इस महाभारत के अर्जुन के पास कोई कृष्ण नहीं है
छतीसगढ़ में माओवादी हिंसात्मक कार्रवाई को लेकर देश का राजनीतिक माहौल फिर गर्म हो रहा है। यद्यपि इस बार की गर्म हवाओं में बारूद की गंध के साथ जो लहू के छींटे नज़र आ रहे हैं वे राजनीतिक नेताओं के हैं वर्ना इससे भी ज़्यादा खूनखराबा तो केन्द्रीय रिज़र्व पुलिस के 76 जवानों की हत्या में हुआ था। लेकिन तब इसे एक हथियारबन्द समूह का दूसरे हथियारबन्द समूह पर हमला मान कर सूचनाओं के अम्बार में दफन कर दिया गया था। इस बार माओवादियों ने नेताओं को अपने निशाने पर लिया है तो पूरी समस्या को राजनीतिक दृष्टि से देखने की चुनौती के रूप में देखा जाने लगा है। दुर्भाग्य से काँग्रेस और मुख्य विपक्षी दल के रूप में भाजपा एक दूसरे पर दोष मढ़ कर समस्या के मूल कारण को केन्द्र में लाने के बजाये इधर उधर की हाँक कर आतंकवादियों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई के तौर पर अर्द्ध सैनिक बलों और कमाण्डो के बूते इससे निपटने की सोच को अग्रसर कर रहे हैं। लेकिन इस मामले में भी काँग्रेस और भाजपा के शीर्ष नेत्तृत्व में दुविधा की स्थिति बनी हुयी है। काँग्रेस का प्रगतिशील धड़ा इस समस्या के कारण के तौर पर आदिवासियों के प्रति विकास के नाम पर किया जा रहा अन्याय मानता है। केन्द्रीय ग्रामीण विकास मन्त्री जयराम रमेश के अनुसार माओवादी विचारधारा के बजाये लूट पर उतर आये हैं इस लिये उन्हें आतंकवादी कहना ही उचित है लेकिन साथ में यह भी जोड़ देते हैं कि इस हिंसा के पीछे उनके प्रति राज्य सरकार द्वारा किया गया अन्याय है। उन्होंने वहाँ कम से कम दस साल तक खनन पर रोक लगाने का सुझाव दिया है। विकास के नाम पर आदिवासियों को कई कई बार विस्थापित होना पड़ रहा है। इसके अलावा उनके संवैधानिक अधिकार जो केन्द्र सरकार के विभिन्न कल्याणकारी कार्यक्रमों के तौर पर राज्य सरकारों को क्रियान्वित करने के लिये भेजे जाते हैं छतीसगढ़ की रमण सरकार ने ठण्डे बस्ते में डाल कर आदिवासियों के साथ अन्याय किया है जो इस तरह की प्रतिशोधात्मक कार्रवाई का कारण है। अब काँग्रेस खुलकर कहने लगी है कि छतीसगढ़ में शिक्षा स्वास्थ्य और साफ पानी जैसी मूलभूत मानवीय सुविधायें भी आदिवासी क्षेत्रों में नज़र नहीं आती। जय राम रमेश और राहुल गान्धी ने उड़ीसा में बाक्साइड के खनन की आवाज़ उठायी थी लेकिन उसके परिणाम में पर्यावरण मन्त्री जयराम रमेश का मन्त्रालय बदल दिया गया था। ऐसी घटनाओं से यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि पार्टी के भीतर नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के समर्थकों का बोलबाला है और इस पार्टी में जयराम रमेश, जयपाल रेड्डी और सांसद मणिशंकर अय्यर जैसे लोकपक्ष के हिमायती मन्त्रियों और सांसदों की जुबान बन्द है। अब क्योंकि लोकसभा के चुनाव सिर पर हैं इसलिये सोनिया मनमोहन और राहुल गान्धी सब छतीसगढ़ की छाती पर सवार हो गये हैं।
वैसे तो इस वक्त माओवादियों के प्रति अन्याय की बात करना देशद्रोह जैसा माना जाने लगा है खासकर काँग्रेस इस मामले में ज़्यादा उत्तेजित लग रही है। एक चैनल में चल रही बहस में प्रोफेसर हरगोपाल ने जब सलवा जुडुम के निर्माण में आदिवासी काँग्रेस नेता की भूमिका और आदिवासियों के विस्थापन पर सवाल उठाया तो काँग्रेस नेता संजय निरुपम ने नाराज़ होते हुये शिष्टाचार और संवाद की मर्यादा का उल्लंघन करते हुये कह दिया कि उन्हें माओवादियों के साथ सहानुभूति दिखाते हुये शर्म आनी चाहिये। अगर अभी भी यह काँग्रेस पार्टी की समझ है तो उनसे यह पूछा जाना चाहिये कि जब माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने सलवा जुडूम को असंवैधानिक करार देते हुये तत्काल भंग करने के आदेश दिये थे तो उस मुहिम के जन्मदाता महेन्द्र कर्मा को पार्टी की सदस्यता से निष्कासित क्यों नहीं किया?और यदि रमण सिंह की सरकार केन्द्रीय कानूनों और परियोजनाओं का समुचित क्रियान्वयन नहीं कर रही है तो केन्द्र में मनमोहन सिंह की सरकार इसकी अनदेखी क्यों करती रही? माओवादियों ने इस हत्याकाण्ड के लिये जो कारण गिनाये हैं उसमें सलवा जुडुम के नेता महेन्द्र कर्मा और काँग्रेस पार्टी के नेता पटेल की कार्रवाइयों का प्रमुख रुप से उल्लेख किया है। यदि काँग्रेस ने माननीय सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय में निर्दिष्ट सुझावों पर समय पर ध्यान दिया होता तो अब तक इस प्रमुख राष्ट्रीय समस्या का कुछ न कुछ समाधान निकल चुका होता। माननीय न्यायालय ने आदिवासियों के संगठनबद्ध होकर राज्य को चुनौती देने की सरकारी दलील के जवाब में लिखा है कि लोग संगठनबद्ध हो कर राज्य की शक्ति और निहत्थे आदमी के विरुद्ध अकारण हथियार नहीं उठाते हैं।जीवित रहने की लालसा से प्रेरित और जैसा कि थामस मूर का विचार है कि जब लोगों को लगे कि कानून नाम की कोई चीज़ रही नहीं हैं तो इस डर से मुक्ति पाने के लिये लोग व्यवस्था की ओर मुड़ते हैं लेकिन जब उस व्यवस्था की कीमत कमज़ोर निर्धन और वंचित लोगों को अपने अमानवीकरण और निर्बाध अन्याय के रूप में चुकानी पड़े तो लोग विद्रोह पर उतर आते हैं। यह देश के सर्वोच्च न्यायालय का सुझाव है न कि किसी राजनीतिक पार्टी का जिसे किसी खास पार्टी के पक्ष में मान कर टाला जाता।
देश की प्रमुख राजनीतिक पार्टियों को इस समस्या को कानून व्यवस्था के नज़रिये से हट कर ठेठ राजनीतिक दृष्टि से आँक कर स्थाई समाधान निकालने की दिशा में पहलकदमी करनी चाहिये। पहलकदमी राज्य की ओर से होनी चाहिये क्योंकि वह इस द्वन्द्व में ताकतवर धड़ा है जो चाहे तो इसे कुछ दिनों के भीतर आतंकवादियों को कुचल कर रख सकता है। लेकिन इससे किसी प्रकार का स्थाई समाधान निकलने वाला नहीं है। इस समय सबसे विकट समस्या उन निरपराध लोगों की है जो पुलिस और माओवादियों की चक्की के दो पाटों के बीच बिना अपराध पिसे जा रहे हैं। दोनों तरफ से उन पर शक की निगाह से देखा जा रहा है। माओवादी उन्हें पुलिस के मुखबिर समझ कर मार रहे हैं और पुलिस उन्हें माओवादियों के हिमायती समझ कर गोली चला रहे हैं। इस निरीह निरपराध जनता की सुनवाई कहीं नहीं है उनके पूजास्थल खोदे जा चुके हैं उनके देवता कूच कर गये हैं उनके नेता सलवा जुडूम जैसे संगठन बनाकर उन्हें अपने ही बन्धुबान्धवों को मार रहे हैं। इस महाभारत के अर्जुन के पास कोई कृष्ण नहीं है जो इनके पापकर्मों का भार अपने ऊपर ले सके। अब तो केवल अश्वत्थामा ही बचे हैं जो प्रतिशोध की आग में जलते हुये पूरी सृष्टि को ही जला देने की जि़द पर अड़ें हैं। ऐसे में इस महाभारत का कोई अन्त नज़र नहीं आ रहा।
महाभारत में कृष्ण ने अर्जुन को विजयी होने की स्थिति में संसार को भोगने का स्वप्न दिखाया था पर अन्त में अर्जुन भी राज्य को भेगे बिना हिमालय के अनन्त हिमखण्ड का हिस्सा मात्र बन कर रह गये। पर इस महाभारत का क्या होगा जिसके पास कोई कृष्ण नहीं जिसके पास न स्वर्ग है न पृथ्वी का राज्य इसके विजेता के लिये शायद हिमालय में भी जगह न मिले। बहुत कुछ बदल गया है अब तक। जो नहीं बदला वह है वह का धृतराष्ट्र का अंधा हठ और उसी का प्रतिद्वन्द्वी मानवीय अस्मिता की गरिमा का सत्य। क्या जहाँ सत्य है वहीं विजय है? पता नहीं युग बदल गया है। पर शाश्वत सत्य तो नहीं बदलते। हाँ वे छिपाये जा सकते हैं पर कुछ ही समय के लिये। इसलिये यह निर्णय इतिहास पर छोड़ देना होगा।
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