क्या करूणानिधि ब्लैकमेलर हैं?
जगमोहन फुटेला
एक बड़े अंग्रजी अख़बार ने अपने संपादकीय में समर्थन वापसी को डीएमके की 'ब्लैकमेलिंग' बताया है। मेरे विचार से किसी व्यक्ति के लिए हो तो भले हो, लेकिन किसी अख़बार के लिए ये उचित नहीं है। करूणानिधि का तमिलों के साथ खड़े होना अगर गुनाह है तो फिर ये गुनाह तो श्यामा प्रसाद मुखर्जी से ले कर मोहन भगवत और अटल से ले कर मोदी तक हरेक ने किया है। बादल ने जब तब 'धर्म-युद्ध' छेड़े हैं, मायावती दलितों से आगे किसी को नहीं देखतीं, मुलायम को सिर्फ मुसलमानों से मतलब न होता तो न रथयात्रा रूकती, न हिंसा होती उत्तर प्रदेश में। वोटों की राजनीति ही न हो तो राजस्थान में गूजरों और हरियाणा में जाटों को रेल पटरियों पे बिठाता कौन है? क्यों तो चौधरी चरण सिंह ने सत्ता को लात मारी और क्यों वीपी सिंह के मंडल की आग में दो सौ बच्चे हवन हो गए? करुणा अगर ब्लैकमेलिंग कर रहे हैं तो वो सब क्या था? जयललिता जो कर रही हैं हर हफ्ते चार चिट्ठियां लिख और लीक कर के, वो क्या है?
सवाल डीएमके की तमिलनाडु में राजनीति का ही नहीं है। तमिलों का भी है। ये अलग बात है कि उनका मुद्दा भारत के लिए उस के कश्मीर से टकराता है। बाहरी दखल की बात कहे तो फिर वो कश्मीर में भी माननी पड़ती है। संसद में प्रस्ताव भी पास हो फिर वो पाकिस्तान की नेशनल असेम्बली की तरह दखल होगा किसी 'स्वतंत्र, संप्रभु राष्ट्र' में। लेकिन तब भी करुणा को ब्लैकमेलर लिख देना अतिश्योक्ति है। शायद अपमान भी। करुणा का ही नहीं तमिलों का भी। तमिलों का ही नहीं, संघीय लोकतंत्र की सीमाओं और मर्यादा का भी। मुझे पक्का यकीन है कि इस अख़बार का एक एडिशन चेन्नई में भी होता तो वो करूणानिधि के इस फैसले को 'ब्लैकमेलिंग' नहीं लिख सकता था।
अख़बार को चिंता किस की है? सरकार की। वो लिखता है कि 'but government stability may not be in danger' ये अख़बार का आकलन कम, दिल को तसल्ली ज्यादा लगता है। अख़बार की चिंता तमिल नहीं, करुणा नहीं, उनकी लोकतांत्रिक आवश्यकता या विवशता भी नहीं, यूपीए की सरकार है।
पता नहीं हम पत्रकार अगर अख़बार वाले हैं तो प्रधानमंत्री के साथ विदेश यात्रा और विज्ञापन से आगे क्यों नहीं सोचते? हम हिंदू-मुसलमान और तमिल-सिंहली के संदर्भ में ही क्यों सोचते रहते हैं, हिंसा के बारे में क्यों नहीं सोचते जो मीलों लंबा समंदर लांघ के भारत के भीतर आ के हमारे राजीव गांधी तक को निगल जाती है और जिस की वजह से सैकड़ों सरबजीत सड़ रहे हैं पाकिस्तान की जेलों में और भारत में सैनिकों के सिर कटे शव आते हैं, आज 65 साल बाद भी!
ये तर्क भी क्या तर्क है कि श्रीलंका चीन के साथ चला जाएगा। पाकिस्तान कब नहीं था, चीन के साथ? क्या आज भी नहीं है सामरिक संधि दोनों में? क्या चीन ने मदद नहीं की पाकिस्तान की परमाणु शक्ति होने में? उस पाकिस्तान में हो रही हिंसा पर हम सिर्फ बोलते ही नहीं हैं बल्कि एक पूरे का पूरा सरकारी चैनल समर्पित कर रखा है हमने रोज़ उर्दू में पाकिस्तान में हो रहे मानवाधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ। नेपाल को राजद्रोह के समय अपनी सेना की मदद भी देने को तैयार थे। इसी श्रीलंका को तो दी भी थी आईपीकेएफ के नाम से। अभी हाल ही में एक पडोसी देश में बगावत होने पर उस के राष्ट्रपति को पनाह तक दी अपने दूतावास में। चीन ही अगर बड़ा हौवा है तो उस के न चाहने के बावजूद दलाई लामा आज तक भारत में क्यों हैं उन के आने के बाद से भारत में पैदा हो चुकी तिब्बतियों की अब तीन पीढ़ियों के साथ।
मैं बहुत बड़ा पत्रकार नहीं हूँ। देश दुनिया का ठेका अपना मान के चलने वाले किसी अंग्रेजी अख़बार में तो कभी भी नहीं रहा। जिस देश में लोग अपने पडोसी तक को नहीं पहचानते उस में विदेश और उस की भी राजनीति, कूटनीति तो खैर मैं क्या ही समझूंगा। लेकिन समझाना ज़रूर चाहूँगा एक बात अगर इस देश का मीडिया समझ सके। और वो ये कि निजी, पारिवारिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन में कुछ स्टैंड आदमी, पार्टी या देशों को लेने ही पड़ते हैं। लेने चाहिए भी। अब इसी को लें। करुणा ने आप को छोड़ा। आप करुणा को छोड़ दो। ज़ाहिर है तमिलों को छोड़ के जया भी यूपीए की सरकार बचाने आएंगी नहीं। तो क्या करोगे आप? आप मुलायमों और मायाओं के दम पर करुणा, जया , तमिलनाडु और तमिलों को छोड़ देना। ये समझने की कोशिश न करना कि अपने लोगों के साथ जीना मरना करुणा और जयललिताओं की भी मजबूरी है। आप लाख न चाहें कश्मीर में किसी का दखल लेकिन इस का ये मतलब भी नहीं है कि श्रीलंका में नरसंहार होता फिरे। अमेरिका और उस से भी कम शक्ति वाले कंगाली की कगार तक पे बैठे उन यूरोपीय देशों के नज़रिए से कब सोचना शुरू करेंगे हम कि ओसामा तो एक दूर पाकिस्तान में भी बैठा हो तो सारी मानव जाति के लिए घातक होता है। अमेरिका अगर पाकिस्तान में घुस कर उस को मार सकता है तो हम क्या एक बयान भी नहीं दे सकते?
मैंने कहा, मुझे विदेश क्या, राजनीति तक नहीं आती। लेकिन ये पता है कि श्रीलंका अगर अपने गृहयुद्ध की आग में यों ही जलता रहा तो झुलसेगा बहुत कुछ भारत में भी। क्यों इतनी बुद्धि नहीं है हम में कि कभी मुलायम, कभी बादल और कभी अपने करुणाओं के रूप में दिख रही संघीय लोकतंत्र की इस खूबसूरती को समझ सकें। और वोटगत मजबूरी भी अकेले माया, मुलायम, बादल और करूणानिधि की नहीं है। कांग्रेस की भी है। न होती तो प्रियंका गांधी क्यों जाती अपने पिता की हत्यारिन से मिलने। क्यों मांग करतीं उसे छोड़ देने की जिसे इस देश की अदालतें सजा दे चुकी हैं। इस तरह के जातिगत या वोटगत दबाव फिर भी रहेंगे। अमेरिका का वीज़ा मिले न मिले, मोदी तो होंगे। तमिल धरती पर रहेंगे तो श्रीलंका की समस्या और भारत पे उस का दबाव भी हमेशा रहेगा। समाधान भी निकलेंगे। पर, भगवान के लिए इसे ब्लैकमेलिंग न कहो। करूणानिधि के बिना सरकार भले चल जाए, तमिलों के बिना तमिलनाडु नहीं चलेगा। तमिलनाडु के बिना देश नहीं !
Last Updated (Wednesday, 20 March 2013 18:51)
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