कौन आबाद करेगा बंजर नौलों को
कभी पर्वतीय क्षेत्र के गाँवों की शान समझे जाने वाले जल स्रोतों एवं नौलों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। तथाकथित विकास की अंधी दौड़ में गाँव-गाँव में बिछाए गए पाईप लाईनों के जाल भी इन नौलों के महत्व को कम करने में मददगार साबित हुए हैं। पहले जिस गाँव में बारहमासी नौले हुआ करते वह सबसे सुविधा संपन्न गाँव समझा जाता था। लेकिन आज अधिकांश नौले बंजर हो गए हैं। अंधाधुंध कटते जंगल व उचित रखरखाव के अभाव में पहाड़ों को मिली अनूठी कुदरती विरासत अपना वजूद खोते जा रही है।
आजादी के कुछ दशकों के बाद तक गावों व कस्बों में पीने के पानी का एकमात्र साधन नौले ही थे। बाद में विकास के नाम पर जल महकमों ने गाँवों में कई पेयजल योजनाओं का निर्माण किया तो लोगों ने नौलों एवं जलाशयों की ओर ध्यान देना कम कर दिया। परिणामस्वरूप बुजुर्गो की विरासत नौलों में जल स्तर में कमी होने के साथ ही नौले एवं जलाशय धीरे-धीरे बंजर होते चले गए। कमीशनखोरी के चलते गाँव-गाँव में नलों का जाल बिछाकर करोड़ो रुपये की संपत्ति अर्जित करने वाले अधिकारी एवं कर्मचारी चाहते हैं कि नौलों एवं जलाशयों की स्थिति में कोई सुधार न हो। क्योंकि पेयजल योजना के निर्माण एवं मरम्मत के नाम पर मिलने वाले धन का पूरा सदुपयोग किया जाए। कमीशनखोरों के लिए कामधेनू बना यह धंधा दिनोंदिन परवान चढता जा रहा है।
नौलों की उपेक्षा केवल दूरस्थ गाँवों में ही नहीं छोटे-छोटे उपनगरों में भी बहुत हुई है। यहाँ नौलों को पाटकर रिहायशी मकान व अन्य भवन बना देने का प्रचलन चल पड़ा है, तो कहीं कई नौलों को आधुनिक रूप देकर हैंडपंप लगा दिए गए हैं। आजादी से पूर्व राजा-रजवाड़ों के समय में बाकायदा नौले, कुएं एवं बावडी खुदवाने की परंपरा होती थी। शादी-विवाह में अन्य बातों के अलावा गाँव के नौलों एवं जलाशयों के बारे में भी बढ़-चढ़ कर पूछताछ होती थी। वर्तमान में स्थिति ठीक उलट हो गई है। कस्बाई नगरों में एक सदी पूर्व दर्जनों की तादात में नौले होते थे। मगर आज इनकी संख्या नगण्य रह गई है।
नौलों की अहमियत घटने के कारण का खुलासा करते हुए इतिहासकार देवेंद्र ओली कहते हैं कि अधिकतर नगरों में सीवर लाईन की कोई व्यवस्था नहीं होने से लगभग सभी मकानों में मल निकास की व्यवस्था सोकपिट के माध्यम से की गई है। जिसका भू रिसाव होने से भी नौलों के पानी की शुद्धता में कमी आने से नौले प्रचलन से बाहर हो गए। कुछ अपवादों को छोड़ भी दिया जाए तो पुरात्वत विभाग के अलावा उत्तराखंड जल संस्थान द्वारा कुछ एक स्थानों में संरक्षण के नाम पर प्रयास तो किए गए हैं मगर इन से नौलों एवं जलाशयों का स्वरूप तो अवश्य बदला है लेकिन लोगों को पेयजल सुविधा अभी भी उपलब्ध नहीं हो सकी है।
कई स्थानों पर वर्तमान में सीवर लाईन योजना चल रही है। लेकिन इससे पूर्व के सालों से चल रही मल निकासी की व्यवस्था ने कुदरती नौलों के पानी को प्रभावित किया है। उस पर हैंडपंप लगाने के प्रचलन के कारण भी नौलों की उपेक्षा हुई है। यदि समय रहते इस ओर कोई सकारात्मक प्रयास नहीं किए गए तो हमारी भावी पीढ़ी गंदे पानी के सेवन के लिए मजबूर होगी।
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