ममता-माओवादी साथ-साथ
लालगढ़ में माओवादियों की छाया में ममता बनर्जी। नालागढ़ में ही ममता की रैली में उमड़ा जन सैलाब। लालगढ़ में स्वामी अग्निवेश और मेधा पाटकर, जो तृणमूल कांग्रेस की प्राथमिक सदस्य भी नहीं हैं। लालगढ़ में नक्सलियों के बड़े नेता आजाद की मुठभेड़ी हत्या की न्यायिक जांच की मांग के जरिए ममता की पैरोकारी और साथ-साथ हिंसा छोड़ने और शांति प्रक्रिया में शामिल होने का नक्सलियों को उपदेश भी! ममता की रटी-रटाई भाषा-लालगढ़ में हिंसा और पिछड़ेपन के लिए वामपंथी (खासकर) सीपीएम सरकार ही जिम्मेदार है। लालगढ़ में एक लंबे समय से नक्सलियों का ही वर्चस्व है। एक दौर में तो उसे 'विमुक्त क्षेत्र', 'लाल किला' तक घोषित कर चुके थे, लेकिन लालगढ़ की औसत जिंदगी, खासकर बच्चे, आज भी कुपोषित हैं और यहां रहने वाले एक अजीब-सी बीमारी की गिरफ्त में हैं। नतीजतन जीवन भी छोटा और अधूरा है। इलाके की तीन पंचायतों पर ममता बनर्जी की पार्टी काबिज है, लेकिन हालात दयनीय…। करीब 16 महीने बाद कोई रैली इस इलाके में हुई है। यदि नक्सल-असर के बांकुरा और पुरुलिया पर ममता की नजर है, तो स्वाभाविक है, क्योंकि विधानसभा चुनाव दूर नहीं हैं और उन्हें अपना सपना साकार करना है। लिहाजा यदि ममता बनर्जी ने संसद सत्र के दौरान ही नालागढ़ में रैली की है, तो उसके दो मायने साफ हैं- माओवादियों के समर्थन-सहयोग के लिए उनके कंधों पर हाथ रखना और पश्चिम बंगाल की करीब 33 साल पुरानी वामपंथी सरकार के खिलाफ सियासत। इस मकसद के मद्देनजर ममता केंद्र सरकार की नक्सल नीति का विरोध और उसकी आलोचना भी कर सकती हैं। हालांकि वह खुद बतौर रेल मंत्री इस कैबिनेट का हिस्सा हैं। ममता बुनियादी तौर पर नक्सलियों के खिलाफ सशस्त्र आपरेशन की विरोधी हैं और ऐसे मुकाम पर माओवादियों के साथ खड़ी दिख रही हैं, जब सुरक्षा बलों ने नक्सलियों को हाशिए पर खदेड़ रखा है। प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादी) के बड़े नेता एवं लालगढ़-जंगलमहल क्षेत्र के प्रभारी रहे किशन जी और पार्टी के लड़ाकू दस्ते व एक बड़े नेता के बीच की बातचीत को केंद्रीय खुफिया एजेंसी ने 'इंटरसेप्ट' किया है। दोनों नक्सली नेताओं की आपसी बातचीत से स्पष्ट है कि नक्सलियों को पलटवार करने के मद्देनजर अपनी रणनीति बदलनी पड़ रही है, क्योंकि माओवादियों और उनके कट्टर सहयोगी संगठन-पीसीएपीए के बीच बिखराव आ गया है। नक्सलियों के अपने ही गढ़ में 'विभीषण' उभर आए हैं। नतीजतन उनके नेता या तो मारे जा रहे हैं अथवा गिरफ्तार किए जा रहे हैं। लालगढ़ में 'लाल आतंक' की जमीन खिसक रही है। ऐसे में ममता और माओवादी एक-दूसरे के संबल साबित हो सकते हैं। जब ममता ने नंदीग्राम और सिंगुर वाले आंदोलन छेड़े थे, तब भी माओवादी उनकी बगल में मौजूद थे। अब बेशक ममता के आग्रह के बावजूद केंद्र सरकार और खासकर गृह मंत्री चिदंबरम सुरक्षा बलों के आपरेशन को वापस लेने या धीमा करने का फैसला करने वाले नहीं लगते। नक्सलवाद के मुद्दे पर गृह मंत्री से तो ममता के बुनियादी मतभेद रहे हैं, लेकिन इस भूमिका में ममता यूपीए-दो सरकार के लिए भी लगातार सिरदर्द साबित होती रही हैं। तो बड़ा सहज सवाल है कि ममता बनर्जी केंद्रीय कैबिनेट से अलग क्यों नहीं हो जातीं? क्या एक ही मुद्दे पर कैबिनेट सार्वजनिक तौर पर अलग-अलग दिखाई दे सकती है? क्या ममता हिम्मत कर माओवादियों के साथ अपने रिश्ते सार्वजनिक तौर पर कबूल कर सकती हैं? क्या ममता के आह्वान और पहल पर नक्सलवाद अपनी हिंसा छोड़कर अमन की पगडंडियां पकड़ सकता है? हम मानते हैं कि ममता का जनाधार बढ़ा है और वाम के खिलाफ उनका राजनीतिक एजेंडा भी स्पष्ट है, लेकिन क्या उस एजेंडे में नक्सली भी शामिल हैं? हकीकत यह है कि नक्सली संगठन पीसीएपीए के नेता और ज्ञानेश्वरी रेल कांड के वांछित अभियुक्तों-मनोज और असित महतो को रैली में शिरकत करते देखा गया था। पुलिसिया अनुमान है कि नक्सली 10,000 से ज्यादा भीड़ जुटाने में कामयाब रहे। रैली से पहले भी नक्सलियों ने गांव-गांव, घर-घर के दौरे किए और लोगों को भरोसा दिलाया कि 'अगस्त क्रांति' (भारत छोड़ो आंदोलन) के मौके पर आयोजित यह रैली एक बड़े बदलाव का आगाज साबित होगी। किसी भी स्तर पर ममता और माओवादियों के साथ-साथ होने की स्थिति को नकारा नहीं जा सकता। नक्सलियों की रणनीति और कार्यशैली फिलहाल राष्ट्र विरोधी है। ऐसी जमात के साथ एक केंद्रीय मंत्री की मौजूदगी कहां तक नैतिक है, दरअसल बहस का नया मुद्दा यह होना चाहिए। नक्सलोन्मुख होना एक ऐसा मोड़ है, जहां से ममता की राजनीति खुद उनके उलट मुड़ सकती है।
August 11th, 2010
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