-सुनील कुमार
"… माओवादियों पर क्रूरतापूर्वक हत्या करने की बात कही जा रही है जब कि 'परिवर्तन यात्रा' में शामिल डॉ. शिव नारायण के अनुसार, ''मेरे पैर से खून बहता देख उनके कमाण्डर ने कहा कि डॉक्टर साहब को इंजेक्शन लगा दो।'' इस तरह माओवादियों ने कई घायलों का इलाज किया और पानी पिलाया और महेन्द्र कर्मा, नन्द कुमार पटेल और उनके बेटे के अलावा सभी आत्मसमर्पण करने वालों लोगों को छोड़ दिया। …"
25 मई, 2013 की शाम, लगभग 5 बजे सुकमा जिले के दरभा घाटी में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) द्वारा काँग्रेस के 'परिवर्तन यात्रा' पर हमला किया गया। इस हमले में बस्तर का टाईगर कहे जाने वाले महेन्द्र कर्मा, काँग्रेस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नन्द कुमार पटेल, पूर्व विधायक उदय मुदलियार सहित 29 लोगों की मृत्यु हो गयी जिसमें काँग्रेसी नेता, कार्यकर्ता और पुलिस बल के जवान थे।पूर्व केन्द्रीय मन्त्री विद्याचरण शुक्ल सहित करीब 32 लोग घायल हो गये। इस हमले के बाद सत्ता पक्ष और विपक्ष सभी ने गले फाड़-फाड़ कर चिल्लाना शुरू कर दिया कि यह हमला 'भारतीय लोकतन्त्र'पर हमला है। उन्होंने कहा कि इस हमले से निपटने (दमन चक्र चलाने) के लिये हम सभी को दलगत राजनीति से ऊपर उठना चाहिये और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) को कुचल देना ही 'लोकतन्त्र' पर हमले से बचने का एक मात्र रास्ता है।
25 मई, 2013 की घटना से पहले 17 मई, 2013 की रात बीजापुर के एड़समेटा गाँव में जब गाँव के आदिवासी अपना बीज पर्व मनाने के लिये इकट्ठा हुये थे, उसी समय अर्द्धसैनिक बल के जवानों ने उनके ऊपर फायरिंग शुरू कर दी, जिसमें तीन मासूम बच्चों सहित आठ लोगों की मौत हो गयी और पाँच घायल हो गये। घायल चार लोग जब अस्पताल गये तो उनको देखने के लिये कोई कर्मचारी तक नहीं आया और उनको भूखे रहकर वहीं रात गुजारनी पड़ी। घायलों में से एक तो अस्पताल गया ही नहीं। एक साल पहले 28 जून, 2012 की रात बीजापुर के सरकिनगुड़ा में बीज पर्व पर बात करने के लिये इकट्ठा हुये थे, उस रात भी 'बहादुर' सीआरपीएफ और कोबरा बटालियन के जवानों ने 17 ग्रामीणों को मौत की नीन्द सुला दिया, जिसका जश्न रायपुर से लेकर दिल्ली तक मनाया गया और कहा गया कि हमारे बहादुर जवानों को बहुत बड़ी सफलता मिल गयी है। ऐसी छोटी-बड़ी घटनायें लगातार छत्तीसगढ़ में होती रहती हैं और होती रहेंगी।
सीआरपीएफ प्रमुख प्रणय सहाय के अनुसार वामपंथी उग्रवाद प्रभावित नौ क्षेत्रों में 84000 सीआरपीएफ के जवान तैनात किये गये हैं; इसके अलावा कोबरा, बीएसएफ, भारत तिब्बत सीमा पुलिस, ग्रेहाउंड, इत्यादि के अलावा राज्य पुलिस के जवानों को इन क्षेत्रों में लगाया गया है। इतनी भारी संख्या में जब जवान होंगे तो क्या करेंगे? उनको कुछ तो अपने 'कर्तव्य का पालन करना पड़ेगा ही'। जब इन जवानों के कर्तव्य का खुलासा डॉ विनायक सेन व हिमाँशु कुमार जैसे लोग करते हैं तो उनको फर्जी तरीके से फँसाया जाता है, उनके आश्रम को तोड़ दिया जाता है, यहाँ तक कि पुलिस अधिकारियों द्वारा पत्रकारों को मारने की खुली छूट वायरलेस पर दी जाती है।
बस्तर का टाइगर
महेन्द्र कर्मा बस्तर टाइगर के नाम से जाने जाते थे। मेरी राय में महेन्द्र कर्मा टाइगर ही नहीं खूंखार टाइगर थे, जिनकी भूख कभी शान्त होने वाली नहीं थी। महेन्द्र कर्मा ने अपनी राजनीति की शुरूआत सीपीआई के साथ की थी और 1978 में सीपीआई के टिकट पर पहली बार विधायक चुने गये थे। सत्ता के लोभ में फँसे कर्मा को जब दोबारा टिकट नहीं मिला तो उन्होंने काँग्रेस पार्टी का दामन थाम लिया। 1996 में जब सीपीआई ने संविधान की पाँचवी और छठवीं अनुसूची को लागू कराने के लिये आन्दोलन शुरू किया तो महेन्द्र कर्मा ने इसका विरोध किया। कर्मा भोले-भाले आदिवासियों को फँसाकर उनकी जमीनें ले लिया करते थे और उसमें लगे बेशकीमती पेड़ों को कटवा कर बेच दिया करते थे। यह काण्ड 'मालिक मकबूजा' के नाम से जाना जाता है। महेन्द्र कर्मा ने आदिवासियों की जमीन और खनिज सम्पदा हड़पने के लिये सलावा जुडूम अभियान चलाया, जिसमें लगभग 650 गाँवों को जला दिया गया, हजारों लोगों की नृशंसता पूर्वक हत्या की गयी, सैकड़ों महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, यहाँ तक कि मासूम बच्चों को भी मारा गया, उनकी ऊँगलियाँ काट दी गयी। 50000 आदिवासियों को उनके गाँव से उठाकर सलावा जुडूम के कैम्प में रखा गया। कैम्पों में इन आदिवासियों को जानवरों जैसा रखा जाता था और महिलाओं के साथ क्या सलूक होता रहा है यह छुपी हुयी बात नहीं है। छत्तीसगढ़ के भूतपूर्व मुख्यमन्त्रीअजित योगी अपने भाषणों में बार-बार एक घटना का जिक्र करते हैं कि उनके एक कार्यकर्ता ने शाम के समय फोन करके ''गाली देते हुये कहा कि तुम आदिवासियों के नेता बनते हो आज हमारी बेटी को सलवा जुडूम वालों ने उठा लिया है और तुम कुछ नहीं कर सकते।'' सलावा जुडूम के लिये केन्द्र तथा राज्य सरकार ने अर्द्धसैनिक बल उपलब्ध कराया तो इस कैम्प का खर्च टाटा और एस्सार ने उठाया। इससे यह बात साफ हो जाती है कि सलावा जुडूम का मकसद क्या था। इस तरह इस टाइगर और उनके पूर्वजों की अनेकों कहानियाँ मिल जायेंगी।
25 मई, 2013 की घटना के बाद एसौचेम (पूँजीपतियों की संस्था) के अध्यक्ष राजकुमार एन. धूत ने कहा कि ''नक्सल प्रभावित राज्यों में काम करने वाले लोगों के बीच असुरक्षा का जिस तरह का माहौल है उसे लेकर संगठन बेहद चिन्तित है ……..। इसके लिये आर्थिक या किसी और स्तर पर जिस भी तरह की मदद की दरकार सरकार को होगी उसमें भारतीय औद्योगिक जगत सदैव साथ देगा।'' एसौचेम की बात से बिल्कुल साफ है कि पूँजीपतियों की लूट को बनाये रखने के लिये सरकार को चाहे जितने भी निर्दोष लोगों की खून बहाना पड़े, जितनी भी माँ-बहनों के साथ बलात्कार करना पड़े, करेंगे।
हमला लोकतन्त्र पर
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के हमले को भारतीय लोकतन्त्र पर हमले की बात शासक वर्ग के मीडिया में जोर-शोर से कही जा रही है। शासक वर्ग द्वारा चलाये गये अभियान सलावा जुडूम, ग्रीन हंट द्वारा अपनी जीविका के साधन, जल-जंगल-जमीन, बचाने के आन्दोलन में मारे गये लोगों के लिये क्या सरकार ने कभी खेद प्रकट किया है और हत्यारों, बलात्कारियों को सजा दी है? क्या एड़समेट्टा और सारकिनगुड़ा के हत्यारे दोषी अधिकारियों, मन्त्रियों को सजा दी है या कभी दे पायेगी? इन निहत्थे आदिवासियों की हत्या और बलात्कार पर भारत का लोकतन्त्र शर्मसार क्यों नहीं होता? उड़ीसा से लेकर झारखण्ड तक पूँजीपतियों की लूट को बनाये रखने के लिये जनता के आन्दोलनों को कुचला जा रहा है, फर्जी केस लगाकर जेलों में डाल दिया जा रहा है, महिलाओं के साथ बलात्कार किया जा रहा है।
क्या आम जनता के लिये भी कोई लोकतन्त्र है? भारत में किसान विरोधी नीतियों के कारण लगभग पाँच लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। क्या इन हत्यारी नीतियों पर कभी विचार किया गया है? इस देश में माँ-बहनों को अपने पेट की भूख मिटाने के लिये अपने ही जिस्म का सौदा करना पड़ता है, अपने बच्चों को चन्द रुपये की खातिर बेच दिया जाता है, जिससे कि वे कुछ दिन और जिन्दा रह सकें। जब मजदूर इसी लोकतन्त्र द्वारा दिये गये अपने कानूनी अधिकार की माँग करते हैं तो हजारों मजदूरों को एक साथ नौकरी से निकाल कर उनके परिवारों को तिल-तिल मरने के लिये छोड़ दिया जाता है। उससे भी जब उनके मनोबल को नहीं तोड़ पाते है तो इन मजदूरों को सालों-साल जेल में रखकर उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है- जैसा कि मारूति सुजुकी, ग्रेजियानो, निप्पोन इत्यादि मजदूरों के साथ किया जा रहा है। 19 मई, 2013 को ही जब कैथल में मारूति सुजुकी के मजदूर, उनके परिवार और समर्थक मारूति सुजुकी मजदूरों पर हो रहे अन्याय की माँग को लेकर हरियाणा के उद्योग मन्त्री से मिलना चाहते थे तो महिलाओं, बच्चों, बूढ़ों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया, पानी की बौछार की गयी तथा चुन-चुन कर नेतृत्वकारी मजदूरों और उनके समर्थकों को पकड़ा गया और फर्जी धाराओं के तहत उन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। ये घटनायें लोकतन्त्र का संचालन करने वाली संसद् से मात्र कुछ दूरी पर एनसीआर में ही हो रही है, दूर-दराज की बात तो छोड़ ही दीजिये कि वहाँ जनता पर किस तरह के जुल्मों-सितम ढाये जा रहे हैं।
इससे साफ है कि इस लोकतन्त्र में से लोक (जनता) गायब है और तन्त्र ही बच गया है और जब इस तन्त्र पर हमला होता है तो शासक वर्ग तिल मिला उठता है जो आवाज तन्त्र के खिलाफ हो उस आवाज को कुचलने के लिये दिन-रात एक कर देता है। रातों रात राहुल गाँधी रायपुर पहुँच गये, दूसरे दिन प्रधानमन्त्री से लेकर सोनिया गाँधी तक छत्तीसगढ़ पहुँच जाते हैं। लेकिन ये लोग चन्द दूरी पर मजदूरों पर हो रहे हमले पर जाना या उनके अधिकारों के विषय में बोलना उचित नहीं समझते। जिस देश में 'लोकतन्त्र' के ढाँचे में ही हिंसा है; जहाँ जाति, धर्म, लिंग के नाम पर लोगों को मार दिया जाता है और 'लोकतन्त्र'का मुखिया कहता है कि ''बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है'' तो दूसरी घटना में राजधर्म निभानेकी बात कही जाती है तो कभी बेटियों के पिता होने की दुहाई दे कर अपनी जिम्मेदारी से इतिश्री कर ली जाती है। राष्ट्रपति से प्रधानमन्त्री तक सभी एक सुर में कह रहे हैं कि लोकतन्त्र में किसी भी प्रकार के हिंसा का स्थान नहीं है। क्या अब तक सलावा जुडूम या जीविका के साधन के लिये आन्दोलन कर रहे लोगों पर हो रहे हमले लोकतन्त्र का हमला नहीं है? दिल्ली में भी माओवादी हमले कर सकते हैं इस तरह की अफवाह फैला कर, क्या दिल्ली व दिल्ली जैसे शहरों भी जनवाद पसन्द लोगों पर दमन चक्र चलाने की साजिश की जा रही है। क्या यहाँ पर लोकतन्त्र बचा है? 'लोकतन्त्र' पर हमला हो रहा है या 'लोकतन्त्र' विराधियों पर हमला हो रहा है?
रोल मीडिया का
प्रधानमन्त्री डॉ मनमोहन सिंह द्वारा मुख्यमन्त्रियों की बैठक में कहा गया था कि मीडिया को भी को-ऑप्ट करना चाहिये। इलेक्ट्रानिक और प्रिन्ट मीडिया शासक वर्ग की बातों को ही जोर-शोर से प्रचारित कर रहा है या उनके सुर में सुर मिलाने वाले लोगों की बातों को ही तवज्जो दे रहा है। ज्यादातर ऐसे लोगों को चर्चा में बुलाया जा रहा है जो कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) यानी शोषित-पीड़ित जनता के आन्दोलन को बर्बर तरीके से कुचलने के पक्ष में हैं। अगर इस चर्चा में कोई तथ्यों को रखते हुये भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) से बिना शर्त बातचीत का सुझाव देता है तो उसे माओवादी का प्रवक्ता का संज्ञा दे दी जाती है। जल-जंगल-जमीन की लूट में से एक हिस्सा इन मीडिया को भी मिलता है विज्ञापन के रूप में, जो कि सरकार व कम्पनियों द्वारा दिया जाता है। बहुत सारे मीडिया घराने अब तो सीधे सीधे जल-जंगल-जमीन के लूट में लगे हुये हैं- जैसे किदैनिक भास्कर समूह के चेयरमैन रमेश चन्द अग्रवाल को रायगढ़ में कोल ब्लॉक का आवंटन किया गया है। इसी तरह नवभारत ग्रुप ने बस्तर में आइरन स्पंज प्रोजेक्ट के लिये 8 सितम्बर, 2003 को 1460 करोड़ रु. का छत्तीसगढ़ सरकार के साथ इकरारनामा (MOU) किया है।
नक्सलवाद ने जहाँ सामन्तों की चूलें हिला दीं वहीं नक्सलवाद के विकसित रूप माओवाद ने आज सामन्तो व पूँजीपतियों के मनसूबों पर पानी फेर दिया है। टाटा को बस्तर में 5.5 मिलियन टन का स्टील प्लान्ट लागने के लिये 2044 हेक्टेअर भूमि चाहिये जिसके लिये 6 जून 2005 में छत्तीसगढ़ सरकार के साथ इकरारनामा (MOU) हुआ है। लेकिन तीन बार इकरारनामे का नवीनीकरण होने के बाद भी आज तक अपने मकसद में टाटा कामयाब नहीं हो पाया। इसी तरह एस्सार कम्पनी के साथ भी जुलाई 2005 में इकरारनामा हुआ है।एस्सार कम्पनी दँतेवाड़ा जिले के भांसी में 3.2 मिलियन टन का प्लान्ट लगाना चाहती है लेकिन ये कम्पनी भी आज तक कामयाब नहीं हो पायी है (इन दोनों कम्पनियों ने सलवा जुडूम कैम्प का खर्च दिया था)। अनिल अग्रवाल (जो कि वेदांता कम्पनी के भी मालिक हैं और उड़ीसा के नियामगिरी को भी बर्बाद करने पर लगे हुये हैं) बाल्को की क्षमता को एक लाख टन प्रति वर्ष से बढ़ा कर सात लाख टन प्रतिवर्ष करना चाहते हैं। छत्तीसगढ़ सरकार 2001 से 2010 तक पूँजीपतियों के साथ 192126.09 करोड़ रु. के 121 इकरारनामा (MOU) किये हैं।
अपने जीविका के साधन जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिये भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के नेतृत्व में आदिवासियों का जो संघर्ष चल रहा है वह इस इकरारनामा को लागू नही होने दे रहा है। पूँजीपतियों के लूट को बनाये रखने के लिये देश की जनता पर अघोषित युद्ध थोप दिया गया है। इस अघोषित युद्ध को छिपाने के लिये ही प्रचारित किया जा रहा है कि नक्सलवाद अपने वैचारिक संघर्षों से भटक गया है और आतंकवाद व गुंडा गिरोह में तब्दील होकर चंदा उगाही कर रहा है; माओवादी नेताओं और बुद्धिजीवयों में राजनीति करने का धैर्य और विवेक नहीं है। जहाँ पीढ़ी दर पीढ़ी जनता आज तक अपने को लूटती हुयी देखती आई है जहाँ लोगों को दो जून की रोटी, पीने का स्वच्छ पानी तक नहीं है- शिक्षा और स्वास्थ्य तो दूर की बात है, जो भी उनके पास है उसको भी लूटा जा रहा है और हम उनसे धैर्य की बात कर रहे हैं।
इस लूट को बनाये रखने के लिये सीआरीपीएफ, कोबरा, बीएसएफ, भारत तिबब्त सीमा पुलिस, ग्रेहाउण्ड, वायु सेना, प्रशिक्षण के नाम पर सेना इसके अलावा सलावा जुडूम, कोया कमाँडो, नागरिक सुरक्षा समिति जैसे कई प्राइवेट सेनायें भी बनाई व लगायी गयी हैं। अमेरिका और इस्राइल द्वारा तकनीक से लेकर ट्रेनिंग तथा हथियार दिया जा रहा है। सेटेलाइट और यूएवी (मानवरहित एरियल व्हेकल) के सहारे फोटो लेकर हमले किये जाते रहे हैं। शासक वर्ग सैनिक, अर्द्धसैनिक बलों के बल पर दमन चक्र चला कर लूट को बनाये रखना चाहती है। यह सैनिक, अर्द्धसैनिक बल उसी शोषित-पीडि़त के घर से आते हैं जिसकी राजनीति भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) करती है और जिस दिन वे इन बलों को अपनी राजनीति को समझा दिया उस दिन सब कुछ बदल जायेगा।
विदेशी सम्बंध माओवादियों का
गृहमन्त्री रहते हुये पी. चिदम्बरम ने संसद् में बयान दिया ता कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) को विदेशों से मदद मिलने का कोई प्रमाण नहीं है। लेकिन बार-बार इस बात को उछाला जाता है कि माओवादियों का तार विदेशों से जुड़े हैं, इनको पास काफी संख्या में आधुनिक राइफलें हैं। दरभा घाटी के हमले में माओवादियों ने 1830-1840 दशक के भरमार बन्दूकों का इस्तेमाल किया है; इस बात की पुष्टि घायल और अन्य लोगों के शरीर से पुराने हथियारों की गोली मिलने से होती है। रामकृष्ण केयर अस्पताल के संचालक डॉ संदीप दवे के अनुसार 99 प्रतिशत घायलों के शरीर से पहले भी पुराने हथियारों की ही गोलियाँ निकलती रही हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि आज भी माओवादियों के पास ज्यादातर पुराने हथियार हैं। माओवादियों पर क्रूरतापूर्वक हत्या करने की बात कही जा रही है जब कि 'परिवर्तन यात्रा' में शामिल डॉ. शिव नरायण के अनुसार, ''मेरे पैर से खून बहता देख उनके कमाँडर ने कहा कि डाक्टर साहब को इंजेक्शन लगा दो।'' इस तरह माओवादियों ने कई घायलों का इलाज किया और पानी पिलाया और महेन्द्र कर्मा, नन्द कुमार पटेल और उनके बेटे के अलावा सभी आत्मसमर्पण करने वालों लोगों को छोड़ दिया। हमले के दो घंटे बाद पत्रकार नरेश मिश्रा बाइक से घटना स्थल पर पहुँचे और घायलों को मदद करने लगे; जब वह घायलों के मदद में लगे थे उसी समय काँग्रेसी नेता कवासी लखमा उनकी बाइक लेकर भाग गये, इस कारण उनको पैदल ही वापस आना पड़ा।
समाधान
भारत का शासक वर्ग इस समस्या का समाधान दमन के रूप में देख रहा है। लेकिन जरूरत है कि अभी तक पूँजीपतियों की लूट के लिये जो भी हमले जनता पर किये गये हैं उन हमले के जिम्मेदार लोगों को सजा हो। आदिवासी क्षेत्रों में संविधान की अनुच्छेद 5 और 6 को लागू किया जाये और लोगों के सम्मान पूर्वक जीने का अधिकार दिया जाये। सभी इकरारनामा (MOUs) को रद्द किया जाये। किसी भी प्रकार के इकरारनामा करते समय लोगों की अनुमति ली जाये। आपॅरेशन ग्रीन हंट सहित, सैनिक, अर्द्धसैनिक को वापस बुलाया जाये और माओवादियों से बिना शर्त बात की जाये। जेलों में बन्द सभी आन्दोलनकारियों को रिहा किया जाये। अन्यथा शासक वर्ग के दमन से माओवाद समाप्त नहीं होगा।
सुनील कुमार, लेखक सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ता हैं।
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