औद्योगिक विकास की राह में उजड़ता पर्यावरण
-आशीष वशिष्ठ||
विकास की मौजूदा अवधारणा और इस अवधारणा के तहत बनाई गई औद्योगिक नीतियों के चलते हमारे पर्यावरण को गंभीर नुकसान पहुंच रहा है. इसी अहसास के चलते विनाशकारी विकास और पर्यावरण के बीच टकराव तेज होता जा रहा है. वर्तमान में संम्पूर्ण उद्योग धंधों का विस्तार प्राकृतिक संसाधनों पर आधारिर्त इंधनों पर टिका है. विकास के इस मॉडल के कारण दुनिया के सामने ग्लोबल वार्मिंग की समस्या खड़ी हो गई है. पृथ्वी इतनी गर्म हो गई है जितनी पहले कभी नहीं थी. ग्लेशियर और घु्रवों पर मौजूद बर्फ पिघल रही है. नई औद्योगिक परियोजनाओं के लिए जंगलों को काटा जा रहा है. औद्योगीकरण की वर्तमान प्रक्रिया के पूर्व भी कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रफल बढ़ाने के लिए सदियों से वनों को काटा जाता रहा है लेकिन अब यह कटान खतरनाक स्तर पर पहुंच गई है. पर्यावरण प्रदूषण, ओजोन परत का क्षरण, ग्लोबल वार्मिंग और कचरे की बढ़ती समस्या के दरकिनार कर सरकारें औद्योगिक विकास का राग अलाप रही हैं. उन्हें इसकी जरा भी परवाह नहीं है औद्योगिक विकास की राह में पर्यावरण व आम आदमी किस कदर झुलस और उजड़ रहा है.
दरअसल में सरकार को नागरिकों की कोई चिंता नहीं है इसलिए सरकार पर्यावरण जैसे अहम् मुुद्दों का दरकिनार आर्थिक विकास और औद्योगीकरण के नाम पर मनमाने और पर्यावरण के प्रतिकूल निर्णय लेने से हिचकती नहीं है. सरकारों की यह अनदेखी राज्य और केंद्र के प्रदूषण नियंत्रण संस्थानों के कामकाज से भी जाहिर होती है. औद्योगिक प्रदूषण पर नजर रखने में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इसलिए कारगर नहीं हो पाता क्योंकि उनके पास जरूरी कर्मचारियों की फौज और उपयुक्त तकनीक नहीं होती. अगर प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड कुछ उद्योगों पर उंगली उठाने की हिम्मत कर भी ले तो राज्य की निवेश केंद्रित नीति और राजनेताओं व प्रशासन का भ्रष्टाचार आड़े आ जाता है. खनन क्षेत्र में हुई प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के दिशा-निर्देशों की घोर अनदेखी किसी से छिपी नहीं है. औद्योगिक प्रदूषण लेकिन सरकार अपने बेहूदे तर्कों के आधार पर मामले को टालने की पुरजोर कोशिश में लगी है. सरकार का पक्ष है कि देश के विकास के लिए औद्योगिक विकास आवश्यक है. दुनिया के हर मुल्क में बड़े-बड़े उद्योग स्थापित हैं, लेकिन भारत में सरकारी मशीनरी इतनी भ्रष्ट हो चुकी है कि एक बार उद्योग स्थापित होने के बाद लेनदेन का खेल शुरू हो जाता है. किसी भी उद्योग को देंखे, ऐसा हो ही नहीं सकता कि वहां पर्यावरण कानूनों का उल्लंघन न होता हो. और सरकारकी आंख तब तक नहीं खुलती, जब तक कोई हादसा न हो जाए.
भोपाल गैस कांड की त्रासदी ने आज के भूमंडलीकरण की पृष्ठभूमि तैय्यार की थी. करीब तीन दशक गुजर जाने के बावजूद फैक्ट्री परिसर में मौजूद 350 टन जहरीले कचरे को निपटाने में की जा रही कोताही इस बात की तस्दीक करती है. मौजूदा विकास में औद्योगीकरण को दी जा रही बेहिसाब तरजीह के साथ भी कानूनी तौर पर क्रियान्वित की जाने वाली पर्यावरण प्रदूषण की शर्तों को ठेंगे पर मारा जा रहा है. सरकारों की इसी जानीबूझी बेपरवाही को एक बार फिर उजागर करते ताजा बजटों में पर्यावरण प्रदूषण के लिए कोई गंभीर प्रावधान दिखाई नहीं देते. भले ही मौजूदा सरकारें उद्योगों की दम पर विकास करने के मंसूबे बांध रही हों, लेकिन उन उद्योगों के जरिए पानी, हवा और मिट्टी में फैलते जहर पर कैसे नियंत्रण रखा जाएगा ? क्या सरकारों के हिसाब से जंगल लगा लेना भर पर्यावरण संरक्षण है ? मुनाफाखोरी और सरकारी तंत्र के चंगुल में फंसा उद्योग जगत भी पर्यावरण बचाने की दिशा में कन्नी काटता और कंजूसी ही दिखाता है.
शीतल पेयों में मौजूद मानक स्तर से कई गुना ज्यादा प्रदूषित पानी पर सवाल उठाने वाले सेटर फॉर साइंस एण्ड एन्वायरनमेंट्य की निदेशक पर्यावरणविद सुनीता नारायण का कहना है कि हम बहुराष्ट्रीय कंपनियों के शीतलपेयों और मौजूदा विकास के मॉडल की मुखालिफत नहीं कर रहे, बल्कि उनसे सिर्फ प्रचलित अंतरराष्ट्रीय मानकों को लागू करने का आग्रह भर कर रहे हैं. ठीक यही बात हमारे राज्य और केंद्र के नीति निर्माताओं पर भी लागू होती है. भूमंडलीकरण की भेडियाधसान के नतीजे में खड़े हुए गरीबी, कुपोषण, विस्थापन और बीस रुपए रोज में जीवन-यापन जैसे मौजूं सवालों को छोड भी दें तो भी प्रदूषण की सीधी चपेट में आती आबादी को कैसे अनदेखा किया जा सकता है ? खासकर तब जब इसके कडाई से पालन करवाने के लिए दुनियाभर में कानूनी प्रावधान बने हों ?
अभी हाल ही में अमेरिका की एक अदालत ने विश्व की सबसे बड़ी मल्टी नेशनल खुदरा कंपनी वाल-मार्ट पर पर्यावरण कानून के उल्लंघन के मामले में 11 करोड़ डालर (615 करोड़ रुपए से अधिक) का भारी भरकम जुर्माना लगाया है. अमेरिका के न्याय विभाग ने कहा कि संघीय अभियोक्ता ने लॉस एंजलिस और सेनफ्रांसिस्को की छह अदालतों में वॉलमार्ट स्टोर्स के खिलाफ पयावरण कानूनों के तहत केस शुरू किया था. इसमें पूरे देश में कंपनी पर स्वच्छ जल कानून और खतरनाक पदार्थ के निस्तारण नियमों के उल्लंघन का आरोप लगाया गया था. कंपनी ने फेडरल इसेक्टीसाइड, फंजसाइडस एंड रोडेंटिसाइड एक्ट (एफआईएफआरए) के उल्लंघन और ग्राहकों द्वारा लौटाए गए पेस्टीसाइड्स का उचित रख-रखाव नहीं कर पाने के लिए माफी मांगी है. अमेरिका के संघीय प्रशासन ने आरोप लगाया था कि वाल मार्ट के पास अपने कर्मचारियों को स्टोर में खतरनाक कचरे के प्रबंधन और निपटान का प्रशिक्षण देने का कोई कार्यक्रम नहीं है. इसलिए खतरनाक कचरे को या तो नगरपालिका के कूड़ेदान में डाल दिया गया या यदि यह कोई तरल कचरा था तो उसे स्थानीय सीवर प्रणाली में डाल दिया जाता था फिर बिना किसी सुरक्षा के और दस्तावेज तैयार किए बगैर कंपनी के वापस किए गए सामानों के लिए बने छह केंद्रों पर भेजा जाता था. पूरे अमेरिका में कंपनी के 4,000 स्टोर है. इनसे वह हजारों तरह की चीजें बेचती है. इनमें कुछ अमेरिकी कानून के तहत ज्वलनशील, छीजनकारी, जलन पैदा करने वाले, विषाक्त और खतरनाक सामान की श्रेणी में आते हैं.
देश में पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण नियत्रंण के लिए कानूनों का भारी बस्ता तो हमारे पास है, लेकिन उनका पालन करवाने की इच्छाशक्ति नहीं है. वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा गठित समिति एक समिति ने अपनी रिपोर्ट में एक पर्यावरण बहाली कोष की स्थापना करने का सुझाव दिया था. समिति ने कहा है कि इस कोष का आकार परियोजना लागत (तापीय बिजली संयंत्र की लागत सहित) का 1 फीसदी या 200 करोड़ रुपये में से जो अधिक हो होना चाहिए. इस कोष का उपयोग मुंद्रा में पर्यावरण को हुए नुकसान की भरपाई और नियामकीय व निगरानी प्रणालियों को मजबूत करने में किया जाना चाहिए. समिति ने अदाणी पोर्ट ऐंड स्पेशल इकोनोमिक जोन (एपीएसईजेड) ने पर्यावरण मंजूरी संबंधी दिशानिर्देशों का उल्लंघन के मामले में कंपनी पर भारी जुर्माना लगाए जाने की सिफारिश भी की थी. नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने पर्यावरण व जनहित दोनों को ध्यान में रखकर नीति बनाने का आदेश दिया है.
सामाजिक उत्तरदायित्व के अंतर्गत कारपोरेट और उद्योग पर्यावरण प्रदूषण को रख-रखाव, संरक्षण और प्रदूषण की मात्रा को कम और संतुलित बनाने की दिशा में काम तो कर रहे हैं लेकिन तेजी से होते पर्यावरण प्रदूषण और पर्यावरणीय समस्याओं के समक्ष यह प्रयास और मदद ऊंट के मुंह में जीरे के समान है. कानून, नियमों का हवाला और आड़ में उद्योग पर्यावरण संरक्षण व प्रदूषण रोकथाम जैसे अहम् और जनहित से जुड़े मुद्दे से अपना पल्ला नहीं झाड़ सकते. सरकार को भी औद्योगिक और आर्थिक विकास को बात सोचने से पूर्व पर्यावरण हित सोचने चाहिएं क्योंकि अगर पर्यावरण और प्रकृति ही नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगी तो कोई भी विदेशी या देशी कंपनी लुटी-पिटी धरती और गर्मी से तपते देश में उद्योग लगाने नहीं आएगा. पर्यावरणीय संकट की समस्या को सभी छोटे-बड़े देशों को समय रहते गंभीरता से लेना होगा और सुरक्षित पर्यावरण के मसले को विनाशकारी चुनौती के रूप में ईमानदारी से स्वीकारना होगा.
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