पहचान की राजनीति मजबूत करने में आखिर उग्रतम हिंदू राष्ट्रवाद के क्या हित हैं?
पलाश विश्वास
मुझे यह पहेली कतई समझ में नहीं आ रही है कि उग्रतम हिंदू राष्ट्रवाद के क्या हित हो सकते हैं जातीय पहचान को मजबूत करने की राजनीति में? यह भी समझ से परे है कि मुलायम और मायावती के आरक्षण विवाद में बेतरह फंसी यूपीए सरकार का संकटमोचक बनने में संघ परिवार की क्या दिलचस्पी है? जबकि इतिहास बताता है कि आरक्षणविरोधी आंदोलन का अगुवा होने के अलावा मंडल के खिलाफ कमंडल रणनीति के तहत राममंदिर आंदोलन के जरिये धर्म राष्ट्रवाद की आंधी में अनुसूचित जातियों और जनजातियों को हिंदुत्व की पैदल सेना बनाने की सामाजिक समरसता का ही कार्यक्रम है उसका!हिंदू राष्ट्र्वाद मनुस्मृति व्यवस्था का समर्थक है और उससे जुड़े तमाम कार्यकर्ता, सिद्धांतकार, मीडियाकर्मी और राजनेता डा. भीमराव
अंबेडकर के भारतीय संविधान को कारिज करके उसकी जगह मनुस्मृति को ही भारत का संविधान बनाने की कवायद में लगे हैं। वेचाहते हैं कि भारत में राजकाज, कायदा कानून सबकुछ हिंदू धर्म के पवित्रग्रंथों और शास्त्रों के मुताबिक हो। संविधान को नापसंद करने का सबसे बड़ा कारण उसमें निहित समता और सामाजिक न्याय की गारंटी के प्रावधान हैं, जिसके तहत अनुसूचितों और पिछड़ों को आरक्षण मिला हुआ है। भारतीय सवर्ण मानस आरक्षण के खिलाफ है। इस हद तक कि पिछले लोकसभा चुनाव में भावी प्रधानमंत्री के रुप में मायावती का चेहरा पेश करने से बंगाल में सवर्ण वामपंथी वोटबैंक भी धंस गया। तो आखिर धार्मिक व सांप्रदायिक पहचान की राजनीति करनेवाला संघ परिवार जाति की पहचान मजूत करने की राजनीति करनेवाली मायावती के से साथ क्यों खड़ी है , जबकि ओबीसी मुलायम सिंह भी प्रोमोशन में आरक्षण के खिलाफ है!
सवर्ण वोट बैंक टूटने का जोकिम क्यों उठा रहा है संघ परिवार? प्रमोशन में आरक्षण मुद्दे पर सोमवार को राज्यसभा में वोटिंग की उम्मीद है और इस मुद्दे ने यूपी की राजनीति में उबाल ला दिया है। आरक्षण समर्थकों और विरोधियों ने सोमवार को शक्ति प्रदर्शन की पूरी तैयारी कर ली है। उधर, कानून व्यवस्था ना बिगड़े इसके लिए पुलिस और प्रशासन को भी सतर्क कर दिया गया है। इस बीच बीजेपी ने अपने सभी सांसदों को बिल के पक्ष में वोटिंग करने के लिए व्हिप जारी कर दिया है।दरअसल प्रमोशन में आरक्षण को लेकर यूपी में माहौल गर्म है। उत्तर प्रदेश में आरक्षण विरोधी करीब 18 लाख कर्मचारी तीन दिनों से हड़ताल पर हैं। इस सुनामी की आंच से कैसे बचेगा संघ परिवार? आरक्षण विवाद में जीत पर जो राजनीतिक समीकरण बनेंगे, वे मुलायमम और मायावती का खेल बनाने बिगाड़ने के लिए है। प्रोमोशन में आरक्षण लागू हो जाने से मायावती मजबूत होती हैं और इससे भाजपा को कोई चुनावी फायदा नहीं होना है। दलित वोट बैंक पलटी खाकर भाजपा के समर्थन करने से तो रहा।खास बात यह है कि भाजपा ने यह खतरा तब उठाया जबकि मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के भाग्य का फैसला करने के लिए गुजरात विधानसभा चुनावों के अंतिम चरण के मतदान के लिए सारी तैयारियां पूरी कर ली गई हैं। मतदान सोमवार को होगा. सोमवार को लगभग 198 लाख मतदाता 95 विधानसभा क्षेत्रों में अपने मताधिकार का उपयोग करेंगे। इसमें 103 लाख पुरुष एवं 95 लाख महिलाएं हैं। पहले चरण में 87 विधानसभा क्षेत्रों में मतदान हुए थे। सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) एवं मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने पहले चरण में हुए रिकार्डतोड़ मतदान को अपने पक्ष में बताया है।जाहिर है कि गुजरात में मोदी की जीत तय मानकर भाजपा यह जोखिम उठा रही है। लेकिन अगर दांव ही उलटा पड़ गया तो?अरविंद केजरीवाल नीत आम आदमी पार्टी ने आज सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण के मुद्दे का दोहन करने के लिए राजनैतिक दलों की आलोचना की और उनपर दलगत हितों को राष्ट्रीय हितों के उपर रखने का आरोप लगाया।
सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण संबंधी विधेयक पास नहीं होने और राज्यसभा में व्यवस्था बनाने में सरकार के पहल नहीं करने पर बसपा ने कड़ा कदम उठाने की धमकी दी है।
इससे आखिर खतरा किसे है और संघ परिवार किसे बचा रहा है?
जाति व्यवस्था कायम रहे तो मनुस्मृति शासन भी जारी रहेगा। आरक्षण समान अवसर और सामाजिक न्याय के तर्क पर आधारित है, जो निजीकरण और विनिवेश के दौर में तेी से गैर प्रासंगिक होता जा रहा है। अंबेडरकरवादी अंबेडकर के वास्तविक मिशन जाति उन्मूलन के बजाय जाति को मजबूत करके सत्ता में बागेदारी की राजनीति तक सीमाबद्ध हैं। इससे जाति व्यवस्था खत्म होने के बजाय और मजबूत होती है। फिर आरक्षण सभी को नहीं मिलता। आरक्षण और सत्ता पर मजबूत आरक्षित जातियों को ही फायदा है लाभार्थी आरक्षण की वजह से अपनी बेहतर हैसियत को कायम रखने के लिए मनुस्मृति व्यवस्था के हितों की रक्षा में सदैव मुस्तैद रहते हैं और अपनी अपनी जाति के अलावा बाकी जातियों का भला करने के बारे में सोचता ही नहीं है। हैसियत बचाने के लिए वह अपनी जाति का भी साथ नहीं देता। आधे अधूरे आरक्षण और राजनीतिक आरक्षण सामाजिक अन्याय और असमानता में इजाफा तो होता ही है, इसके साथ ही जाति संघर्ष की स्थितियां पैदा होती है, जिससे बहुजनसमाज का निर्माम नहीं हो सकता और न ही मनुस्मृति व्यवस्था टूट सकती है। सैद्धांतिक दृष्टि से जाति संघर्ष को सांप्रदायिक संघर्ष की तरह हिंदुत्व का आदार बनाने में संघ परिवार के हिंदू राष्ट्र के एजंडे में कोई अंतर नहीं आता।
पर सैद्धांतिक राजनीति के मुकाबले व्यवहारिक चुनावी राजनीति की बात करें तो संघ परिवार को इस सौदे से कोई फायदा नहीं है।
इस संघी रणनीति से मायावती मजबूत होती है, जिससे बहुजन समाज की राजनीति ही मजबूत होनी है।
फायदा कांग्रेस को सबसे ज्यादा होना है। अनुसूचितों में आधार वापस पाने का उसके लिए मौका है।
इससे बड़ी बात है कि आर्थिक सुधारों से जुड़े तमाम विधेयक संसद में लंबित है, जो अंबेडकर के अर्थ सास्त्र और संविदान में अनुसूचितों
को दी गयी संवैधानिक गारंटीकेखिलाफ हैं। मसलन पांचवीं और छठीं अनुसूचियों के तहत मिले आदिवासियों के अधिकार जो प्राकृतिक संसाधनों पर उनकी मिल्कियत बनाती हैं और निश्चय ही आरक्षण के प्रावधानों से कहीं ज्यादा महत्वपूर्म हैं कारपोरेट, बिल्डर, प्रोमोटर राज के लिए। ये विधेयक तभी कानून बन सकते हैं जबकि मायावती का समर्थन यूपीए को जारी रहे। मायावती का यह समर्थन आर्थिक सुधारों के लिए अनिवार्य है क्योंकि सरकार संसद में ्ल्पमत में है और यह साबित है।
इससे तो यह लगता है कि वैश्विक व्यवस्था के दबाव में कारपोरेट लाबिइंग के तहत मायावती की मिजाजपुर्सी करने के लिए कांग्रेस और भाजपा का यह नायाब गाट अप गेम है। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए कारपोरेट और बाजार के समर्थन भी तो संघ परिवार को चाहिए।यह सवर्ण वोट बैंक से कहीं बड़ा दांव है।
सुषमा स्वराज आर्थिक सुधारों के एजंडा का विरोध नहीं करती और न भाजपा के दूसरे नेता ऐसा करते हैं। खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश का विरोध पांच करोड़ व्यापारी वोट बैंक के मद्देनजर किया गया था।फिक्की अधिवेशन में जब सुधारों में गतिरोध के लिए प्रधानमंत्री ने विपक्ष को जिम्मेवार ठहराया तो सुषमा ने साफ कर दिया कि इसके लिए वे जिम्मेवार नहीं है, बल्कि सत्ता गठजोड़ के घटक दल जिम्मेवार हैं। यह सफाई वे बाजार और कारपोरेट को देरही थीं।
हम तो लगातार लिखते रहे हैं कि धर्म राष्ट्रवाद दरअसल वर्चस्ववादीखुले बाजार की मनुस्मृति व्यवस्था का ही पर्याय है। दोनों में कोई अंतरविरोध नहीं है। धर्मराष्ट्रवाद के लिए बाजार और कारपोरेट हितों की पसर्वोच्च प्राथमिकता है। इस खेल में मायावती और मुलायम के बजाय संघ परिवार का असली मुकाबला कांग्रेस के साथ है। आरक्षण के पक्ष में मतदान के जरिये संघ परिवार यह साबित करनेकी कोशिश कर रहा है कि सुधारों के नाम परजनसंहार की नीतियों को लागू करने के लिए वह किस हद तक जा सकती है। उसके वास्तविक हिंदू राष्ट्र का एजंडा जातिव्यवस्था कायम रहने से स्वतः लागू हो जाता है। आरक्षण हो या न हो, किसे मिले और किसे नहीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
सोमवार को ये मुद्दा राज्यसभा में एक बार फिर गरमाएगा और आरक्षण विरोधियों ने खुला ऐलान कर दिया है कि अगर बिल पास हुआ तो वो बीएसपी, बीजेपी और कांग्रेस को अगले चुनावों में सबक सिखाएंगे। जबकि आरक्षण समर्थक कर्मचारी ज्यादा समय तक कामकर विरोधियों के मंसूबे पर पानी फेरने के लिए कमर कसे हुए हैं। आरक्षण समर्थकों को उम्मीद है कि ये बिल राज्यसभा में पास हो जाएगा और आरक्षण विरोधियों के आंदोलन के जवाब में ये गुट भी सोमवार को अपने शक्ति प्रदर्शन की तैयारी में जुट गया है। इनका कहना है कि उन्हें शांतिपूर्वक काम करने से रोका गया तो इसका जवाब सड़क पर उतर कर देंगे।
प्रमोशन में आरक्षण के मसले पर जहां लाखों राज्य कर्मचारी अलग-अलग धड़ों में बंट गए हैं तो वहीं सियासी दल इस मुद्दे को गरमाने में जुटे हुए हैं। सियासी दलों की नजर 2014 के चुनाव पर है। यूपी में अपना व्यापक जनाधार रखने वाली समाजवादी पार्टी खुल कर आरक्षण विरोधियों के साथ आ खड़ी हुई है। उसे उम्मीद है कि इसी बहाने पिछड़ी जातियों और मुसलमानों के साथ ही साथ अगड़ी जातियों का भी समर्थन मिलेगा। वहीं कांग्रेस, बीजेपी और बीएसपी को दलित वोटों का लालच है। हालांकि आरक्षण विरोधियों के गुस्से से बीजेपी परेशान है।
प्रमोशन में रिजर्वेशन विधेयक पर सोमवार को राज्यसभा में वोटिंग होगी। बिल को मायावती और कांग्रेस का समर्थन है लेकिन यूपीए को कई बार संसद में बचाने वाले मुलायम इसके खिलाफ हैं। बीजेपी ने बिल को समर्थन देने का संकेत दे दिया है। संविधान संशोधन बिल होने की वजह से यूपीए को बिल पास करवाने के लिए बीजेपी के वोट की जरूरत है। हालांकि बीजेपी की मांग है कि प्रमोशन में उम्मीदवार की कार्यकुशलता और प्रदर्शन को ध्यान में रखा जाए। फिलहाल बिल में इसका प्रावधान नहीं है। कानून बनने के बाद साधारण श्रेणी के उम्मीदवारों की अनदेखी न हो। सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का ख्याल रखा जाए।
वहीं कोर्ट ने कहा था कि प्रमोशन में रिजर्वेशन लागू करने के लिए राज्य सरकार को ये साबित करना होगा कि अनुसुचित जाति और जनजाति उम्मीदवारों की उच्चतम नौकरशाही में उचित प्रतिनिधित्व नहीं है। बीजेपी ने फिलहाल बिल पर वोटिंग के मामले में विप जारी कर दिया है। सूत्रों के मुताबिक सरकार ने बीजेपी की मांग पर इस संविधान संशोधन विधेयक में बदलाव के लिए मायावती को मना लिया है। लेकिन मु्लायम किसी हाल में बिल पर सरकार का समर्थन करने को तैयार नहीं हैं। यहां तक कि मुलायम ये संकेत भी दिया कि बिल वापिस नहीं हुआ तो वो यूपीए को दिए समर्थन पर पुनर्विचार करेंगे।
सूत्रों की मानें तो मुलायम ने भी बिल का विरोध करने के लिए राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली से बात की है। हालांकि जेटली ने इस मुद्दे पर कुछ कहने से इंकार किया लेकिन सूत्रों के मुताबिक बीजेपी प्रमोशन में रिजर्वेशन पर अभी तक कोई फैसला नहीं ले पा रही है।
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