जी! आपको यह काम करना है, बस। " राजेंद्र प्रसाद बीच में बोल पड़े" मैठाणी जी! आप तो इंदौर मध्य प्रदेश में भी यह कार्य कर चुके है कई वर्षों का अनुभव है। कुछ कीजिए। हांलाकि यह कार्य कठिन है असंभव नहीं। " "हां! समय बलवान है। हो सकने को तो कुछ भी हो सकता है! मैं इतना कह सकता हूं कि पूरा प्रयत्न करूंगा जिससे उनसे मुलाकात हो सके। मिल जाए तब उनसे निवेदन किया जा सकता है। "
सहायक केंद्र निदेशक इस कार्य की सफलता के लिए मेरे साथ हो लिए। पांच तारीख की दौड़ धूप और पूछताछ से पता चला कि रवि शंकर जी बनारस गए हुए हैं और वहां अपना मकान बनवा रहे हैं। पंडित जी के सेक्रेट्री दूबे को मैं कुछ जानता था। बस, यों समझिए कि गाने बजाने वालों की सोहबत से मुझे इतना मालूम था। दूबे का पूरा नाम न तब जानता था न अब। किसी तरह उनका फोन नंबर प्राप्त किया उस जमाने में फोन की सुविधा आज जैसी नहीं थी। बुक करवाकर बड़े प्रयास के बाद उनसे बात करने का गौरव प्राप्त हुआ। उन्होंने मेरा नाम सुनते ही खुशी का इजहार किया। कहने लगे मैं आपको जानता हूं। सहसवान घराने के किसी कलाकार का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि हम लोग मिल चुके हैं मेरा कुछ साहस बढ़ा। बिन हरि कृपा मिलहि नहि संता…। "दूबे जी! सुना है पंडित जी वहां बनारस आए हैं। यहां लखनऊ आकाशवाणी में दर्शन दें तो बड़ी कृपा होगी" दूबे जी ने बड़े सौम्य भाव से कहा "अरे लखनऊ की ओर तो उन्होंने प्रस्थान कर लिया है। वह रास्ते में होंगे। मैं यहां मकान का कार्य देख रहा हूं। " मैंने जिज्ञासा भरे शब्दों में पूछा " दूबे जी वे यहां लखनऊ कहां ठहरेंगे? हम लोग यहीं तुरंत उनसे संपर्क साध लेंगे। " "देखिए! लखनऊ कहां ठहरेंगे, यह तो नहीं बता पाऊंगा, किंतु रास्ते में वे दिन के भोजन के लिए सुधा सिंघानिया के यहां कानपुर होकर जाएंगे। आप उनसे कानपुर संपर्क कीजिए अभी तो वहां पहुंचे भी नहीं होंगे।"
मैंने दूबे जी को इस सूचना के लिए धन्यवाद दिया और कानपुर सुधा सिंघानिया के यहां फोन बुक करने का प्रयास करने लगा। फोन की उस युग में अवगति गति की कुछ समझ न आने वाली हालत थी। सुधा सिंघानिया आकाशवाणी लखनऊ की कलाकार थीं, इस नाते उन्हें जानता था। फोन मिलाते-मिलाते मिल ही गया। सुधा से मैंने सारी बातें फोन पर कहीं और पंडित जी या उनके किसी सहयोगी से बात करने की इच्छा प्रकट की। सुधा सिंघानिया ने हंसकर कहा, "मैठाणी जी, अपने फोन करने में थोड़ा देर कर दी। पंडित जी तो लंच करके लखनऊ की ओर निकल पड़े हैं। " मैं सन्न रह गया। अच्छा मौका हाथ से निकल गया। मैंने पूछा, "सुधा जी यह बताइए कि वह लखनऊ कहां पर टिकेंगे?" इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने अपनी असमर्थता जतला दी।
अब लखनऊ में तलाशने के अलावा कोई रास्ता नहीं रह गया था। मैंने और साथ में राजेंद्र प्रसाद ने लखनऊ का चप्पा-चप्पा छान मारा। बड़े-बड़े होटल, अतिथि गृह सभी महत्त्वपूर्ण स्थानों पर अपना खोज अभियान जारी रखा पर सफलता नहीं मिली। अंत में रात्रि के आठ बज रहे थे मैंने निराश एवं स्थिर भाव से राजेंद्र प्रसाद से कहा "अब एक स्थान बाकी है यदि वहां नहीं मिले तो समझिए लखनऊ से निकल गए। " ऐसा न कहिए मैठाणी जी, गुप्ता साहब हम लोगों पर बहुत नाराज हो जाएंगे। बताइए! अब कौन-सी जगह रह गई है? "वह जगह है राज भवन। हो सकता है वह राज भवन में रात्रि विश्राम करें।
हम दोनों फौरन राज भवन पहुंचे। उन दिनों अकबर अली खां राज्यपाल थे। उनके पी.ए. महेशानंद सुंदरियाल मेरे परिचित थे। मैंने सुंदरियाल को मैंने सारी बातें बताईं। उन्होंने मेरे उदास मुख को देखकर कुछ मधुर होते हुए कहा, "चिंता न कीजिए मैठाणी जी! जिन्हें आप ढूंढ रहे हैं, वह यहीं आठ नंबर सूट में टिके हुए हैं। आप मुझसे फोन पर पहले पूछते तो इतनी दौड़-धूप नहीं करनी पड़ती। " मेरा तुरंत उत्सुकतापूर्ण प्रश्न था? "क्या हम उनसे मिल सकते हैं? आप मिला दें तो बड़ी कृपा होगी। " वैसे तो सुंदरियाल सहज व्यक्ति थे और सुशील अधिकारी किंतु मेरे प्रश्न से वह कुछ असहज हो गए। इस वक्त तो मिलना बड़ा कठिन है। इस समय महामहिम के साथ रात्रि भोज कर रहे हैं। बातें लंबी खिंच सकती हैं। यदि मुझे पहले मालूम होता तो आपके लिए समय निश्चित करा देता। "मेरा उदास चेहरा देखते हुए उन्होंने कहा, " किंतु आप चिंता न कीजिए। कल प्रात: सात बजे मैं आपसे उनको मिलवा दूंगा। आप कल प्रात: ठीक साढ़े छह बजे आठ नंबर सूट के पास मुझे मिलें। वहीं पर सब ठीक कर दूंगा। समय का पूरा ध्यान रखिएगा क्योंकि राज भवन से उनकी विदाई का समय प्रात: साढ़े आठ बजे है। " सारी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए मैंने प्रात: साढ़े छह बजे राजभवन पहुंचने का उन्हें आश्वासन दिया।
प्रात: छह बजे राजेंद्र प्रसाद मेरे घर गाड़ी लेकर पहुंच गए। उनके पास एक छोटा सा टेप रिकार्डर भी था जो उनके कंधे पर लटक रहा था। मुझे उनकी यह व्यवस्था अच्छी लगी। गाड़ी से उतरते ही उन्होंने बताया कि सात बजे हम उनसे मिलेंगे और ठीक आधे घंटे बाद उनका लंबा-चौड़ा बाहर जाने का कार्यक्रम शुरू हो जाएगा। ऐसा लगता है सारी दौड़-धूप गुड़ गोबर होने वाली है। मैंने उन्हें बताया इतना ही नहीं सारे कलाकार इस समय स्टूडियो में बैठे हैं। उन्हें न मालूम किसने कह दिया कि पंडित रवि शंकर स्टूडियो होकर दूसरी जगह जाएंगे। न मालूम हमारे मिलने की सूचना उन लोगों को किसने दी है। मैंने राजेंद्र प्रसाद को धैर्य बंधाते हुए कहा "प्रयत्न करना ही तो अपने हाथ में है। " वह बड़बड़ाने लगे "पता नहीं इ.इन.सी. साहब ने क्या सोच रखा है!"
हम दोनों जल्दी से मकान की तीन सीढिय़ों से नीचे सड़क पर उतरे और गाड़ी में बैठकर राजभवन की ओर कूच कर गए। केवल दस मिनट का रास्ता था। आठ नंबर सूट के आगे सुंदरियाल अपने वायदे के मुताबिक पहुंचे हुए थे। उन्होंने देखते ही कहा, "मैठाणी जी। आइए! आइए! अंदर सूट में आइए! पंडित जी आते ही हैं ये लीजिए कौन हैं?" मुझे देखते ही सामने से आवाज आई, "मैठाणी साहब!" मैं सकपका गया। उस्ताद अल्ला रखा थे।
"अरे! खां साहब! आप! इतने सालों बाद!"
"हां! भई! मैं पंडित जी के साथ ही तो अकसर रहता हूं… आप तो जानते ही होंगे?"
मैंने अपनी किस्मत को सराहा!
उस्ताद अल्ला रखा पंजाबी घराने के तबला वादक थे। कहा जाता है कि उनके उस्ताद कादर बख्श इस घराने के प्रवर्तक थे। किंवदंतियों के आधार पर उनके सवा लाख शागिर्द बताए जाते हैं। उस्ताद अल्ला रखा पखावज के खुले बोलों को बंद करके एक नई शैली का निर्माण तबला वादन में कर रहे थे। बुखारी साहब जब आकाशवाणी के महा निदेशक थे तब उन्होंने अल्ला रखा की योग्यता को देखते हुए उन्हें आकाशवाणी के दिल्ली केंद्र पर नियुक्त किया था। वह मूलत: जम्मू के रहने वाले थे। मैं भी सन् 1958 से लगभग छह वर्ष तक जम्मू-कश्मीर में कार्यरत रहा था। उस्ताद से कई बार मिलना हुआ। हम दोनों कई संगीत कार्यक्रमों में मिलते रहते थे। उनका राज भवन में मिलना ही सुखद आश्चर्य था। सोचने लगा काश पहले इन्हीं से संपर्क करता तो काम हो भी सकता था। वह पंडित रविशंकर के काफी समीप रहे हैं। देश-विदेश में उनके साथ संगत की है। उनके तीन पुत्र जाकिर हुसैन, फजल हुसैन, तौफीक हुसैन तथा एक पुत्री थी जिसकी अचानक हृदय गति रुक जाने से मृत्यु हो गई। उस्ताद पुत्री की मृत्यु का समाचार सह नहीं पाए और उनकी भी जल्दी ही मृत्यु हो गई। पर यह इतर प्रसंग है।
उस समय उस्ताद मुझ से मिलकर बड़े खुश हुए और बोले, "आइए आपको पंडित जी से मिलवाता हूं। " सुंदरियाल समझ गए कि अब मेरी जरूरत नहीं है।
उस समय तक पंडित रवि शंकर के बारे में मेरी जो जानकारियां थीं उनके स्रोतों में एक उनकी लिखी माई म्यूजिक, माई लाइफ पुस्तक थी। इसमें उन्होंने बताया है कि वह अपने भाई उदय शंकर के दल में एक सदस्य के रूप में दस वर्ष तक कार्य करते रहे। इसके बाद सन् 1938 में वे बाबा अलाउद्दीन खां से संगीत की शिक्षा लेने के लिए मैहर (म.प्र.) चले गए। बाबा के प्रमुख शिष्य ज्योतिन भट्टाचार्य के मतानुसार 1935 में बाबा उदय शंकर की प्रेरणा से योरोप यात्रा पर गए इस दौरान पंडित रवि शंकर ने उनके दुभाषिए का कार्य किया। अपनी माता जी की प्रेरणा तथा बाबा जी की संगीत साधना से प्रभावित होकर पं. रवि शंकर ने नृत्य का आकर्षण छोड़ संगीत की शिक्षा के लिए बाबा अलाउद्दीन खां का शिष्यत्व ग्रहण किया। योरोप से आने के पश्चात् बाबा के पुत्र अली अकबर खां, पुत्री अन्नपूर्णा और पंडित रविशंकर उनसे एक साथ शिक्षा लेने लगे।
अब यह प्रश्न उठता है कि पंडित रवि शंकर किस घराने के संगीकार हैं। यह स्पष्ट है कि बाबा से उन्होंने संगीत शिक्षा ली। बाबा का जन्म त्रिपुरा राज्य में 1862 में हुआ था। उन्होंने कई उस्तादों से सीखा। किंतु रामपुर के उस्ताद वजीर खां से उन्होंने लगभग 30 वर्ष तक संगीत की शिक्षा पाई। बाबा के प्रमुख शिष्य अली अकबर खां, पन्ना लाल घोष, अन्नपूर्णा, निखिल बनर्जी, तिमिर बरन और रवि शंकर हैं। उस्ताद वजीर खां से शिक्षा पाकर उन्होंने मध्य प्रदेश में मैहर को अपना कार्य क्षेत्र बनाया। रामपुर घराने का संबंध तानसेन के सेनिया घराने से कहा जाता है। इस प्रकार रामपुर घराना ग्वालियर घराने का ही एक रूप माना जा सकता है। आचार्य बृहस्पति के अनुसार उ. वजीर खां, अलाउद्दीन खां, रवि शंकर, हफीज अली, अमजद अली खान जैसे उत्कृष्ट कलाकार रामपुर या सेनिया घराने के कलाकार कहे जाते हैं। यहां तक कि प्रसिद्ध संगीतज्ञ पंडित भातखंडे ने भी संगीत सामग्री यहीं से ही ली है। भारतीय संगीत का इतिहास तानसेन (1532-95) से आरंभ होता है। वह अकबर के नवरत्नों में से एक था। सेनिया घराने के कलाकार उसी की परंपरा के माने जाते हैं। मियां की तोड़ी सारंग उनके सुपुत्र विलास खां ने विलास खानी तोड़ी राग बनाया। इस तरह वह तानसेन की मृत्यु के पश्चात् तानसेन परम्परा के खलीफा कहलाए। यहां मैं यह सब इसलिए बता रहा हूं कि नवाब मुर्तजा अली के समय में रविशंकर और अल्ला रखा रामपुर आकर खास बाग महल में ठहरे थे हालंकि वहां वे एक कार्यक्रम देने आए किंतु उद्देश्य था उस्ताद वजीर खां के मकान को देखने का। वहां पंडित जी ने भावुक होकर उस्ताद वजीर खां, जो उनके उस्ताद के उस्ताद थे, के मकान के निकट के एक छोटे से मकान की मिट्टी उठाई और उसे अपने पल्लू में बांध लिया। यह मिट्टी उनके उस्ताद के मकान की थी। इस मिट्टी को उन्होंने नमन किया। बाबा जिस मिट्टी में पैदल चलकर अपने उस्ताद वजीर खां के पास सीखने जाते थे उसे शत-शत प्रणाम। उस्ताद वजीर खां सेनिय घराने के वंशज थे और रामपुर नवाब हामिद अली खान (मुत्यु 1930) के दरबार में प्रसिद्ध वीनकार थे। उस्ताद वजीर खान नवाब हमीद अली खां के भी उस्ताद थे उन्हें रियासत में बहुत बड़ा रुतबा प्राप्त था। नवाब साहब के तीनों शाहजादे प्रात: उठकर उन्हें सलाम करने जाते थे। जब नवाब साहब का इंतकाल हो गया तो उस्ताद निराशा में कलकत्ता चले गए जहां उनके गुण-गाहकों की लंबी कतार थी। बाबा दो ढाई वर्ष तक उनके मकान के दरवाजे पर उस्ताद की आहट की प्रतीक्षा घंटों तक किया करते थे। उनका संगीत के सभी अंगों पर पूर्ण अधिकार था।
यहां पर मैं सन् 1907 में उर्दू में तबले पर प्रकाशित पुस्तक रिसालाए तबलानवाजी का जिक्र करना अपना कर्तव्य समझता हूं। इसके लेखक मुहम्मद 'इशहाक देहलवी' हैं। (इस पुस्तक की खोज मेरी पत्नी उमा मैठाणी ने सन् 1972-73 में की थी) अब तक यह किसी संगीत पत्रिका या पुस्तकालय के माध्यम से संगीत प्रेमियों के सामने नहीं आई है। मेरी पत्नी का दावा है कि यह पुस्तक तबले पर लिखी गई पहली पुस्तक है। पुस्तक में उ. वजीर खां का उल्लेख है। जिन तालों का वर्णन मुहम्मद इशहाक करते हैं उनके प्रेरणा श्रोत उ. वजीर खां हैं, मेरा उद्देश्य यह बताना है कि पंडित रवि शंकर के उस्ताद बाबा और फिर बाबा के उस्ताद वजीर खां कितने महान थे। यह एक ऐसी परंपरा है जिस पर संगीत जगत को अभिमान है और आने वाली पीढिय़ां भी करती रहेंगी।
इन बातों की उधेड़बुन में मेरी निद्रा तब टूटी जब पंडित रवि शंकर हाथ में सितार लिए उस बैठक में आए जहां पर अल्ला रखा, मैं और राजेंद्र प्रसाद बैठे थे। उनके हाथ में एक सितार था जिसे वे अंगिठिया के ऊपरी समतल भाग में रखने आए थे। वह भव्य व्यक्तित्व के धनी थे। खुली केश राशि और गौर वर्ण।
उस्ताद अल्ला रखा ने पंडित जी को देखते ही मुझसे कहा, "अरे मैठाणी साहब! आ गए हैं पंडित जी। "
पंडित जी की ओर देखकर कुछ कहने को थे ही कि उन्होंने भी मुस्कराकर कहा, "अच्छा अच्छा! आप ही मैठाणी साहब है अरे आज ही तो दुबे जी बनारस से आपके बारे में बता रहे थे। खान साहब आप तो इन्हें जानते ही हैं। "
"जी हां! बर्सों से। आप आकाशवाणी के लखनऊ केंद्र पर म्यूजिक के इंचार्ज यानी पैक्स हैं। स्टाफ आर्टिस्टों का बड़ा ख्याल रखते हैं पंडित जी। " मैं कुछ समझ ही नहीं पा रहा था क्या कहूं? क्या करूं? जीवन में इतने बड़े कलाकार से मिलने का पहला मौका था। हालांकि लखनऊ से पहले मैं इंदौर आकाशवाणी में संगीत के इसी पद पर रह चुका था। वहां उ. अमीर खान के घर जाकर मैं उन्हें कई बार रिकार्डिंग के लिए ला चुका था। कुमार गंधर्व और उनकी पत्नी वसुंधरा के घर देवास जाकर रिकार्डिंग कर चुका था। इस तरह और भी कई नामी-गिरामी कलाकारों की मुझ पर कृपा रही किंतु उस समय मेरे चारों ओर एक शून्य विचरण कर रहा था मैं कुछ निवेदन करना चाह ही रहा था कि पंडित जी आकाशवाणी लखनऊ के कलाकारों के संबंध में पूछने लगे। उनका वार्तालाप उतना ही मनोहर था जितना कि मुखमंडल। हमारे संगीत के स्टाफ में इस्माइल खान सितार वादक थे। उन्होंने इस्माइल भाई के बारे में सबसे पहले पूछा। तब मुझे याद आया कि उनके वालिद उस्ताद युसुफ अली खान सितार के नामी उस्ताद थे। वह लखनऊ के नजीराबाद मुहल्ले में किसी जमाने में रहते थे। उस समय पंडित जी का संपर्क रेडियो लखनऊ से था। इस्माइल खान की कुशल-क्षेम पूछने के बाद उन्होंने मुजद्दिद नियाजी के बारे में पूछा। मैंने कुछ भावुक होकर उन्हें उनकी असली हालत बताई पंडित जी सुनकर दुखी हुए। उन दिनों भाई नियाजी लाइट म्यूजिक के प्रोड्यूसर थे और मेरी ही बगल में बैठते थे। उनकी आवाज का जादू दूर-दूर तक फैला था। एक जमाना था लोग उन्हें दूर-दूर से देखने आया करते थे। इस बीच उन्हें एक अंधे सरोद वादक की भी याद आई। पंडित जी ने कभी आकाशवाणी लखनऊ में ठा. शमशेर सिंह को सरोद बजाते सुना था। उनकी माता साथ में रहती थीं। वह उस्ताद सखावत हुसैन के शार्गिद थे। मैंने पंडित जी को बताया कि वे अब बाजक नहीं हैं और हमारे स्टाफ में सरोद वादक हैं। इस तरह आकाशवाणी लखनऊ के कलाकारों के बारे में जितना हो सका उन्होंने जानने की कोशिश की।
मैंने समय और अनुकूल वातावरण का लाभ उठाते हुए उन्हें स्वयं आकाशवाणी लखनऊ में सब कलाकारों को दर्शन देने का निवेदन किया। यह भी कहा कि वे सब आपकी प्रतिक्षा कर रहे हैं आशा है पंडित जी आप उन्हें और मुझे निराश नहीं करेंगे। पंडित जी सारी दुनिया घूमे हुए कलाकार थे उन्होंने मंद-मंद मुस्कान के साथ अपनी आंखों से कुछ टटोला। मेरे पीछे राजेंद्र प्रसाद टेप रिकार्डर लिए खड़े थे।
"मैठाणी जी समय मेरे पास बहुत कम है। मुझे भी मिलने की इच्छा है। मेरी यह इच्छा उन्हें अवगत करा देना और आपके पास तो यह टेप रिकार्डर है कुछ पूछना है तो पूछ लीजिए। "
मैं ऐसी स्थिति के लिए तैयार तो न था किंतु, अनजाने में मुझे यह उपहार मिल गया। इस बीच की बातचीत से मैं भी उतना असहज नहीं था। राजेंद्र प्रसाद ने टेप रिकार्डर का छोटा माइक मेरी ओर कर दिया। समय का अभाव देखते हुए मैंने दो तीन प्रश्न पूछने ही ठीक समझे। सहसा उस समय मेरे मस्तिष्क में पं. रवि शंकर के एक लेख की याद आ गई जो कि मैंने वर्ष 1966 की जनवरी में ही पढ़ा था। यह लेख हाथरस से निकलने वाली संगीत पत्रिका का लोक संगीत अंक था। "लोकधुनों की धड़कने" इसका शीर्षक था। यों ही मेरे मुख से निकल पड़ा कि आप तो भारत के संगीत का प्रचार देश-विदेश में कर रहे हैं। क्या हमारी लोकधुनें उनसे कहीं समानता रखती हैं? तो उन्होंने बताया विश्व की लोक धुनें एक-दूसरे से मिलती हैं। हमारे देश में तमिलनाडु के लोक गीतों से मैक्सिकन जैसी प्रतीत होती है। इस तरह दक्षिण भारत की लोक धुनों का भी संग्रह उनके पास है। बनारस में पंडित जी का जन्म हुआ था। अत: वहां की कजरी और चैती को वह बहुत पसंद करते थे। जब मैंने पूछा कि लोक धुनों का क्या शास्त्रीय आधार है? उन्होंने बताया संगीत मर्मज्ञ 12 श्रुतियों की बात कहते हैं, किंतु कई आदिवासी लोकधुनों में इनसे इतर अन्य श्रुतियों का भी प्रयोग हुआ है। यह संगीत के क्षेत्र में बड़ा चमत्कारिक है। बात पर बात बढ़ती गई। रस का संगीत में क्या स्थान है? पंडित जी ने इस प्रश्न को बड़े संजीदा ढंग से लिया। बिना रस के कला बेकार ही समझी जाएगी। कलाकार अपनी कला के द्वारा अंदर झांकता है और आगे-आगे बढ़ता चला जाता है। इस संबंध में उन्होंने बहुत सी बातें थोड़े ही समय में बता दीं। आरंभ में जब लोक गीतों की बात चल रही थी तो उन्होंने कहा कुछ लोक गीत होने के कारण शास्त्रीय संगीत के निकट हो गए। कुछ ऐसे भी हैं जो राग से प्रभावित होते हैं। यह इसका अर्थ नहीं है कि वे राग का अनुगमन करते हैं। गढ़वाल और हिमालय में ऐसे ही लोक गीत मिलते हैं दुर्गा, भूपाली, झिंझोटी की छाया इनमें होती है।
इस प्रश्न से पंडित जी निकलना चाहते थे। अब मेरा भी हौसला बुलंद हो रहा था। मैंने एक अंतिम प्रश्न के लिए निवेदन किया और पूछ ही बैठा पंडित जी आप अब अमेरीका में संगीत साधना कर रहे हैं। पहले भी कई ऐसे स्थानों पर रह चुके हैं। आपने विश्व में भारत का गौरव बढ़ाया है किंतु यहां हम भारत वासी आप से आपके दर्शन न होने के कारण, सदैव विदेश में रहने के कारण, यहां कभी-कभार अपना कार्यक्रम देने के कारण निराश हैं। आप अपने हैं। वह दिन कब आएगा जब आप हम भारतीयों को सुगम होंगे? जो पंडित जी ने कहा उसका सार कुछ इस तरह है:
मैठाणी जी आपके प्रश्न ने प्रेम दर्शित किया है। मैं, ठीक है इधर कुछ समय से कभी-कभी आता हूं किंतु अब तो मेरा मकान बनारस में बन रहा है। दूबे जी की देखरेख में काम भी चल रहा है। मेरा विचार भविष्य में भारत में ही रहने का है। भारत में ही रहूंगा तब सब कलाकार बंधुओं से मिलना-जुलना होता रहेगा। मेरे कार्यक्रम भी होंगे। अब समय बहुत हो गया है, मुझे-जाना है। अपने इंटरव्यू में काफी समय ले लिया है। इतना कहकर पंडित जी बाहर खड़ी गाड़ी की ओर बढ़ गए।
बाहर मैदान में बड़े से बड़े कलाकार उन्हें विदाई देने के लिए खड़ा था। वह चले गए। पीछे से राजेंद्र प्रसाद ने मेरी पीठ थपथपाई।
साभार: सृजन से
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