जब टाइम और स्पेस कोलॅप्स करता है, तब चेतना का निर्माण नये तरीके से होता है
साथियो, मैं इस बात पर जोर देना चाहूँगा कि आज हम एक अन्य औद्योगिक क्रान्ति से गुज़र रहे हैं। हम बड़े सौभाग्यशाली हैं, हमारी आँखों के सामने दुनिया बदल रही है। किसी जमाने में, औद्योगिक क्रान्ति के जरिए खेती की जगह मशीन का युग आया था। उसमें पूरा शतक या दो शतक लग गये थे। लेकिन आज कुछ दशकों के अन्दर, तीस-चालीस वर्षों में ये परिवर्तन हुये हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, खासकर पिछले तीस-चालीस वर्षों के अन्दर दुनिया में वो परिवर्तन हुये है और चल रहे हैं, जो इतिहास में आज तक नहीं हुये हैं। ये परिवर्तन विज्ञान से सम्बंधित हैं, ये परिवर्तन तकनीक से सम्बंधित हैं। आज का विज्ञान बहुत जल्दी तकनीक में बदल जाता है। पहले विज्ञान को तकनीक में बदलने के लिये सौ साल लगते थे अगर, या दो सौ साल लगते थे, वहीं आज दस साल, पाँच साल, दो साल, एक साल के अन्दर-अन्दर विज्ञान तकनीक में बदल जाता है। आज से तीन-चार दशकों पहले हम इलेक्ट्रॉनिक युग की एक कल्पना-सी करते थे, दूर से बात करते थे, वो चीज़ हमें यूरोप की चीज़ लगती थी लेकिन आज वह हमारे देश के विकास का अभिन्न अंग बन चुका है। और न सिर्फ हमारे देश का, बल्कि पूरी दुनिया की जो अर्थव्यवस्था है, पूरे दुनिया का जो समाज है, उसका निर्णायक तत्व वैज्ञानिक-तकनीकी क्रान्ति है। निर्णायक तत्व इसलिये है, कई कारणों से है कि वैज्ञानिक-तकनीकी क्रान्ति हमारी चेतना को तैयार करती है, हमारी चेतना का निर्माण कर रही है।
किसी जमाने में आजादी के दीवाने भगत सिंह या कम्युनिस्ट पार्टी के लोग और काँग्रेस पार्टीके लोग कंधे पर झोला लटकाये, कुछ पतली-पतली किताबें लेकर गाँव में जाया करते थे और ज्ञान फैलाया करते थे। बड़े-बड़े नेताओं ने आज़ादी के आन्दोलन में यह काम किया है। वे भी बुद्धिजीवी थे। उन्होंने ज्ञान दिया कि आज़ादी के लिये कैसे लड़ा जाये और आज़ादी के बाद नये भारत का निर्माण कैसे करें – वे सपने थे। कई लोग कहते हैं कि वे सपने टूट गये। खैर, यह एक अलग विषय है। आज वह जमाना गया। हालाँकि आज भी वे इलाके ज़रूर हैं, जहाँ झोला लेकर जाना पड़ता है, जहाँ पैदल चलना होता है। लेकिन आज सूचना, जानकारी, ज्ञान लोगों तक वर्षों में नहीं, घण्टों, मिनटों और सेकण्डों में पहुँच जाता है। इसका हमारे समाज के ढाँचे पर बहुत बड़ा असर पड़ रहा है। हमारा सामाजिक ढाँचा बदल रहा है और बहुत तेज़ी से बदल रहा है। पिछले दस वर्षों में भारत बदल चुका है। अगर हम प्रगतिशील हैं (प्रगतिशील वह है, जो सबसे पहले परिवर्तनों को पहचानता है) तो शर्त यह है कि इस परिवर्तन को हमें समझना पड़ेगा। यह परिवर्तन चीन में हो रहा है, नेपाल में हो रहा है, वेनेजुएला में, ब्राजील, क्यूबा में हो रहा है और यूरोप और अमेरिका में तो हो ही रहा है। इसीलिये आज के आन्दोलनों का चरित्र दूसरा है। आज मध्यम वर्ग बड़ी तेज़ी से बेहिसाब फैल गया है। इसलिये पुराने सूत्रों को ज्यों का त्यों लागू करना सही नहीं होगा। उसमें परिवर्तन, सुधार, जोड़-घटाव करना पड़ेगा। मसलन, आज बड़े कारखानों का युग जा चुका है। चिमनियों से धुआँ छोड़ने वाले कारखाने इतिहास के पटल से जा रहे हैं। उनके स्थान पर इलेक्ट्रॉनिक कारखाने आ रहे हैं। मज़दूर वर्ग की संरचना बदल रही है। आप लोग औद्योगिक नगरी में रहते हैं, आपको ज़्यादा अच्छी तरह पता है कि कम्प्यूटरों का किस तरह इस्तेमाल हो रहा है, इलेक्ट्रॉनिक्स का किस तरह इस्तेमाल हो रहा है प्रोडक्शन में। और इलेक्ट्रॉनिक्स का इस्तेमाल करने का मतलब है सूचना का इस्तेमाल करना। सूचना का इस्तेमाल करने का अर्थ ही है मध्य वर्ग का बदलना, मध्यवर्गीय चेतना का बढ़ना, मध्यम तबकों का बढ़ना। यह बात मज़दूर वर्ग पर भी लागू है। पब्लिक सेक्टर का मज़दूर या मज़दूर वर्ग और कारखाने से बाहर दफ्तर में काम करने वाले, विश्वविद्यालय, कॉलेजों या अन्य जगहों में काम करने वाले कर्मचारी, पदाधिकारी और जो भी लोग हैं, जिन्हें हम आम तौर पर मिडिल क्लास की कैटेगरी में रखते हैं; इन दोनों के बीच का अन्तर कम हो रहा है। न सिर्फ मध्यम वर्ग की संख्या बढ़ती जा रही है, स्वयम् मज़दूर वर्ग का संरचनात्मक ढाँचा, उसकी संरचना भी बदल रही है। वह अब सीधे तौर पर प्रोडक्शन के साथ काम नहीं कर रहा है। और इसीलिये हमारे सामने यह महत्वपूर्ण टास्क है कि इस बदलते हुये का, परिवर्तन का विश्लेषण करना। अब समस्या यह है, संकट यह है कि ये जो नये तबके हैं, युवा वर्ग है, ये उस इतिहास को नहीं जानते हैं। इन्होंने उन उत्पादन के साधनों से काम नहीं किया है। गाँव खाली हो रहे हैं। गाँव की जो खेती है, पंजाब-हरियाणा जैसी जगहों में, उसमें इलेक्ट्रॉनिक उपकरण लग रहे हैं। हमारा जो काम करने का तरीका है कम्प्यूटर, इंटरनेट, ईमेल के साथ, वह दूसरा रूप धारण कर रहा है।
अभी मैं अपनी अगली किताब के लिये फैक्ट्रियों का अध्ययन कर रहा हूँ। देखकर आश्चर्य होता है। पूरे हॉल में आठ सौ स्पीकर्स लगे हुये हैं। गुजरात की एक फैक्ट्री है, उसके पहले गुंटूर की एक फैक्ट्री, उसके बाद पंजाब की एक फैक्ट्री में जाने का मौका मिला। पूरे हॉल के अन्दर मुश्किल से दस-बारह वर्कर होंगे। लंच अवर चल रहा था। खाना-वाना खाकर एक-एक बिस्तर लेकर वे लोग लेटे हुये थे। मालिक और मैनेजर उनके सामने से गुज़र रहे थे। थोड़ी देर में उनका आराम करने का समय खत्म होने वाला था और वे लोग काम पर आने वाले थे। मार्क्स ने जब पूँजी लिखी तो लिखने के पहले आरम्भ में उसकी एक आउटलाइन या रूपरेखा लिखी, जिसे साहित्य में 'ग्रुंड्रिस' के रूप में जाना जाता है, यह 'पूँजी की रूपरेखा कहलाती है। उसमें वे लिखते हैं कि अगर प्रोडक्शन ऑटोमेटेड होता है, तोमज़दूर, मज़दूर से ऑब्ज़र्वर के रूप में बदल जाता है। वह मशीन चलाता नहीं, मशीन चलती है और मज़दूर का काम है – उसकी देखरेख करना, उसका ध्यान रखना। आज जो इलेक्ट्रॉनीकरण हो रहा है, उसके जरिये इसमें भी भारी परिवर्तन हो रहे हैं।
साथियो, आज इस देश में तीस करोड़ या चालीस करोड़ मध्यम वर्ग का हिसाब लगाया जा रहा है। हमारे देश की एक चौथाई से एक तिहाई आबादी मध्य वर्ग की हो गयी है, बनती जा रही है। क्या हम इस सच्चाई से इंकार कर सकते हैं? इनके बीच भी तरह-तरह की विचारधारायें काम करती हैं। कम से कम सौ-डेढ़ सौ चैनल्स काम कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ जैसे छोटे से राज्य में, जो पिछड़ा हुआ माना जाता था और अभी भी है, यहाँ से भारी संख्या में अखबार निकलते हैं, पत्र-पत्रिकायें निकलती हैं। हमारे देश में बड़े पैमाने पर सूचना की भूमिका बढ़ती जा रही है। छोटी से छोटी खबर बड़ी बनकर या बनाकर लोगों के सामने आती है। जब हम बुद्धिजीवियों या इन्टेलिजेन्सिया की बात करते हैं तो विचारों या विचारधाराओं का टकराव निर्णायक बनता जा रहा है। इस बात पर मैं ज़ोर देना चाहता हूँ। प्रगतिशील शक्तियाँ अगर इसकी उपेक्षा करती हैं, इस परिवर्तन की – जो परिवर्तन अन्तर्विरोधी है, जिसमें बहुत सारी गलत बातें हैं। जैसे बहुत सारी गलत रूझानें हैं उसी तरह बहुत सी सही रूझानें भी हैं। इन्हें सही रूझानों की ओर झुकाया जा सकता है। अगर हम नये उत्पादन के साधनों को बड़े इजारेदारों के हाथ में छोड़ देते हैं तो समाज की जकड़न बढ़ जाती है। अगर नये उत्पादन के साधनों को मेहनतकश मध्य वर्ग और बुद्धिजीवी इस्तेमाल करता है सही तरीके से, तो बड़ी पूँजी की जकड़न कमज़ोर पड़ती है। वैज्ञानिक-तकनीकी क्रान्ति ने यह सम्भव बना दिया है कि जो उत्पादन, जो काम, पहले इस पूरे भवन में हुआ करता था, वह पाँच बाय पाँच के एक छोटे कमरे में हो सकता है। और इसीलिये छोटे पैमाने के उत्पादन की भूमिका बढ़ गयी है। घर में बैठकर पढ़ने और काम करने की भूमिका बढ़ गयी है। छोटे कार्यालयों की भूमिका बढ़ गयी है। यातायात बहुत तेज़ी से बढ़ा है। इस चर्चा को आगे बढ़ाया जाये तो कहा जा सकता है कि देश और दुनिया के पैमाने पर स्थान और काल मिलकर एक नये स्थान और काल का निर्माण कर रहे हैं। That is collapse of Time and Space- जब टाइम और स्पेस कोलॅप्स करता है, तब चेतना का निर्माण नये तरीके से होता है। नया मध्यम वर्ग इसकी देन है – अन्तर्विरोधों से भरा हुआ। इसीलिये मैं समझता हूँ कि आज नये सिरे से विश्लेषण की आवश्यकता है। इतिहास में पहली बार दुनिया के ज़्यादातर लोग शहरों में रहने लगे हैं। बहुत जल्दी भारत और चीन के लोग भी, पचास प्रतिशत या आधे से अधिक लोग शहरों में रहने लगेंगे। अब शहरों में ज़्यादातर औद्योगिक कामकाजी वर्ग ही नहीं रहता है, बल्कि मध्यम वर्ग रहता है। उनके बीच संगठन कैसे किया जाये? उनके बीच प्रगतिशील विचारों का प्रसार कैसे किया जाये? ये हमारे सामने चुनौती हैं। फ्लैटों में, कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटियों में, शहरीकृत इलाकों में, यहाँ तक कि उन हिस्सों में भी, जहाँ शहरीकरण हो गया है, हम अपने नये विचारों को कैसे पहुँचायें? इसमें इलेक्ट्रॉनिक तरीका भी शामिल है – यह प्रगतिशील ताकतों के सामने बहुत बड़ी चुनौती है। इन विचारों के टकराव में अगर थोड़ी भी देर होती है तो जिन्हें हम गैर-वैज्ञानिक विचार कहते हैं, वे बहुत जल्दी पनपते हैं। इसकी शिकायत करने से काम नहीं चलेगा। यह शिकायत का सवाल नहीं है। सवाल इस बात का है कि हम इन वस्तुगत परिवर्तनों को देख रहे हैं या नहीं देख रहे हैं? इसलिये आज एक नये किस्म के बुद्धिजीवी की ज़रूरत है। जो बढ़ते हुये मध्य वर्ग से, जो देश की नीतियाँ निर्मित करता है या कम से कम प्रस्थापित करता है या प्रस्थापनायें तैयार करता है, उसमें इनपुट्स डालता है, चेतना को फैलाता है, उसकी बहुत बड़ी सामाजिक भूमिका है, उसके अन्तर्विरोध हैं, उसकी कमियाँ हैं – उनका इस्तेमाल प्रगतिशील आन्दोलन कैसे करता है! इनके बीच हम अपना साहित्य कैसे ले जायें? कितना है हमारा साहित्य इनके बीच? अगर हम छोड़ दें तो पूँजीवाद इनका इस्तेमाल करता है। वह तो करेगा ही। क्यों नहीं करेग कर ही रहा है। प्रगतिशील ताकतों के पास कितने टीवी चैनल्स हैं? कितने अखबार प्रगतिशील तबके निकालते हैं? सन् 1907 में जर्मन डेमोक्रेटिक पार्टी, जो मज़दूरों की पार्टी थी जर्मनी की, एक सौ सात दैनिक अखबार निकालती थी। जर्मनी एक छोटा सा देश है, हमारे एक राज्य के बराबर। आज हमारे यहाँ कितने प्रगतिशील दैनिक अखबार निकलते हैं? कितने चैनल्स हैं, कितने ब्लॉग्स हैं? कितने ई-मेल और ई-स्पेस पर हमारा दखल है? हम प्रगतिशील साहित्य को कितने लोगों तक पहुँचा रहे हैं? या लोगों तक केवल त्रिशूल ही पहुँच रहा है? क्योंकि हमने जगह खाली छोड़ रखी है त्रिशूल पहुँचाने के लिये, कि पहुँचाओ भाई त्रिशूल! जतिवाद करने के लिये खुला मैदान छोड़ा हुआ है, इसकी जिम्मेदारी हमारे ऊपर भी है। रजनी पामदत्त ने एक जगह लिखा है कि Fascism is the punishment for not carries out Revolution उसी तर्ज़ पर आज हम कह सकते हैं कि प्रतिक्रियावादी विचारों का प्रसार, हमारे द्वारा काम नहीं करने या उचित तरीके से नहीं समझने की सजा है। जब इस तरह के संगठन वैज्ञानिक समझ रखने का दावा करते हैं तो उन्हें यह समझना चाहिये कि विज्ञान वो है, जो आने वाली घटनाओं की दिशा को भी पहले से समझ ले। इसीलिये मैं इस बात पर भी ज़ोर देना चाहूँगा कि तेज़ी से बदलती दुनिया में प्रगतिशील बुद्धिजीवियों का सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य है – भारत के मध्य वर्ग के बीच ज़्यादा से ज़्यादा काम करना। इसके अलावा भी उन्हें मज़दूरों, किसानों के बीच काम करना है ताकि भारत के जनता की चेतना, बुद्धिजीवियों की चेतना विज्ञान और सामाजिक शास्त्रों के सिद्धान्त और नये सिद्धान्तों की रचना कर सके। पुराने सिद्धान्तों को, पुरानी बातों को बार-बार तोता रटन्त की तरह दोहराते जाना काफी नहीं है। यह नुकसानदेह है। अब नये सिद्धान्तों की रचना कितनी कर रहे हैं – नये सिद्धान्तों की? क्या हममें वो सैद्धान्तिक हिम्मत है? क्या हममें वह वैचारिक या विचारधारात्मक हिम्मत है? क्या हममें हिम्मत है कि हम नये वैज्ञानिक विचारों की रचना करें? जो आज के वैज्ञानिक, तकनीकी और इलेक्ट्रॉनिक क्रान्ति के अनुरूप हो? हम जितना इस नई चेतना का निर्माण करेंगे, उतना ही मध्य वर्ग के बीच और सबके बीच हम प्रगतिशील विचारों का प्रसार कर सकेंगे।
समाप्त
साभार इप्टानामा
मध्य वर्ग का बदलता चरित्र -1 यहाँ पढ़ें
मध्य वर्ग का बदलता चरित्र -2 यहाँ पढ़ें
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