अंतःस्थल से एकबार फिर
पलाश विश्वास
देखते देखते बीत गये पूरे बारह साल, बीता एक युग
मैंने कभी पिता की पुण्यतिथि नहीं मनायी
न मैं इस योग्य हूं की उनकी संघर्ष की विरासत का बोझ
ढो सकूं, इतनी प्रतिबद्धता कहां से लाऊं
वे कोई पत्रकार या जनप्रतिनिधि तो नहीं,
पर जीते जी सारे के सारे प्रधानमंत्रियों, राष्ट्रपतियों और
मुख्यमंत्रियों, विपक्ष के नेताओं से सीधे संवाद
की स्थितियां बना लेते थे, पीसी अलेक्सांद्र की दीवार फांद
पहुंच जाते थे इंदिराजी के प्रधानमंत्री कार्यालय में
बिना पैसे वे कहीं से कहीं पहुंच सकते थे और
मौसम या जलवायु से उनका कार्यक्रम बदलता नहीं था
जिस दिशा से आये पुकार, जहां भी देस के जिस कोने में या
सीमापार कहीं भी संकट में फंसे हो अपने लोग, बिना पासपोर्ट
बिना विसा दौड़ पड़ते थे वे कभी भी
अपना घर फूंककर दूसरों को उष्मा देने की
अनंत ऊर्जी थी उनमें और वे जिस जमीन पर खड़े होते थे,
वहां से भूमिगत आग गंगाजल बनकर सतह
पर आ जाती थी, ऐसा था उनका करतब
वे अपढ़ थे, पर संवाद की उनकी वह कला हमारी पकड़ से
बाहर है लाख कोशिशों के बावजूद
भाषा उनके लिए कोई बाधा खडी नहीं
कर सकती थी, न धर्म की कोई प्राचीर थी
उनके आगे पीछे और जाति कहीं भी रोकती न थी उन्हें
वे गांधी नहीं थे यकीनन, लेकिन गांधी सा जीवन जिया उन्होंने
पहाड़ों की कड़कती सर्दी में भी वे नंगे बदन बेपवाह हो सकते थे
उनकी रीढ़ में कैंसर था, पर वे हिमालय से कन्याकुमारी तक की
समूची जमीन नापते रहे पैदल ही पैदल
और उनकी आखिरी सांस भी थी उनके संघर्ष के साथियों के लिए
हमें कोई अफसोस नहीं कि वे अपने पीछे
कुछ भी नहीं छोड़ गये हमारे लिए
सिर्फ एक चुनौती के, जो हर वक्त हमें
उस अधूरी लड़ाई से जोड़े रखती है
जो हम कायदे से लड़ भी नहीं सकते और
न मैदान छोड़ सकते हैं जीते जी
विभाजन की त्रासदी झेलने के बावजूद
वे अखंड भारत के नागरिक थे
दंगों की तपिश सहने के बावजूद वे
नख से सिर तक धर्मनिरपेक्ष थे
लोकतांत्रिक थे इतने कि हर फैसले से पहले करते थे
हर संभव संवाद, शत्रु मित्र अपने पराये
ये शब्द उनके लिए न थे
और जनहित में जो भी हो जरुरी
उसके लिए योग्यता हो या नहीं, कुछ भी कर गुजरने
की कुव्वत थी उनमें , जिम्मेवारी टालकर
पलायन सिखा न था
वे पुलिस का डंडा झेल सकते थे
हाथ पांव तुड़वा सकते थे
जेल से उन्हें डर लगता नहीं था और खाली पेट
रहना तो उनकी आदत थी
वे खेत जोतते थे और सिंचते थे पसल
सपना बोते थे और अपना हक हकूक के लिए
लड़ना सिखाते थे
वे पुनर्वास की मांग लेकर चारबाग पर
तीन तीन दिन ट्रेनें रोक सकते थे
तो ढिमरी ब्लाक के किसानों के भी अगुवा थे वे
आखिर तक उन्होंने अपने गांव को
बनाये रखा साझा परिवार
जो अब भी , उनकी मौत के
बारह साल भी है साझा परिवार
जो खून के रिश्ते से नहीं, संघर्ष की विरासत
के जरिये आज भी है साझा परिवार
मेरे पिता की पुण्यतिथि वे ही
मना सकते हैं, मना रहे हैं , मैं नहीं
मैं आज उनमें से कोई नहीं
बंद गली की कैद में सुस्ती
मेरी यह जिंदगी मधुमेह में बेबस
हजारों जरुरतों की चारदीवारी में कैद
हमारी प्रतिबद्धता
मैं वह जुनून, वह दीवानगी
कभी हासिल ही नहीं कर सका
जो कुछ भी कर गुजरने को मजबूर करे इंसान को
सिर्फ इंसानियत के लिए
इंसानियत के हक हकूक के लिए
लाखों करोड़ों को परिजन
बनाने की वह कला विरासत में नहीं मिला हमें
मैं पिता की पुण्यतिथि नहीं मनाता
कर्म कांड तो वे भी नहीं मानते थे
और व्याकरण के विरुद्ध थे वे
अवधारणाओं के भी, उनके लिए
विचारधारा से ऊपर था सामाजिक यथार्थ
जिसे हम कभी नहीं मान सकें
वे गाधीवादी थे तो अंबेडकर के अनुयायी भी
वे मार्क्सवादी थे, लेकिन कट्टर थे नहीं
वे नीति रणनीति के हिसाब से जनसरोकार
का पैमाना तय नहीं करते थे और न कर सकते थे
आखिर वे थे ठेठ शरणार्थी, ठेठ देहाती किसान
जो किताबों से नहीं, अनुभवों और चौपाल से तय करते हैं चीजें
वे सीधे संघर्ष के मैदान में होते थे
क्योंकि विद्वता न थी, इसीलिए
संगोष्ठी की शोभा नहीं बने वे कभी
और न उनका संघर्ष रिकार्ड हुआ कहीं
वे सबकुछ दर्ज करवाकर मरने का इंतजाम नहीं कर पाये
औऱ फकीर की तरह या घर फूंक कबीर की तरह
यूं ही जिंदगी गवां दी अपने लोगों के नाम
सत्ता के गलियारों को बहुत नजदीक से देखा उन्होंने
पर सत्ता की राजनीति में कहीं नहीं थे वे
उनकी एक ही राजनीति थी, वंचितों, बेदखल लोगो की
आवाज बुलंद करने की राजनीति
और वही विरासत हमारे लिए छोड़ गये वे
वे हमारे वजूद में इसतरह समाये हैं कि
हम अबभी उन्हींकी मर्जी के मुताबिक
उन्हींकी लड़ाई जारी रखने की नाकाम कोशिश में मशगुल
उनकी पुण्यतिथियों पर भी बेपरवाह रहे आजतक
और बारह साल पूरे हुए इस तरह
मुझे तो यह तिथि भी याद न थी
फेसबुक से सीधे गांव से
बसंतीपुर से जारी हुई तस्वीर तो
याद आये पिताजी फिर हमें
फिर ये बेतरतीब पंक्तियां निकल पड़ी
अंतःस्थल से एकबार फिर
Subeer Goswamin shared Nityanand Mandal's photo.
No comments:
Post a Comment