पंत शासन में ही शुरू हो गया था पलायन
शंकर भाटिया
इस बार कई सालों बाद अपनी जन्म भूमि लीमा गाँव गया, जो पिथौरागढ़ जिले के डीडीहाट तहसील में है। वहाँ हो रहा बदलाव अधिक तीखा और स्पष्ट दिखाई दिया। गाँव का कुछ उजड़ा-उजड़ा सा माहौल, जैसे किसी ने फिजा का रस चूसकर छोड़ दिया हो।
बदलाव निरंतर होने वाली प्रक्रिया है, बसर्ते कि वह बेहतरी के लिए हो। लेकिन यह बदलाव निराश करने वाला है। पलायन का यह डरावना रूप सिर्फ अपने गाँव में ही नहीं बल्कि उत्तराखंड के पहाड़ों में एक जैसा दिखाई दे रहा है। गाँवों की वह जमीन अब बंजर पड़ी हैं जो कभी बहुत उत्पादक थी। यह अन्य वजहों के साथ ही बंदर, लंगूर, जंगली सुअर, सेही आदि के प्रकोप की वजह से हो रहा है।
लीमा गाँव तल्ली आटाबीसी पट्टी का सबसे बड़ा गाँव हुआ करता था। गाँव में चार बड़े मजरे हुआ करते हैं, हरिजनों के दो मजरे अलग से हैं। मेरे बचपन में एक मजरे में बीस से पच्चीस परिवार रहते थे। जब रहने के लिए अलग से घर नहीं होता, तो पुराने बने तिमंजले एक ही मकान में दो-दो परिवार रहते थे। एक परिवार ऊपरी माले में, दूसरा बीच वाले माले में रहता और सबसे नीचे वाले माले यानी गोठ में जानवर रहते थे। मालागाँव, गाँव का सबसे बड़ा मजरा हुआ करता था, जहाँ पच्चीस परिवार एक-साथ आपस में गुथे घरों में रहा करते थे। गाँव में हमेशा चहल-पहल और रौनक रहती थी, जो अब नदारद है। एक ही मजरे में एक क्रिकेट टीम से अधिक एक उम्र के बच्चे रहते थे। कई बार हम गाँव के सीढ़ीदार खेल मैदान में मजरों की टीम के बीच क्रिकेट मैच खेला करते थे, उसके बाद पूरे गाँव की टीम का सलेक्शन कर जौरासी में दूसरे गाँवों की टीमों के साथ मैच खेलते थे। हमारा मुकाबला बाजानी की टीम से होता था।
गाँव में ज्यादातर घर अब खंडहर हो गए हैं। सबसे बड़े मजरे मालागाँव मैं अब सिर्फ सात परिवार रह गए हैं, वह भी आधे-अधूरे। बच्चे पढ़ाने के लिए महिलाएं शहरों की ओर निकल चुकी हैं, सिर्फ बुजुर्ग घर में रह गए हैं। अन्य मजरों में भी किसी में तीन तो किसी में चार परिवार रह गए हैं। अधिकांश परिवार खटीमा, दिल्ली की ओर पलायन कर चुके हैं। मेरा परिवार देहरादून तो कुछ रामनगर की ओर बस चुके हैं। इसी वजह से अधिकांश घर खाली हो चुके हैं। कुछ परिवार गाँव में ही एकांत स्थानों की ओर विस्थापित हो गए हैं।
पलायन का दौर यहीं समाप्त नहीं हुआ है। जिन परिवारों में बेटा फौज में है और वहन कर सकता है, उसकी पत्नी और बच्चे पिथौरागढ़ जाकर किराए के मकानों में रहने लगे हैं। वजह है बच्चों को बेहतर शिक्षा देना और घर में बूढ़े माँ-बाप ही रह गए हैं। छाना गाँव निवासी मेरी बुआ के दोनों बेटे फोर्स में हैं, दोनों बहुएं अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए घर से निकली हैं। घर में बुआ और उनके पति ही रह गए हैं। बुआ को बहुत पहले लगी कमर की चोट इस बुढ़ापे में मर्माहत कर रही है। डाक्टरों ने पूर्ण बेड रेस्ट की सलाह दी है, लेकिन घर में कोई सहयोगी न होने की वजह से वह आराम नहीं कर पा रही हैं और मर्ज बढ़ता जा रहा है। घर-घर में हालात ऐसे ही हैं।
गाँव उजड़ रहे हैं और हम निरन्तर बढ़ रहे उजाड़ को देखने विवश हैं। मैं भी करीब तीस साल पहले गाँव छोड़कर देहरादून निकला था। मैं अपने अंदर झाँककर देखता हूँ तो तब गाँव छोड़ चले जाने की कोई ठोस वजह नहीं दिखाई देती है। सन् 1980 के बाद अपने गाँव लीमा तथा आसपास के अन्य गाँवों से लोग बड़ी संख्या में खटीमा तराई की ओर जाने लगे थे। मेरे गाँव से एक-साथ चालीस से अधिक परिवार पलयान कर चुके थे। उसी दौर में, मैं अपने परिवार के साथ देहरादून निकल गया। खटीमा-तराई क्षेत्र के गाँवों में तब पक्के मकान नहीं होते थे, जमीनें भी कच्ची थी। देहरादून में मेरे मामा का परिवार वर्षों से रह रहा था, इसलिए शायद मैंने देहरादून को चुना।
आज भी मुझे़ पलायन की मूल वजह नजर नहीं आती। जो लोग गाँव से निकले हैं, उनकी स्थिति पहाड़ में रह रहे लोगों से बेहतर है, शायद इसीलिए पलायन का निर्णय लिया होगा। मैंने अपने गाँव से पहला पलायन तब देखा जब दो परिवार गाँव छोड़कर रामनगर चले गए थे। उसी परिवार में मेरा हम उम्र हीरा दादा का परिवार भी था। हम साथ खेलते थे, अभी हमने तीन किलोमीटर दूर जौरासी स्कूल जाना शुरू ही किया था कि उसका परिवार रामनगर चला गया। गाँव में इन दो परिवारों के जाने के दो दशक बाद पलायन का बूम आया, जो अब निरंतर बढ़ता जा रहा है।
मैं भी उसी पलायन का हिस्सा हूँ। पलायन के कारण ढूँढने पर वह सतही तौर पर कहीं नहीं दिखता। बहुत चिंतन-मनन के बाद उसकी जड़ें मुझे बहुत दूर दिखाई देती हैं। इन जड़ों को यदि गंभीरता से गहराई में ढूंढा जाए तो इतिहास में हमें अस्पष्ट सी लगने वाली जड़ें साफ दिखती हैं। यह उसी व्यक्ति को दिखाई देती हैं, जिसकी आँखें खुली हों, जो निरपेक्ष तरीके से इसे देखना चाहता हो। नेताओं और बड़े नामों के मोह-पास में फँसे लोगों को यह नजर नहीं आती, उन्हें इसमें दूसरी राजनीति दिखाई देती है। दरअसल इसकी मूल वजह भीे राजनीति ही है।
जिस वीभत्स पलायन का रूप आज हम उत्तराखंड के गाँवों में देख रहे हैं, उसकी नीव स्वतंत्रता के बाद उस दौर में पड़नी शुरू हो गई थी, जब हिमाचल के क्षेत्रीय कहे जाने वाले नेता यशवंत सिंह परमार अपने पहाड़ों की जर्जर हालातों को देखते हुए हिमाचल को पंजाब से अलग करने और हिमाचल की अर्थव्यवस्था की जड़ों को मजबूत करने के लिए परंपरागत खेती के स्थान पर उद्यानिकी को उस पहाड़ी क्षेत्र की अर्थव्यवस्था की रीढ़ बनाने की ओर बढ़े थे। अपनी मातृभूमि के प्रति श्री परमार की इस टीस को देश के तत्कालीन गृह मंत्री गोविन्द बल्लभ पंत ने समझा और अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर हिमाचल को पंजाब से अलग करने का निर्णय ले लिया। तब उत्तराखंड की राजनीति के केद्र बिंदु बन चुके पंडित गोविन्द बल्लभ पंत ने यशवंत सिंह परमार और उनके साथियों के आग्रह पर पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों को दरकिनार कर हिमाचल के राज्य बनने की राह प्रसस्त कर दी। लेकिन ठीक वैसी ही दुर्गति के दौर से गुजर रहे अपनी मातृभूमि उत्तराखंड के बारे में नहीं सोचा।
उस दौर में विधानसभा, विथान परिषद और संसद की प्रोसीडिंग देखने से लगता है कि कांग्रेस के कई नेता इन दुष्चिन्ताओं से विचलित थे। उनमें से कई पंतजी के सामने और सदन में भी उत्तराखंड के भविष्य पर सवाल उठा रहे थे, लेकिन किसी की यह हिम्मत नहीं थी कि वह हिमाचल की तरह उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने की मांग आयोग या पंतजी से कर पाते। वह हिमाचल को अलग राज्य बनाने की ओर बढ़े कदमों की सराहना करते, उत्तराखंड के भविष्य के प्रति चिंतित होते, लेकिन उन सभी पर पंतजी का इतना प्रभाव था कि जब अलग राज्य की बात आती तो वे राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय भावना का मुलम्मा चढ़ाकर अपनी जुबान पर लगाम लगा लेते।
तत्कालीन विधान परिषद सदस्य इंद्रजीत सिंह नयाल का उत्तर प्रदेश विधान परिषद में दिया गया वह वक्तव्य इसका उदाहरण है। जब वह उत्तराखंड तथा हिमाचल की तुलना करते हुए हिमाचल को पंजाब से अलग करने की प्रक्रिया का मुक्त कंठ से स्वागत करते हुए दिखाई देते हैं। साथ ही उत्तराखंड के वैसे ही हालातों की वजह से इस क्षेत्र को भी वही ट्रीटमेंट देने का आग्रह करते हैं। उनका वक्तव्य उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने की मांग करता हुआ दिखाई देता है कि इसी बीच उस वक्तव्य का रुख मुड़ जाता है। अब वह राष्ट्रीय एकता के लिए उत्तर प्रदेश के किसी विभाजन के विरोध में खड़े दिखाई देते हैं। यह तत्कालीन कांग्रेसियों में पंतजी के प्रभाव का एक उदाहरण है, जो हिमाचल की तरह अलग उत्तराखंड की बात किसी को सोचने भी नहीं देते। उन नेताओं पर पंतजी का खौफ इतना हावी होता है कि जैसे उनके सोचने पर भी पाबंदी लगा दी गई हो।
इसी दौर में उत्तराखंड की बर्बादी की इबारत लिख दी गई थी। वह कोई और नहीं, बल्कि उत्तराखंड के उस दौर के एकछत्र नेता थे। उन्हीं की राह पर उत्तराखंड आज भी चल रहा है। आखिर पं गोविन्द बल्लभ पंत यदि हिमाचल प्रदेश की गरीबी, वहाँ के पहाडि़यों की दुर्दशा पर तरस खा रहे थे, तो अपनी मातृभूमि उत्तराखंड के पहाडि़यों की वैसी दुर्दशा पर उन्हें पसीजने से कौन रोक रहा था? क्या ऐसा निर्णय उन्हें अपने राजनीतिक हितों की रक्षा के लिए लेना पड़ा? यह एक नेता के राजनीतिक स्वार्थ के लिए एक संपूर्ण क्षेत्र के हितों की बलि चढ़ाने वाला घटनाक्रम नहीं था?
तब पुनर्गठन आयोग के सामने हिमाचल और उत्तराखंड को मिलाकर एक वृहद हिमालयी राज्य बनाने की मांग भी उठी थी। संभव है कि पं गोविंद बल्लभ पंत उत्तराखंड को हिमाचल प्रदेश में शामिल करने के लिए तैयार नहीं थे? इसके बजाय वह उत्तराखंड को उत्तर प्रदेश में शामिल करने को बेहतर विकल्प मानते थे? लेकिन यह तो पंतजी भी जानते थे कि बेहतर विकल्प तो वही था, जो उन्होंने हिमाचल प्रदेश को दिया था। यदि हिमाचल प्रदेश अलग राज्य बन सकता था तो उत्तराखंड क्यों नहीं बन सकता था? हिमाचल प्रदेश अलग राज्य बनने के बाद अपनी जरूरतों के मुताबिक अपनी अर्थव्यवस्था खड़ी कर पाने में न केवल सफल रहा, बल्कि वहाँ के पहाडि़यों को आज वह जलालत नहीं झेलनी पड़ रही है, जो उत्तराखंड के पहाडि़यों को झेलनी पड़ रही है।
क्या एक दूरदृष्टि वाले नेता को भविष्य में आने वाले इन नतीजांे का भान नहीं था? या फिर उनकी प्राथमिकता कुछ और थी? राजनीतिक रूप से देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की सीढि़यों से होकर दिल्ली पहुँचने की जो राजनीतिक धमक तब राजनेताओं में होती थी, वह किसी से छिपी नहीं थी। यदि उत्तराखंड भी हिमाचल प्रदेश की तरह अलग राज्य बन गया होता तो संभव है पंतजी को उत्तराखंड के प्रतिनिधि के तौर पर देश की राजनीति में कदम रखना पड़ता जो उनके राजनीतिक कद को बहुत छोटा कर देता। हिमाचल प्रदेश की गरीबी और फटेहाल अर्थव्यवस्था पर तरस खाकर उसे राज्य का दर्जा दे देना और उत्तराखंड के ठीक वैसे ही हालातों को राष्ट्रीय एकता के नाम पर दरकिनार कर देना, कैसी राजनीति है?
उस दौर में बिल्कुल एक जैसे हालातों वाले दो भूभागों के साथ उत्तराखंड मूल के गृह मंत्री पं गोविंद बल्लभ पंत द्वारा किए गए अलग-अलग व्यवहारों की वजह से दोनों क्षेत्रों के निवासियों के हालात में दिन-रात का फर्क आ गया है। इसके लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? यह बात अलग है कि उत्तराखंड के कई लेखक और बुद्धिजीवी हिमाचल प्रदेश की इस बागवानी आधारित अर्थव्यवस्था का मजाक उड़ाते रहे हैं। वहाँें सेब की खेती को सरकारी अनुदान पर आधारित बताकर इस पूरी अर्थव्यवस्था को कमतर आँकते हैं। यदि हिमाचल की अर्थव्यवस्था बैसाखियों पर टिकी होती तो वहाँ का जनजीवन उत्तराखंड के मुकाबले बेहतर कैसे होता? वहाँ उत्तराखंड की तरह पलायन कोई समस्या ही नहीं है। इसकी वजह वहाँ की बागवानी आधारित अर्थव्यवस्था ही है, जो खोखली नहीं, एक मजबूत अर्थव्यवस्था का मूल आधार है।
यह हिमाचल के क्षेत्रीय नेताओं की दूरदृष्टि का ही परिणाम है कि वहाँ की अपनी एक वैकल्पिक अर्थव्यवस्था है, जो उसे उत्तराखंड से अलग खड़ा करती है। माना जाता था कि उत्तराखंड के अलग राज्य बनने पर पलायन की विकराल समस्या नियंत्रित हो जाएगी और अपनी वैकल्पिक अर्थव्यवस्था खड़ी कर पाएगा। लेकिन बारह सालों में यह संभव नहीं हो सका, बल्कि स्थिति पहले से और अधिक खराब हुई है। ऐसा उत्तराखंड में शासन करने वाले नेताओं की सोच की वजह से हुआ है। वह उसी लीक पर चलने की कोशिश कर रहे हैं, जिसकी नीव 1947 के बाद यहाँ पड़ी थी। यदि उत्तराखंड के हालातों के अनुसार वैकल्पिक अर्थव्यवस्था खड़ी करने के प्रयास नहीं हुए तो हालात और भी बदतर होते चले जाएंगे।
उत्तराखंड राज्य बनने के बाद तराई का क्षेत्र विकास की ओर बढ़ता दिखाई दे रहा है। यह किसी सरकारी नीति की वजह से नहीं, बल्कि वहाँ के बेहतर हालातों की वजह से हो रहा है। पहाड़ों में विकास के लिए विशेष प्रयास करने होंगे। यदि सड़कों को विकास का मानक माना जाए तो उत्तराखंड के पहाड़ इस मामले में काफी आगे बढ़े हैं, क्योंकि इस दौर में गाँव-गाँव तक सड़कें पहुँची हैं। लेकिन ये सड़कें विकास की वाहक बनने के बजाय पहाड़ से लोगों के पलायन के गलियारे बन गए हैं।
उत्तराखंड के विकास की एक तस्वीर देखकर सबकी आँखें चैंधियाँ जाएंगी। नैनीताल जिले में भवाली से शरहफाटक तक के क्षेत्र को कुदरत ने अद्वितीय सुंदरता दी है। नजदीकतम रेलवे स्टेशन काठगोदाम और नैनीताल, भीमताल, भवाली जैसे पर्यटन स्थलों से काफी करीब यह क्षेत्र दिल्ली, मुंबई समेत दूसरे क्षेत्रों के धनपतियों की ऐशगाह बन रहा है। विस्तृत हिमालय की ऊँची चोटियों के नयनाभिराम दर्शन कराने वाले इस क्षेत्र की अधिकांश जमीनें इन धनपतियों ने खरीद ली हैं और वहाँ मौजूद सेब के बागानों को काटकर अनियंत्रित निर्माण हो रहा है। हमारी सरकारों का उन्हें भरपूर सहयोग मिल रहा है।
पहाड़ में कुछ तीर्थ स्थलों तथा पर्यटन स्थलों को छोड़ दें तो वहाँ सड़क जरूर हो सकती है, लेकिन उसकी हालत खस्ता ही मिलेगी। लेकिन जब शहरफाटक से धारी की ओर बढ़ते हैं तो बीच में ही अचानक चमचमाती दो लेन वाली सड़क दिखाई देने लगती है, तो मन आश्चर्य से भर उठता है। उत्तराखंड के बीहड़ पहाड़ों में यह विकसित टापू कहाँ से आ गया ? यह उत्तराखंड में जमीन की खरीद-फरोख्त करने वालों के मनमाफिक विकास की झलक है। इससे पता चलता है कि उत्तराखंड में विकास किसका हो रहा है और कौन उसे नियंत्रित कर रहा है।
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