दवा का जहर : पश्चिमी दवा कंपनियों का तांडव और उसे रोकने का संघर्ष क्या जारी रह पाएगा?
Author: कृष्ण सिंह Edition : April 2013
औषधि के क्षेत्र में होने वाला कोई भी अनुसंधान, शोध तथा खोज और फिर उसका विकास मूलत: व्यापक मानव समाज के हित के लिए ही किया जाना चाहिए। इस अवधारणा को बहुत ही सतर्कता और चालाकी से अब बाजार के खेल में कहीं बहुत पीछे धकेल दिया गया है। वैश्विक परिदृश्य में बड़ी दवा कंपनियों का रिकार्ड देखने पर साफ पता चलता है कि उनका एकमात्र एजेंडा सिर्फ छप्पर फाड़ मुनाफा होता है। इसके लिए ये कंपनियां पेटेंट को सबसे बड़े हथियार के रूप में इस्तेमाल करती हैं। यह उन्हें बाजार में एकाधिकार का ऐसा कवच प्रदान करता है, जिसके जरिए दवाओं की मनमाफिक काफी ऊंची कीमतें तय की जाती हैं। पश्चिम की बड़ी दवा कंपनियां अपनी सरकारों की मदद के जरिए अपने उत्पादों का बड़ा हिस्सा विकासशील और तीसरी दुनिया के गरीब मुल्कों के बाजारों में खपाती हैं। इसकी दो वजहें हैं। पहली यह कि दुनिया की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा इन देशों में रहता है जिसके कारण यहां का बाजार भी काफी बड़ा है। दूसरा, इन देशों में असाध्य और अन्य तमाम तरह की बीमारियों के बढऩे की दर भी तेज है। इन देशों में रहने वाली आबादी के बड़े हिस्से के पास जीवनयापन की सुविधाएं भी वैसी नहीं रही हैं जैसी कि विकसित देशों में हैं। इन परिस्थितियों में दवाओं के एकाधिकार के सहारे बहुराष्ट्रीय कंपनियां एक ऐसा दुष्चक्र तैयार करती हैं जिसमें यदि आप (मरीज) नहीं फंसते हैं तो भी मारे जाएंगे और फंसते हैं तो भी आपका बच पाना असंभव है।
उदाहरण के लिए, गुर्दे और यकृत के कैंसर के इलाज में इस्तेमाल होने वाली नेक्सवर दवा का वैश्विक पेटेंट जर्मनी की बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी बेयर कॉरपोरेशन के पास है। भारत में नेक्सवर के एक पैकेट (120 कैप्सूल) की कीमत 2.8 लाख रुपए है। दवा की यह खुराक एक माह के लिए होती है। लेकिन इस दवा की इतनी अधिक कीमत भारत जैसे विकासशील देशों में मध्य वर्गीय तो क्या उच्च मध्य वर्गीय पृष्ठभूमि से आने वाला मरीज भी वहन नहीं कर सकता है। ऐसे में यदि मरीज को बचाना है या उसकी जीवन-प्रत्याशा बढ़ानी है तो उसके परिवार को इतनी महंगी जीवन रक्षक दवा के लिए अपनी घर-संपत्ति तक को बेचना पड़ेगा। फिर भी कहना मुश्किल है कि इलाज कराने में वह सक्षम हो भी पाएगा या नहीं। वैसे भी विकासशील देशों में कैंसर से पीडि़त मरीजों के इलाज के संसाधनों की उपलब्धता बहुत ही कम है। भारत में दस हजार कैंसर पीडि़तों के लिए केवल एक डॉक्टर है। यह हाल तब है जब भारत को तेजी से उभरती हुई एक ताकतवर अर्थव्यवस्था के रूप में पेश किया जा रहा है। ऐसे में तीसरी दुनिया के अन्य गरीब देशों में स्वास्थ्य सुविधाओं का क्या हाल होगा इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि भारत में हर साल दस लाख से ज्यादा लोग कैंसर की बीमारी से प्रभावित होते हैं। इनमें से एक तिहाई लोग हर साल मर जाते हैं। वर्ष 2025 तक भारत में कैंसर के मरीजों की संख्या में पांच गुना वृद्धि होगी। भारत में तीन प्रतिशत आबादी किसी न किसी तरह के कैंसर से पीडि़त है। वर्ष 2012 में भारत में कैंसर के कारण पांच लाख 55 हजार लाख लोगों की मौत हुई थी।
यह सिर्फ कैंसर की जीवन रक्षक दवाओं तक ही सीमित नहीं है, बल्कि एचआईवी/एड्स की पेटेंट वाली दवाओं की कीमतों का भी यही हाल है। पश्चिमी दवा कंपनियों की दवाओं, एकाधिकार और कपट की कहानी को सामने लाने वाली फिल्म 'फायर इन द ब्लड' के निर्देशक डिलन ग्रे ने पिछले दिनों लंदन के द गार्डियन अखबार के ऑनलाइन संस्करण में प्रकाशित लेख में कहा, "बहुत साल पहले मैंने वह जानना शुरू किया जिसे मैं मानव इतिहास में सबसे बड़ा गुनाह मानता हूं। अफ्रीका और अन्य स्थानों पर लाखों लोग बड़ी निर्दयता से एड्स से मरने के लिए छोड़ दिए गए, जबकि पश्चिमी देशों की सरकारों और फार्मास्यूटिकल कंपनियों ने लोगों तक कम कीमत वाली दवाओं को पहुंचने नहीं दिया। …विकासशील देशों में जहां लोग दवाओं के लिए अपनी सामथ्र्य से बाहर खर्च करते हैं, स्थिति इससे भी बदतर है। फार्मास्यूटिकल कंपनियों के प्रतिनिधियों ने मुझे बताया कि (तुलनात्मक रूप से समृद्ध) दक्षिण अफ्रीका में वे अपने उत्पादों की कीमत बाजार के सबसे ऊपरी हिस्से श्रेष्ठ पांच प्रतिशत के हिसाब से लगाते हैं, जबकि भारत में उपभोक्ता आधार मात्र ऊपरी हिस्सा 1.5 प्रतिशत ही होगा। बाकी की जनसंख्या का कोई महत्त्व नहीं है। साथ ही दूसरी तरफ दवा कंपनियां दिन-रात मेहनत कर रही हैं कि वह भारत, ब्राजील और थाईलैंड जैसे देशों में बनाई जा रही कम कीमत की जेनेरिक दवाओं की आपूर्ति को काट सकें ताकि वे यह सुनिश्चित कर लें कि वे एक भी ऐसा उपभोक्ता नहीं खो रहे हैं जो उनकी गगनचुंबी कीमतों को अदा कर सकता है। "
फिलहाल, जेनेरिक (ऐसी दवाएं जिनके पेटेंट नहीं होते) दवा निर्माता कंपनियों और बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के बीच कानूनी लड़ाइयों का बड़ा अखाड़ा अभी भारत बना हुआ है। हालांकि इन कानूनी लड़ाइयों में फिलहाल जेनेरिक दवा कंपनियां जीतती दिखाई दे रही हैं, लेकिन नव उदारीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित में बनने वाली नीतियों के इस दौर में आगे क्या होगा यह कहना मुश्किल है। अभी जो चल रहा है उसकी गाथा कुछ इस तरह से है। बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी बेयर कॉरपोरेशन की जिस पेटेंटयुक्त कैंसर रोधी दवा नेक्सवर की कीमत भारत में दो लाख 80हजार रुपए है, जबकि उसी दवा के जेनेरिक संस्करण के एक पैक की कीमत 8800 रुपए है। भारतीय पेटेंट कार्यालय ने पिछले साल नौ मार्च को हैदराबाद की कंपनी नेटको फार्मा को नेक्सवर के जेनेरिक संस्करण को भारत में बनाने और बेचने का अनिवार्य लाइसेंस दिया। भारतीय कानून में अनिवार्य लाइसेंसिंग की अनुमति विश्व व्यापार संगठन के नियमों के अनुरूप ही है। इसके मुताबिक कोई भी स्थानीय कंपनी राष्ट्रीय गैर व्यावसायिक वजहों से किसी दवा को स्थानीय स्तर पर बना और बेच सकती है। बेहद आपात परिस्थितियों में ऐसा पेटेंट धारक की इच्छा के खिलाफ जाकर भी किया जा सकता है। जब कंट्रोलर जनरल ऑफ पेटेंट्स यह सुनिश्चित कर लेता है कि जनता की जरूरत पेटेंट धारक के अधिकारों से ज्यादा बड़ी है तो वह इस तरह का अनिवार्य लाइसेंस जारी करता है। यही बेयर के मामले में भी हुआ। कंट्रोलर जनरल ने अनिवार्य लाइसेंस के लिए जो शर्तें लगाईं उसके मुताबिक नेटको को जेनेरिक दवा नेक्सवर की बिक्री से छह प्रतिशत की रॉयल्टी बेयर को देनी होगी।
बेयर ने इस आदेश को बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड (आईपीएबी) में चुनौती दी थी। चार मार्च 2013 को बोर्ड ने भारतीय पेटेंट कार्यालय के फैसले पर मुहर लगाते हुए बेयर की अपील ठुकरा दी और काफी महंगी जीवन रक्षक दवाओं के कम दामों में मिलने का रास्ता खोल दिया। बोर्ड की अध्यक्ष न्यायमूर्ति प्रभा श्रीदेवन और सदस्य डीपीएस परमार ने विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संधिपत्रों और भारतीय कानूनों को आधार बनाकर कहा कि सदस्य देशों को ऐसे अनिवार्य लाइसेंस देने की इजाजत है ताकि दवाएं लोगों तक सस्ते दामों में पहुंचाई जा सकें। बोर्ड का कहना था कि पेटेंट हासिल करने के बाद भी बेयर ने एक तय समय के भीतर बड़े पैमाने पर और वहन करने योग्य कीमत पर दवा उपलब्ध नहीं कराई। बेयर की ओर से दाखिल शपथपत्रों और निवेदनों को देखने के बाद बोर्ड इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि उसकी (दवा) 2.8 लाख की कीमत वहन करने योग्य नहीं थी। बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड का कहना था कि पेटेंट आविष्कार से जनता को लाभ के लिए दिया जाता है। हालांकि बोर्ड ने रॉयल्टी के मामले में संशोधन करते हुए नेटको को बेयर को सात प्रतिशत रॉयल्टी देने का निर्देश दिया है।
बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड का यह फैसला ऐतिहासिक है। जैसा कि यूनिवर्सिटी ऑफ ओकलाहोमा कॉलेज ऑफ लॉ में प्रोफेसर श्रीविद्या राघवन ने कहा, "यह राय इससे बेहतर समय पर नहीं आ सकती थी, क्योंकि सात दिन पहले समाचारपत्रों ने यह खबर दी थी कि डिपार्टमेंट ऑफ फार्मास्यूटिकल्स ने सुझाया है कि अनिवार्य लाइसेंसिंग पर अब विराम लगा देना चाहिए। मुझे वह रिपोर्ट आज भी याद है जब दोहा घोषणापत्र में सार्वजनिक स्वास्थ्य के मामले में ट्रिप्स समझौते के लिए मुरासोली मारन ने अगुवाई की थी, जिसे व्यापक रूप से विकासशील देशों की एक बड़ी जीत माना जाता है। जो समझौता हमने इतने विचार करके हासिल किया कितनी शर्म की बात होती अगर भारत उसे रद्द करने के लिए पहला कदम उठाता।" प्रोफेसर राघवन का कहना था, "इस फैसले का सबसे अहम हिस्सा है 'रीजनेबल' (तर्कसंगत) शब्द की लोगों की क्रय की क्षमता के संदर्भ में विवेचना। कुल मिलाकर फैसला बहुत ही हिम्मत भरा था- क्योंकि यह जनहित को भारत में पेटेंट मुद्दों के केंद्र में लाकर रख देता है। अगर समस्या है, तो वह सरकार के लिए है कि वह ऐसे काबिल व्यक्ति को ढूंढ ले जो न्यायमूर्ति श्रीदेवन की जिम्मेदारी और हिम्मत का, उनके रिटायर होने के बाद भी वहन कर सके। "
बोर्ड का फैसला इस मायने में भी दूरगामी असर डालने वाला हो सकता है क्योंकि बेयर का नेटको के साथ ही विवाद नहीं चल रहा था, बल्कि वह एक और भारतीय जेनेरिक दवा निर्माता कंपनी सिप्ला के साथ भी कानूनी लड़ाई लड़ रही है। बेयर ने सिप्ला पर भी उसके पेटेंट के उल्लंघन करने का आरोप लगाया है। यह मामला अभी दिल्ली हाईकोर्ट में लंबित है। सिप्ला ने जेनेरिक नेक्सवर (सोराफेनिब टोसीलेट) का 120 कैप्सूल का पैक करीब 30 हजार रुपए की कीमत पर बाजार में उतारा था। अभी जब नेटको बनाम बेयर के मामले में बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड का मत सामने आया तो उस समय सिप्ला 5400 रुपए की कीमत पर इस दवा को बेच रही थी। हैरान करने वाली बात यह है कि पेटेंट के उल्लंघन के आरोपों और नेटको को अनिवार्य लाइसेंस देने से पहले वर्ष 2008 से 2010 के बीच बेयर ने सोराफेनिब टोसीलेट दवा का भारत में नाममात्र के लिए ही आयात किया। वर्ष 2008 में तो बेयर ने इसका आयात ही नहीं किया, जबकि उस साल बेयर ने दुनिया के बाकी हिस्से से जो लाभ कमाया वह 67 करोड़ 80 लाख डॉलर था। जबकि यह दवा लीवर और किडनी के कैंसर के पूरे फैल जाने की स्थिति (एडवांस स्टेज) में इस्तेमाल होती है। भारत और अमेरिका दोनों में इसका पेटेंट बेयर के पास है। बेयर का इस मामले में यह शर्मनाक रुख दर्शाता है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां पेटेंट को हथियार बनाकर अपनी सुविधा के हिसाब से उसका इस्तेमाल करती हैं।
कैंसर और एड्स के इलाज में काम आने वाली अधिकतर दवाओं पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा है, क्योंकि उनके पास इन दवाओं का पेटेंट है। लेकिन पिछले कुछ सालों से जेनेरिक दवा कंपनियों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए चुनौती पेश की है। इसका एक और उदाहरण नोवार्टिस का है। नोवार्टिस स्विट्जरलैंड की बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी है। नोवार्टिस को ग्लेविक दवा के लिए भारत में विशेष मार्केटिंग अधिकार प्राप्त थे। ग्लेविक इमाटिनिब मैसेलेट का बीटा क्रिस्टल रूप है। ग्लेविक क्रोनिक माइलॉयड ल्यूकिमिया के लिए निर्धारित औषधि है। नोवार्टिस की दवा की कीमत प्रति माह एक लाख बीस रुपए बैठती है। जबकि भारतीय जेनेरिक निर्माता इसी जीवन रक्षक दवा को दस हजार रुपए प्रति माह की कीमत पर मरीजों को उपलब्ध कराते हैं। बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड ने ग्लेविक के पेटेंट नवीकरण करने से इनकार कर दिया। इसके पीछे बोर्ड का आधार यह था कि इसकी कीमत बहुत ही अधिक है। नोवार्टिस यह मामला सुप्रीम कोर्ट में ले गई है। इसके अलावा भारत फाइजर कंपनी की कैंसर की दवा सूटंट, रॉश होल्डिंग एजी की हेपेटाइटिस सी की दवा पैग्सिस और मर्क एंड कंपनी की अस्थमा के इलाज की एयरोसोल सस्पेंशन फॉम्र्यूलेशन के मंजूर पेटेंटों को रद्द कर चुका है।
देखा जाए तो जेनेरिक दवा निर्माता कंपनियां बहुराष्ट्रीय कंपनियों के एकाधिकार का विकल्प बन सकती हैं। खासकर एचआईवी/एड्स के इलाज में इस्तेमाल में लाई जाने वाली एंटीरेट्रोवाइरल दवाओं के मामले में यह देखने को मिला है। एचआईवी-एड्स के एक मरीज को एक साल के इलाज के लिए 12 हजार से 15 हजार डॉलर खर्च करने पड़ते थे। भारत की बड़ी जेनेरिक दवा निर्माता कंपनियों में से एक सिप्ला ने उच्च गुणवत्ता वाली एचआईवी-एड्स एंटीरेट्रोवाइरल दवाएं सस्ते में उपलब्ध कराकर विकासशील देशों, विशेषकर अफ्रीका में मरीजों में एक नई आशा जगाई। सिप्ला ने तीन एंटीरेट्रोवाइरल को मिलाकर एक गोली बनाई जिसका नाम ट्राइओम्यून है। इसके लिए मरीज को एक साल के इलाज के लिए 350 डॉलर देने पड़ते हैं। अफ्रीका और अन्य विकासशील देशों में 85 प्रतिशत दवाएं भारतीय कंपनियों से जाती हैं। इन जेनेरिक दवाओं ने बहुत सारे लोगों का जीवन बचाया और बहुत सारे मरीजों की जीवन-प्रत्याशा को बढ़ाया। पूरी दुनिया में चार करोड़ लोग एड्स से पीडि़त हैं। इन मरीजों को सस्ती और उच्च गुणवत्ता वाली जेनेरिक दवाएं उपलब्ध होना जरूरी है, क्योंकि इन मरीजों में से अधिसंख्य के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दवाएं खरीदना असंभव है।
दवाओं की इतनी अधिक कीमत के मामले में बहुष्ट्रीय कंपनियों का तर्क है कि वह दवा की खोज और उसके विकास में बहुत अधिक निवेश करते हैं और अपने फार्मूले पर वह इसलिए भी अधिकार चाहते हैं ताकि वे आने वाले समय में अपनी गुणवत्ता को बढ़ा सकें। पर शोध और विकास में बहुत अधिक धन खर्च करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों का तर्क पूरी तरह निराधार है। इस मामले में हुए अध्ययन बताते हैं कि दवा अनुसंधान के लिए जो वैश्विक फंडिंग है उसमें से 84 फीसदी पूंजी सरकारों और सार्वजनिक स्रोतों से आती है। जबकि फार्मास्यूटिकल कंपनियां 12 प्रतिशत ही पूंजी लगाती हैं। उल्टा ये कंपनियां औसतन 19 गुना अधिक पैसा मार्केटिंग पर खर्च करती हैं। अपने राजस्व का 1.3 प्रतिशत पैसा ही ये कंपनियां मूल अनुसंधान पर खर्च करती हैं।
दरअसल, व्यापार संबंधी बौद्धिक संपदा अधिकारों के प्रसार के बाद पेटेंट बड़ा मुनाफा कमाने का एक खतरनाक हथियार बन गया है। जबकि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्राकृतिक दुनिया से संबंधित ज्ञान का एक बहुत बड़ा हिस्सा जो आज मानव के पास है उसमें कई सदियों के दौरान देशज और स्थानीय लोगों के प्रयासों का योगदान रहा है। देशज लोगों ने जो आविष्कार और खोजें की उन पर स्वामित्व का दावा नहीं किया। हालांकि हाल के दशकों में व्यापार संबंधी बौद्धिक संपदा के अधिकारों (ट्रिप्स) के परिणामस्वरूप देशज और स्थानीय लोगों के अधिकारों का उल्लंघन हुआ है। ट्रिप्स जीव रूपों और ट्रांस नेशनल कॉरपोरेशनों की गतिविधियों, जो जैविक संसाधनों (इस प्रक्रिया को जैव संभावना के नाम से जाना जाता है) पर आधारित उत्पादों के व्यावसायीकरण में शामिल हैं, को पेटेंट करने की इजाजत देता है। ट्रांस नेशनल कॉरपोरेशन जिन बहुत सारे 'आविष्कारों' को करने का दावा करते हैं, वह ज्ञान पहले से मौजूद रहा है, लेकिन जिसका दस्तावेजीकरण नहीं किया गया था। यह मौखिक तौर पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलता रहा है। यह सामूहिक ज्ञान है, इस पर स्वामित्व का अधिकार नहीं किया गया। देशज लोग इस तरह के ज्ञान के व्यावसायीकरण को पसंद नहीं करते थे। असली आविष्कारक इसे लोकहित में इस्तेमाल करते थे। बौद्धिक संपदा दौर के प्रसार के साथ पिछले कुछ सालों में देशज और स्थानीय लोगों के अधिकारों का उल्लंघन हुआ है। ट्रिप्स समझौते, जो जीवाणु, सूक्ष्म जीव विज्ञान प्रक्रियाओं और साथ ही वनस्पतियों की किस्मों के पेटेंट के लिए रास्ता उपलब्ध कराता है, ने पिछले कुछ वर्षों में पेटेंट के प्रसार के लिए अवसर उपलब्ध कराया है। ट्रांस नेशनल कॉरपोरेशनों ने देशज और स्थानीय लोगों के परंपरागत ज्ञान को स्वयं द्वारा किए गए 'आविष्कारों' का दावा करके पेटेंट कराने की कोशिश की है।
सवाल यही है कि दवाओं के अनुसंधान और विकास का लाभ किसको मिल रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां जिस तरह से मनमाना मुनाफा वसूल रही हैं उसे क्या चिकित्सा विज्ञान के मानदंडों से उचित कहा जा सकता है ? जैसे, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पेटेंट युक्त इंजेक्शन के दाम डेढ़ लाख रुपए तक हैं। वैश्विक संदर्भ में बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के एकाधिकार को देखते हुए यह जरूरी है कि पेटेंट युक्त दवाओं के जेनेरिक संस्करण के लिए अनिवार्य लाइसेंस देने की नीति को ज्यादा सक्रिय तरीके से लागू किया जाना चाहिए। जेनेरिक दवा निर्माण और अनिवार्य लाइसेंसिंग के मामले में भारत और अन्य विकासशील देश यदि कमजोर रुख अपनाएंगे तो इसके परिणाम तीसरी दुनिया के लिए बहुत ही घातक होंगे। लेकिन इसके साथ ही जेनेरिक दवा निर्माता कंपनियों की दवाओं की कीमतों के निर्धारण की ऐसी नीति होनी चाहिए जो आम जनता की पहुंच के अंदर हो। भारत जैसे देश में ऐसे लोगों की काफी बड़ी संख्या है जो जेनेरिक दवा निर्माता कंपनियों की जीवन रक्षक दवाओं को भी खरीदने में सक्षम नहीं हैं। अगर जिस व्यक्ति की प्रति माह आमदनी पांच हजार से सात हजार रुपए के बीच है वह इलाज के लिए दस हजार रुपए के कीमत वाली जेनेरिक दवा भी नहीं खरीद सकता है। भारत में इस तरह की कम आय वाले परिवारों की संख्या करोड़ों में है। "
संदर्भ:
1. आर. राघवन, 'नेटको फार्मा विंस कैंसर ड्रग द हिंदू, 5 मार्च 2013।
2. श्रीविद्या राघवन, 'पेशंट्स विन ओवर पेटेंट्स ; द हिंदू, 7 मार्च 2013।
3. देबोश्री रॉय, 'ऑफ ग्लेविक एंड नोवार्टिस ; फ्रंटियर, 9-15 दिसंबर 2012।
4. रोहिणी पाडुरंगी, 'पेटेंटिंग ट्रेडिशनल नॉलेज ; फ्रंटियर, 9-15 दिसंबर 2012।
5. मार्टिन खोर, 'फार्मा इंडस्ट्री फॉर द वल्र्डस् पूअर ; डेक्कन हेराल्ड, 20 मार्च 2013।
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