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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Saturday, June 15, 2013

अडवाणी हों या मोदी : क्या फर्क पड़ता है?

अडवाणी हों या मोदी : क्या फर्क पड़ता है?


मोदी और अडवाणी,दोनों ने राजधर्म का पालन नहीं किया…

 ललित सुरजन

यह बहुप्रचारित है कि भारतीय जनता पार्टी, भारतीय संस्कृति की संरक्षक, संवाहक और संपोषक है। उसकी यह छवि पिछले पचास-साठ साल में बड़ी मेहनत से संघ के उन स्वयम्सेवकों ने बनाई थी, जो नागपुर से निकलकर अथवा नागपुर से दीक्षा प्राप्त कर देश के दूरदराज के हिस्सों में जाकर संघ के उद्देश्यों के लिये काम करते हुये अपना पूरा जीवन खपा देते थे। राष्ट्रीय स्वयम्सेवक संघ अपने आपको भले ही सांस्कृतिक संगठन मानता रहा हो, लेकिन यह उसे शुरु से पता था कि राजनीतिक सत्ता हासिल किए बिना भारत को हिन्दू राष्ट्र में तब्दील करने का उसका सपना कभी पूरा नहीं हो सकता। यदि संघ के गठन के तुरंत बाद उसने हिन्दू महासभा का इस्तेमाल अपने राजनीतिक मंच के रूप में किया तो बाद में भारतीय जनसंघ का गठन भी इसी मकसद से हुआ। जनसंघ से जनता पार्टी से होते हुये भाजपा के विकास तक की यात्रा में संघ के स्वयम्सेवकों एवं पूर्णकालिक प्रचारकों ने महती भूमिका निभाई, इसमें दो राय नहीं। आज उनके दिल पर क्या गुजर रही होगी, वे ही जानते होंगे!

1952 के पहले आम चुनाव से लेकर 2009 के चुनावों तक संघ के इस राजनीतिक मंच ने बहुत से उतार-चढ़ाव देखे हैं। एक राजनीतिक दल के रूप में जब कभी भी उसे सत्ता में आने का अवसर मिला, उसने एक तरफ तो संघ के एजेंडा को लागू करने के लिये जो भी प्रयत्न किए जाना चाहिये थे किए, लेकिन दूसरी तरफ सत्ता में बैठे उसके नेता उन आकर्षणों और प्रलोभनों से नहीं बच सके जो सत्ताधीशों को सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं। भारतीय जनता पार्टी का चुनाव चिन्ह भले ही कमल हो, लेकिन  दुर्भाग्य से उसके नेता और कार्यकर्ता सत्ता के कीचड़ से उठकर स्वयम् कमल नहीं बन सके। कल-परसों टीवी की एक बहस में भाजपा के किसी प्रवक्ता ने बेहद हास्यास्पद तरीके से पहले तो लालकृष्ण अडवाणी की तुलना महात्मा गांधी से की कि उनके घोषित उम्मीदवार पट्टाभि सीतारम्मैया त्रिपुरी कांग्रेस (1939) में सुभाषचंद्र बोस से हार गये थे। इसके बाद उन्होंने अडवाणीजी की तुलना ज्योति बसु से की जो पार्टी के आदेश को मानकर प्रधानमन्त्री नहीं बन पाये।

जाहिर है कि इन दोनों तुलनाओं का कोई औचित्य नहीं था। महात्मा गांधी स्वयम् अपने लिये चुनाव नहीं लड़ रहे थे। उनका नेताजी से मतभेद सैद्धान्तिक स्तर पर था। इसी तरह ज्योति बाबू ने पार्टी के आदेश के खिलाफ विद्रोह नहीं किया था। दरअसल, पिछले पाँच-सात दिन में भाजपा के भीतर जो उठापटक देखने मिल रही है, उसका पार्टी या संघ परिवार की नीतिसिद्धान्त या परम्परा से कोई लेना-देना नहीं है। मोदी बनाम अडवाणी की यह लड़ाई येन-केन-प्रकारेण प्रधानमन्त्री की कुर्सी पर काबिज हो जाने की महत्वाकाँक्षा से उपजी है। इस लड़ाई का हश्र क्या होगा, यह अनुमान तो भाजपा के सक्रिय कार्यकर्ता ही लगा सकते हैं, लेकिन एक आम नागरिक का जहाँ तक सवाल है उसकी नजर में न तो श्री मोदी की प्रतिष्ठा बढ़ी है और न श्री अडवाणी की।

लालकृष्ण अडवाणी आज यानी अब तक भारतीय जनता पार्टी के सर्वाधिक वरिष्ठ नेता हैं। अटल बिहारी वाजपेयी की असाध्य बीमारी के चलते उन्हें यह अवसर मिला है। वे पार्टी के सर्वाधिक वयप्राप्त नेता भी हैं। वे अपनी इस वरीयता का लाभ उठाकर सहानुभूति व समर्थन जुटाना चाहते हैं किन्तु इसकी ओट में वे अपने अतीत को छिपा नहीं सकते। राजनीति के अध्येता जानते हैं कि श्री अडवाणी एक महत्वाकाँक्षी नेता हैं तथा पिछले पच्चीस वर्षों से वे प्रधानमन्त्री बनने की फिराक में लगे हुये हैं। 1990 में उनकी रथयात्रा का मकसद आखिरकार क्या था? इसके उपरान्त एनडीए सरकार बनने पर उन्होंने कोशिश कर अपने लियेउपप्रधानमन्त्री का दर्जा हासिल किया ताकि वे खुद को सरदार पटेल के समकक्ष खड़ा कर सकें। वे महज केबिनेट मन्त्री बनकर संतुष्ट नहीं थे। इसके बाद 2003 में वाजपेयी जी की अस्वस्थता को मुद्दा बनाकर प्रधानमन्त्री बनने के लिये जोर लगाया। वह तो जब आमसभा में वाजपेयीजी ने "न टायर न रिटायर" का जुमला कसा तब अडवाणी जी के तेवर ठण्डे हुये।

बात यहीं नहीं रुकी। उन्होंने 2004 में समय पूर्व चुनाव करवाने की पहल भी की, लेकिन पाँसा फिर एक बार गलत पड़ा। 2005 में अडवाणी जी पाकिस्तान में मोहम्मद अली जिन्ना की मजार पर गये और पाकिस्तान के मरहूम संस्थापक को धर्मनिरपेक्ष होने का प्रमाण दे आये, शायद यही सोचकर कि अपने इस करतब से वे भारत के दक्षिण-उदारवादी तबके का समर्थन हासिल कर लेंगे, उसी तरह जैसा कि वाजपेयी जी को मिला था। अडवाणी जी की राजनीतिक यात्रा के ये प्रसंग जिसे भी याद हैं, उसकी सहानुभूति उनके प्रति नहीं हो सकती।

भाजपा की इस ताजा अर्न्तकलह के दूसरे मुख्य पात्र हैं गुजरात के मुख्यमन्त्री नरेन्द्र मोदी। इस पद पर कार्य करते हुये पिछले बारह साल में उनकी जो उपलब्धियाँ रही हैं उन्हें देखते हुये ऐसा कोई भी व्यक्ति उन्हें अपना वोट नहीं दे सकता, जो जनतन्त्र,समाजवाद व धर्मनिरपेक्षताके बुनियादी उसूलों में विश्वास रखता हो। अगर अटल बिहारी वाजपेयी की बात सुनी गयी होती तो 2002 में ही नरेन्द्र मोदी को मुख्यमन्त्री के पद से हट जाना

Lalit Surjan, ललित सुरजन

ललित सुरजन, लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवम् साहित्यकार हैं। प्रतिष्ठित देशबंधु समाचारपत्र के समूह सम्पादक हैं। उनका यह स्तम्भ मूल रूप से देशबंधु में प्रकाशित है।

चाहिये था। यह विडम्बना है कि जिन अडवाणी ने मोदी का बचाव किया था वे ही आज अपने आपको ठगा महसूस कर रहे हैं। इस प्रसंग से यह जाहिर होता है कि श्री मोदी और श्री अडवाणी दोनों राजधर्म की कसौटी पर खरे नहीं उतरे। इसलिये इन पर से किसी पर भी विश्वास करना देश के संविधान के साथ धोखा करना है।

नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में गुजरात में 2002 का नरसंहार ही नहीं हुआ, उसके बाद का घटना चक्र भी उनकी कोई बेहतर छवि पेश नहीं करता। आज उन्होंने अडवाणीजी को किनारे लगाया है, लेकिन इसके बहुत पहले वे गुजरात में भाजपा की नींव मजबूत करने वालेकेशुभाई पटेल व सुरेश मेहता जैसे नेताओं को दरकिनार कर चुके हैं। यानी अपनी महत्वाकाँक्षा की पूर्ति में वे व्यक्तिगत सम्बंधों की परवाह नहीं करते। अपने ही एक मन्त्रीहरेन पण्ड्या की हत्या को लेकर उनकी भूमिका पर सवाल उठाये जाते रहे हैं। दूसरी तरफ वे हत्या के आरोपी अमित शाह को पार्टी महासचिव बनवाते हैं और सरेआम बन्दूक का डर दिखाने वाले विट्ठल रादडिया को भाजपा प्रवेश कर उन्हें लोकसभा का टिकट देते हैं। यानी उन्हें इस बात की तनिक भी परवाह नहीं है कि उनके साथी-सहयोगियों का चरित्र क्या है। नरेन्द्र मोदी अपनी लोकप्रिय छवि बनाने के लिये निरन्तर उपाय करते रहे हैं। इसके बावजूद सोहराबुद्दीन हत्याकाण्डइशरत जहाँ हत्याकाण्ड और एहसान जाफरी की हत्याजैसे दुखदायी प्रसंग भूत बनकर उनका पीछा कर रहे हैं। माया कोडनानी सहित उनके कुछ और कट्टर साथी जेल में सजायें भुगत ही रहे हैं।

ऐसे प्रकरणों पर पर्दा डालते हुये श्री मोदी अपने छवि निर्माण के लिये विराट सम्मेलन करते हैं, लेकिन वे उस क्षण बेनकाब हो जाते हैं जब वे मुसलमान फकीर द्वारा दी गयी टोपी पहनने से खुले मंच पर इन्कार कर देते हैं। दूसरे शब्दों में दीनदयाल उपाध्याय के जिस एकात्म मानवतावाद का मन्त्र लेकर अटल बिहारी वाजपेयी आगे बढ़े थे उसके लिये नरेन्द्र मोदी के विचार और कार्य में कोई जगह नहीं है।

दरअसल नरेन्द्र मोदी की आज की जो विराट छवि जनता के सामने पेश की गयी है वह एक छलावा है, मायाजाल है और उसे बुनने-बिछाने का काम कॉरपोरेट घरानों और उनके द्वारा नियन्त्रित मीडिया ने किया है। टाटा और अंबानी से लेकर छोटे-छोटे औद्योगिक घराने भी आज नरेन्द्र मोदी पर उसी तरह न्यौछावर हो रहे हैं जिस तरह 1932-36 के दौरान जर्मनी के पूँजीपति हिटलर पर मुग्ध हो रहे थे। श्री मोदी के लिये तो कॉरपोरेट मीडिया भी पर्याप्त नहीं है। जैसा कि हम जानते हैं वे पिछले छह साल से अमेरिका की एप्रो नामक उस पब्लिक रिलेशन फर्म की सेवायें ले रहे हैं जिसमें रूस में येल्तसिन और यूक्रेन आदि अनेक देशों में कुछ और तानाशाहों ने अपनी सेवायें दी थीं।

भाजपा और संघ दोनों इस सच्चाई से परिचित हैं। इसके बावजूद अगर वे कच्ची भावनाओं को उभाड़ने का खेल खेलना चाहते हैं तो हमें विश्वास है कि अगले चुनाव में देश की परिपक्व जनता उन्हें इसका माकूल जवाब देगी।

 

(देशबंधु में प्रकाशित)

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