अभाव-शोषण की दास्तां में छिपा नक्सलवाद
उद्योगों के लिये आदिवासियों की जमीनों का अधिग्रहण संघर्ष की वजह बनती गई. ऐसे हर संघर्ष को नक्सली खुलकर हवा देते रहे और नक्सली आदिवासियों के मसीहा बन गये. इस तरह के सभी इलाकों में धीरे-धीरे नक्सलियों ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया...
देवशरण तिवारी
पिछले महीने 25 मई को जो कहर नक्सलियों ने बस्तर में बरपाया है उसे देख सभी सदमे में हैं. राजनीतिज्ञ, नौकरशाह, आम आदमी सभी यह सोच रहे हैं कि ऐसे में आखिर बस्तर का क्या होगा. बस्तर के आदिवासी खुद नक्सलियों की बड़ी ताकत बनकर खड़े हो चुके हैं. पर सवाल यह है कि लगातार आदिवासियों से दूर होती सरकार आदिवासियों का विश्वास जीतने में आखिर क्यों नाकाम साबित हो रही है. सच तो यह है कि इसे जानने के प्रयास कभी भी ईमानदारी से नहीं किये गये.
करोड़ों रुपये पानी की तरह यहां सरकारों ने बहाये हैं, लेकिन आज भी आदिवासी बूंद-बूंद को मोहताज हैं. सवाल है कि सरकार की दिखावटी योजनाओं का लाभ आखिर कहां जाकर रूक रहा है. कौन है जो गरीबों के हक को असल लोगों तक पहुंचने नहीं दे रहा है. इन्हीं सब बातों के सहारे गरीबों को भडक़ाने में लगी ''लाल' विचारधारा पूरी तरह से अपना पैर फैला चुकी है. एक नहीं दर्जनों गलतियों का यह नतीजा है. जिस घटना के पीछे छिपे तथ्यों को तलाश करने एनआईए को लगाया गया है, वह भी वास्तविक कारणों तक पहुंच पायेगी इसमें संदेह है.
मुख्य रूप से आदिवासियों के जीवन स्तर को सुधारने और उनका विश्वास लोकतंत्र के प्रति सुदृढ़ करने की नीयत से सरकार प्रायोजित दर्जनों योजनाएं चलाई जा रही हैं. यदि उनका आधा लाभ भी जंगलों में रहने वाले बस्तरियों को मिला होता तो आज यह लोग नक्सलियों के साथ खड़े दिखाई नहीं देते. उदाहरण के तौर पर पिछले कई वर्षों से आदिवासियों को लघु वनोपज का मालिकाना हक दिये जाने की बातें कही जाती रही है.
बस्तर से लगे महाराष्ट्र के गढ़चिरोली में बांस से लेकर इमली तक हर वनोपज का कारोबार आदिवासियों और ग्राम पंचायतों के माध्यम से किया जा रहा है. आदिवासियों की आय में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है. यहां किसी को अपने करोबार से फुर्सत नहीं है. सभी अपने कार्यों में जुटे हुए हैं. नक्सलियों को अब इनसे बात करने में भी जोखिम दिखाई पड़ रहा है. अपने आप किसी शहर जैसी अर्थव्यवस्था अब छोटे-छोटे गांवों में दिखाई पड़ रही है. एक तरफ बस्तर है जहां आज भी बिचौलिये इन आदिवासियों को ठग रहे हैं दूसरी तरफ सरकार नक्सलवाद के बढऩे की वजह ढूंढ रही है.
वन अधिकार कानून इन्हीं सब विसंगतियों को दूर करने 2007 में बनाया गया, लेकिन यह भी कागजों में सिमट कर रह गया. छग की आदिवासी मंत्रणा परिषद में आठ महीने पहले वनोपज का समर्थन मूल्य घोषित करने का निर्णय लिया था. स्वयं बस्तर के आदिवासी नेता और सरकार के अजाक मंत्री केदार कश्यप ने जल्द ही समर्थन मूल्य निर्धारित करने की बात कही थी. आज तक यहां लघु वनोपज का मूल्य निर्धारित नहीं किया जा सका है.
नतीजा हजारों करोड़ रूपये की कीमती वनोपज संवेदनशील इलाकों से बाहर नहीं निकल पा रही है, जो निकल भी रही है वो आदिवासियों की खून पसीने की मेहनत है जिसे पूंजीपति कौडिय़ों के दाम खरीद कर विदेशों को निर्यात कर रहे हैं. पन्द्रह साल पहले बस्तर के तात्कालीन कलेक्टर प्रवीर कृष्ण ने इस दिशा में सार्थक कदम उठाने की कोशिश की थी, लेकिन नेताओं और पूंजीपतियों के दबाव के चलते आदिवासियों के उत्थान की यह योजना बंद कर दी गई.
बस्तर के हरा सोना कहे जाने वाले तेन्दूपत्ते के अरबों के खेल में ठेकेदार, नेता, नक्सली और वन अधिकारी मालामाल होते चले गये और एक-एक जोड़ी चप्पल बांट कर इन गरीब आदिवासियों के प्रति सरकार की सहानुभुति की सरकारी कोशिश सरकार के आदिवासियों के प्रति झूठी संवेदना को प्रदर्शित करती रही.
वर्ष 2002 तक बस्तर में लोहे की खदानों पर सिर्फ सरकारी संस्था एनएमडीसी का ही कब्जा था, पर उसके बाद सिर्फ 5-7 सालों में बड़े औद्योगिक घरानों को अनाप शनाप ढंग से 8000 हेक्टेयर में फैली लोहे की खदानें बांट दी गई. नारायणपुर के ओरछा समेत भानुप्रतापपुर का वह इलाका जहां किसी सरकारी योजना को पहुंचाने में सरकार सफल न हो सकी, उन्हीं इलाकों में पूंजीपतियों को बिना संवैधानिक प्रक्रिया को पूरा किये खदानों का आबंटन कर दिया गया. ग्राम सभा की अनुमति लगभग ऐसे हर मामले में संदेहों के दायरे में रही. उद्योगों के लिये आदिवासियों की जमीनों का अधिग्रहण संघर्ष की वजह बनती गई. ऐसे हर संघर्ष को नक्सली खुलकर हवा देते रहे और नक्सली आदिवासियों के मसीहा बन गये. इस तरह के सभी इलाकों में धीरे-धीरे नक्सलियों ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया.
नक्सल प्रभावित जिलों के लिये आईएपी (एल.डब्ल.ई.) अर्थात इंटीग्रेटेड एक्शन प्लान लेफ्ट विंग एक्स्ट्रीमिज़म नामक योजना आरंभ की गई. बस्तर संभाग ही में 200 करोड़ से ज्यादा की रकम इन क्षेत्रों में हर वर्ष खर्च की जा रही है. हकीकत यह है कि नेता, सप्लायर, ठेकेदार और अफसरों के एक गिरोह ने इस राशि को बड़े ही नियोजित ढंग से गायब कर दिया. दर्जनों मामलों के खुलासे हुए. फिर जांच समिति बनाई गई. जिन्होंने भ्रष्टाचार किया उन्होंने ही जांच की, इसलिये जांच में कुछ साबित न हो सका.
इसी तरह मनरेगा, राजीव गांधी शिक्षा मिशन, एकीकृत आदिवासी परियोजना, बीआरजीएफ, पीएमजीएसवाय, तेरहवें वित्त आयोग की अरबों रुपयों की राशि ठिकाने लगा दी गई. अगर यह राशि बस्तर के एक-एक आदिवासी को नगद बांटी गई होती, तो एक-एक आदिवासी करोड़पति बन चुका होता. आज विभिन्न योजनाओं की सामग्री आदिवासियों में बांटे जाने के प्रमाण सरकारी अधिकारियों की फाईलों में मौजूद हैं, लेकिन जिन्होंने सामान प्राप्त होने के नाम पर अंगूठे लगाए हैं, उन्हें आज तक कुछ भी नहीं मिला.
नक्सलवाद को भले ही सब अभिशाप मान रहे हों, लेकिन बस्तर के नेताओं और अधिकारियों के लिये यह वरदान साबित हुआ है. देश की सबसे बड़ी इन्वेस्टीगेशन एजेंसी को जांच का जिम्मा दिया गया है, लेकिन वास्तविक कारणों तक एनआईए के सहारे नहीं पहुंचा जा सकता. वहां तक पहुंचने के लिये इमानदारी से सबको प्रयास करना होगा. आदिवासियों का शोषण कर रहे उस गिरोह का पता लगाना होगा, जो बरसों से बस्तर के आदिवासियों का खून चूस रहे हैं. यह वही खून है जो बारूदी सुरंग और एसएलआर की गोलियों के जख्मों से निकल कर सडक़ों पर बह रहा है.
देवशरण तिवारी छत्तीसगढ़ में वरिष्ठ पत्रकार हैं.
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