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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Wednesday, March 20, 2013

अम्‍बेडकरवादी उपचार से दलितों को न तो कुछ मिला है, और न ही मिले

"हाँ, डॉ. अम्‍बेडकर के पास दलित मुक्ति की कोई परियोजना नहीं थी" कीअगली कड़ी

हस्तक्षेप पर प्रकाशित पलाश विश्वास जी के आलेख के प्रत्युत्तर में हमें 'मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान' के संपादक अभिनव सिन्‍हा, का आलेख प्राप्त हुआ है। आलेख थोड़ा लम्बा है इसलिये हम इसे दो भागों में दे रहे हैं। पूरा आलेख पढ़ें तभी बहस का पूरा पक्ष सामने आयेगा। हम अरविन्द स्मृति संगोष्‍ठी में प्रस्‍तुत आलेख भी सिलसिलेवार यहाँ देंगे। इस बहस में आपको भी कुछ कहना है तो स्वागत है। आप हमें Amalendu.upadhyay@gmail.com पर मेल कर सकते हैं।

-    सम्पादक हस्तक्षेप

अम्‍बेडकर और अम्‍बेडकरवाद के बारे में और साथ ही कतिपय मार्क्‍सवादियों के कतिपय "ब्राह्मणवाद" के बारे में पलाश विश्‍वास के कतिपय रोचक विचार : एक जवाब

अभिनव सिन्‍हा, सम्‍पादक – 'मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान'

…… अब आते हैं इस सवाल पर कि अम्‍बेडकर ने 'दि प्रॉब्‍लम ऑफ दि रुपी' में क्‍या लिखा था। यह वह रचना है जो वास्‍तव में अम्‍बेडकर के आर्थिक विचारों के मूल को काफी हद तक प्रकट कर देती है। अम्‍बेडकर सैद्धांतिक तौर पर मुक्‍त बाज़ार अर्थव्‍यवस्‍था के समर्थक थे, जिसमें कि राज्‍य की भूमिका एक नियामक भर की हो। यह विचार आगे जाकर बदले, जिसमें अम्‍बेडकर ने राज्‍य को कुछ अधिक भूमिका दे दी। लेकिन इस रचना में अम्‍बेडकर ने राज्‍य को कम-से-कम हस्‍तक्षेप की सलाह दी है। वास्‍तव में उनके लेखन पर उस समय के उदारवादी बुर्जुआ अर्थशास्‍त्र का ज़्यादा प्रभाव नज़र आता है। कुछ मामलों में तो वे ऐसे प्रस्‍ताव रखते हैं जो कि मुक्‍त बाज़ार अर्थव्‍यवस्‍था के सबसे प्रमुख नुमाइन्‍दों ने बाद में रखे। इस रूप में साम्राज्‍यवाद ने जो आर्थिक सिद्धांत बाद में पेश किये अम्‍बेडकर ने उन्‍हें कुछ पहले ही पेश कर दिया था। आइये कुछ उदाहरणों पर नज़र दौड़ा लेते हैं। अम्‍बेडकर को जिन अर्थशास्त्रि‍यों ने पढ़ाया था उनमें एडवर्ड कनान, जेम्‍स रॉबिंसन, जॉन डेवी, एडविन सेलिगमैन आदि जैसे अर्थशास्‍त्री प्रमुख हैं। लंदन स्‍कूल ऑफ इकोनॉमिक्‍स में पढ़ते समय उनपर कार्ल मेंगर जैसे अर्थशास्त्रियों का काफी असर पड़ा। कार्ल मेंगर ने 19वीं सदी के उत्‍तरार्द्ध में ऑस्ट्रियन स्‍कूल ऑफ इकोनॉमिक्‍स की स्‍थापना की थी। अम्‍बेडकर की पुस्‍तक 'दि प्रॉब्‍लम ऑफ दि रुपी' 1923 में प्रकाशित हुई। इस पूरी पुस्‍तक में पेश किये गये तर्क अर्थव्‍यवस्‍था के प्रबन्‍धन के लिए मुद्रा को प्रमुख उपकरण के तौर पर इस्‍तेमाल करने की दलील देते हैं, और इस रूप में अम्‍बेडकर की सोच एक आर्थिक चिन्‍तक के रूप में मुद्रावाद (मॉनिटरिज्‍़म) के करीब पड़ती है। अम्‍बेडकर का मानना है कि समाज में उत्‍पादों का विनिमय उत्‍पादों से नहीं बल्कि मुद्रा से होता है, और इस विनिमय को सम्‍भव बनाने वाला उपकरण है मुद्रा। ऐसे में पूरी अर्थव्‍यवस्‍था की सेहत इस बात पर निर्भर करती है कि मुद्रा की व्‍यवस्‍था दुरुस्‍त है या नहीं। अम्‍बेडकर आगे दलील देते हैं कि मुद्रा को छापने से लेकर उसके वितरण और संचालन का काम सरकार और सरकार द्वारा संचालित बैंकों को नहीं करना चाहिए। इस पुस्‍तक में अम्‍बेडकर अपने आपको मुक्‍त बाज़ार और निजी संपत्ति की व्‍यवस्‍था का पैरोकार बताते हैं और कहते हैं कि सरकार की बजाय मुद्रा व्‍यवस्‍था को संचालित करने की ज़ि‍म्‍मेदारी निजी बैंकों की होनी चाहिए जो कि एक स्‍वर्ण मानक के तहत इस काम को अंजाम देंगे। इस रचना में केन्‍द्रीय नियोजन के कीन्‍सीय सिद्धांत का विरोध करते हुए अम्‍बेडकर ज्ञान की समस्‍या की बात करते हैं और कहते हैं कि अर्थव्‍यवस्‍था में राज्‍य के हस्‍तक्षेप का कीन्‍सीय सिद्धांत एकदम बकवास है और चूंकि किसी भी केंद्रीकृत राज्‍य को पूरे देश की स्‍थानीय समस्‍याओं का पूरा ज्ञान नहीं हो सकता है इ‍सलिए एक मुक्‍त बाज़ार और अनियंत्रित मुद्रा की व्‍यवस्‍था होनी चाहिए, जिसमें सरकारी एजेंसियों का हस्‍तक्षेप कम-से-कम होना चाहिए। वास्‍तव में यह ऑस्ट्रियन स्‍कूल ऑफ इकोनॉमिक्‍स का एक बुनियादी सिद्धांत है, जो कि राज्‍य के हस्‍तक्षेप को खत्‍म करने की बात करता है। आज के भूमंडलीकरण के सिद्धांतकार जिन सिद्धांतों की बात करते हैं उन्‍हें वास्‍तव में अम्‍बेडकर की इस रचना से सीखने को बहुत-कुछ मिल सकता है। पलाश विश्‍वास ने बिना यह किताब पढ़े अन्‍दाज़े मार दिये हैं, जो कि उनके जैसे (वरिष्‍ठ और विवेकवान, मैंने ऐसा सुना है) पत्रकार को शोभा नहीं देता। उन्‍होंने यह दिखलाने की कोशिश की है कि इस रचना में अम्‍बेडकर ने साम्राज्‍यवाद पर हमला किया है। पलाश विश्‍वास को इस तरह से अज्ञान प्रसारक की भूमिका नहीं निभानी चाहिए और किसी रचना पर टिप्‍पणी करने से पहले उसे पढ़ना चाहिए। लेकिन श्री विश्‍वास से ऐसी उम्‍मीद करना भी एक नादानी ही होगी, क्‍योंकि हम पर टिप्‍पणी करने से पहले भी उन्‍होंने संगोष्‍ठी में प्रस्‍तुत हमारे आलेखों को पढ़ा भी नहीं है और हमें सीपीआई, सीपीएम, सीपीआई-एमएल लिबरेशन जैसे संसदीय वामपंथियों की कतार में खड़ा कर दिया है। कोलकाता में रहते हुए हम सीपीएम आदि पर उनकी खीझ और गुस्‍से को समझ सकते हैं, लेकिन अभी वे स्‍वयं भी उसी प्रकार की दलीलें दे रहे हैं, जिसकी उम्‍मीद आप सीपीएम जैसे सामाजिक फासीवादियों और आरएसएस जैसे दक्षिणपंथी फासीवादियों से कर सकते हैं, ऐसी दलीलें जो कि मिथकों को सामान्‍य बोध के तौर पर स्‍थापित करने का प्रयास करती हैं।

वास्‍तव में हम अम्‍बेडकर के विचारों में उस समय के साम्राज्‍यवादी आर्थिक सिद्धांत का समर्थन देख सकते हैं। इस पुस्‍तक में अम्‍बेडकर ने जो आर्थिक कार्यक्रम पेश किया है, उसमें तीन धाराओं का मिश्रण किया गया है: कार्ल मेंगर का ऑस्ट्रियन स्‍कूल ऑफ इकोनॉमिक्‍स, फ्रेडरिक हायेक का विकेन्‍द्रीकृत नियोजन का सिद्धांत और जॉन डेवी का व्‍यवहारवादी अर्थशास्‍त्र। पता नहीं इसमें पलाश विश्वास को साम्राज्‍यवाद-विरोध कहां से नज़र आ गया। जाहिर है, उन्‍होंने कोई अखबारी टिप्‍पणी पढ़कर बिना जाने इस पुस्‍तक के बारे में टिप्‍पणी कर दी है। ऐसा करने से उन्‍हें बचना चाहिए था।

इसके बाद एक जगह पलाश विश्‍वास लिखते हैं कि हम "वामपंथी" (जिसमें वे सभी संसदीय और गैर-संसदीय वामपंथियों को शामिल करके बात कर रहे हैं) संविधान की हत्‍या करने पर आमादा हैं, जैसा कि शासक वर्ग भी चाहता है। कवि पाश ने एक बार संविधान के बारे में कहा था कि यह पुस्‍तक मर चुकी है; इसे मत पढ़ना; इसके शब्‍दों में मौत की ठण्‍डक है। अगर पाश होते तो वे पलाश विश्‍वास की इस बात का यह जवाब देते कि मरे हुओं की हत्‍या नहीं की जा सकती। लेकिन हम इसका एक थोड़ा अलग जवाब देंगे। यह पलाश विश्‍वास का विचित्र दृष्टिकोण है कि भारतीय पूंजीपति शासक वर्ग संविधान की हत्‍या करना चाहता है। हमें तो लगता है कि जो संविधान संपत्ति के उनके अधिकार को लगभग पवित्रता के दायरे में रखता है; जो संविधान'डिस्‍टर्ब्‍ड एरियाज़ एक्‍ट' और 'आर्म्‍ड फोर्सेज़ स्‍पेशल पावर्स एक्‍ट' जैसे काले कानून इस देश के शासकों को देता है (ज्ञात हो कि ये कानून अंग्रेज़ों की देन थे, और अम्‍बेडकर इनसे वाकिफ थे, और उसके बावजूद इन्‍हें खत्‍म नहीं किया गया); जो संविधान अपने भीतर ही आपातकाल के प्रावधान को समेटे हुए हो; जो संविधान राज्‍य की हिंसा की आज्ञा तो देता हो, लेकिन जनता द्वारा बल प्रयोग की आज्ञा न देता हो; उस संविधान को इस देश के शासक वर्ग क्‍यों मारना चाहेंगे? उल्‍टे शासक वर्ग तो पिछले कुछ समय में लगातार ऐसे लोगों पर राजद्रोह की धाराएं लगाता रहा है, जिन्‍होंने संविधान के बारे में कुछ भी प्रतिकूल कहा हो। पलाश विश्‍वास कहां से पढ़कर यह सब लिखते हैं? यह संविधान दुनिया के सबसे अच्‍छे पूंजीवादी संविधानों में से एक है। तभी तो इतना मोटा है! मोटे संविधान वे ही होते हैं जिसमें ढेर सारी धांधलियां होती हैं; जिसमें एक अधिकार का प्रावधान होता है, तो दूसरा उस अधिकार को हड़प लेने का। इसीलिए इतने पन्‍ने खर्च हो जाते हैं। इस देश के मूर्ख इस बात पर गर्व करते हैं कि इस देश का संविधान दुनिया का सबसे मोटा संविधान है। क्‍या कह सकते हैं? एक बार मार्क ट्वेन ने कहा था, 'कभी किसी मूर्ख से बहस मत करो। पहले वह तुम्‍हे घसीटकर अपने स्‍तर पर ले जायेगा, और फिर तजुरबे की ताकत से तुम्‍हे हरा देगा।' हम पलाश विश्‍वास को सलाह देंगे कि वह बिना वजह संविधान की रक्षा और उसकी हत्‍या के डर से दुबले हुए जा रहे हैं। उसकी रक्षा में पहले से ही उनसे काफी समझदार और ताकतवर लोग लगे हुए हैं। बेहतर होता कि वह थोड़ा और अध्‍ययन करके अपना पक्ष चुनते।

आगे पलाश विश्‍वास हमें सीपीआई, सीपीएम और लिबरेशन जैसे गद्दारों के अपराधों के लिए जिम्‍मेदार ठहराते हैं और पूछते हैं कि ऐसे लोग अम्‍बेडकर की आलोचना का क्‍या हक़ रखते हैं। पहली बात तो यह कि पलाश विश्‍वास को अपनी राजनीतिक दृष्टि साफ करनी चाहिए और समझना चाहिए कि संशोधनवादियों और क्रांतिकारी कम्‍युनिस्‍टों में फर्क है। दूसरी बात यह है कि आलोचना आदि के मसले में हक वगैरह की बात नहीं करनी चाहिए। अगर अम्‍बेडकरवाद में इतना दम है तो उसे किसी भी कोने से आने वाली आलोचना का जवाब देना चाहिए, चाहे यह आलोचना कांग्रेस की पूंछ में कंघी करने वाले सीपीआई, सीपीएम की ही क्‍यों न हो। क्‍या अम्‍बेडकर ने गांधी से बहस नहीं की थी बहस से भागने का काम कायर और कमज़ोर करते हैं और वे ही ऐसी दलीलें देते हैं कि पहले अपने गिरेबान में झांको, वगैरह। क्‍योंकि ऐसे तो कोई बहस ही नहीं हो पायेगी। अब मान लीजिये कि कोई कहे कि अम्‍बेडकर ने कभी भी राष्‍ट्रीय मुक्ति आन्‍दोलन में कोई हिस्‍सा नहीं लिया इसलिए हम उनसे बहस नहीं करेंगे, या जिस समय तेलंगाना के दलितों का हत्‍याकाण्‍ड किया जा रहा था, वे नेहरू की सरकार में कानून मंत्री बनकर बैठे हुए थे, और उस समय उन्‍होंने एक शब्‍द भी इसके खिलाफ़ नहीं कहा, और अम्‍बेडकर के इन कर्मों के कारण हम उनसे बहस नहीं करेंगे, तो क्‍या यह कोई बात हुई? हमें तो लगता है कि अगर बहस विज्ञान और तर्क के धरातल पर हो तो किसी से भी बहस की जानी चाहिए क्‍योंकि इससे कुल मिलाकर सिद्धांत, तर्क और विज्ञान का भला होता है।

पलाश विश्‍वास घोषणा करते हैं कि जो भी अम्‍बेडकर और अम्‍बेडकरवाद की आलोचना करेगा वह ब्राह्मणवाद और दक्षिणपंथी हिन्‍दुत्‍वाद के साथ खड़ा है। यह वही भाषा है जो जॉर्ज बुश ने इस्‍तेमाल की थी, कि जो हमारे साथ नहीं है, वह आतंकवाद के साथ है, इस्‍लामी जेहादियों के साथ है। उसी प्रकार या तो आप अम्‍बेडकरवाद के साथ हैं, या फिर हिन्‍दुत्‍ववादी कट्टरपंथ के साथ। हमारा मानना है कि ये दोनों ही विकल्‍प नहीं हैं। गाइल्‍स देल्‍यूज़ ने इसी को 'डिस्‍जंक्टिव सिंथेसिस' कहा था, जिसका अर्थ है छद्म विकल्‍पों का युग्‍म जो अपने आपको दूसरे का विकल्‍प बताते हैं, लेकिन वास्‍तव में वे कोई विकल्‍प मुहैया नहीं कराते हैं। यही कारण है कि महाराष्‍ट्र में कई अम्‍बे‍डकरवादी दलितवादी संगठन अंबेडकर की कोई भी आलोचना नहीं सुनना चाहते। यदि कोई ऐसा करता है, तो उस पर वैसे ही हमले किये जाते हैं जैसे कि धार्मिक कट्टरंपथी अपने विचारधारात्‍मक शत्रुओं पर करते हैं। इसी से पता चलता है कि दोनों राजनीतियों की तार्किक परिणति काफी मिलती-जुलती है।

आगे पलाश विश्‍वास एक बार फिर से ज्‍योति बसु और सीपीएम आदि का हवाला देते हुए मार्क्‍सवादी का एक काल्‍पनिक पुतला खड़ा करते हैं और उस पर तीरों की बारिश शुरू कर देते हैं। लेकिन इससे कोई फायदा नहीं है, क्‍योंकि हम श्री विश्‍वास जैसे लोगों को बता देना चाहते हैं कि हम ज्‍योति बसु जैसों के कुकर्मों का जवाब देने के लिए यहां मौजूद नहीं हैं। हम ऐसे ही ग़द्दारों के खिलाफ़ लड़ते हुए खड़े हुए हैं, और हमारा पूरा राजनीतिक इतिहास संशोधनवाद और वामपंथी दुस्‍साहसवाद के खिलाफ़ संघर्ष की एक बानगी है। हमारी संगोष्‍ठी की तुलना जब पलाश विश्‍वास ने आरक्षण-विरोधी मंच से की है, तभी पता चल गया है कि पलाश विश्‍वास ने बिना हमारे विचार जाने तिलमिलाहट में लिखना शुरू कर दिया है और यही कारण है कि उनकी इस आलोचना में मूर्खतापूर्ण बयानबाज़ि‍यों की भरमार है। आलोचना का काम हमेशा ठंडे दिमाग़ से करना चाहिए। उस समय यदि आप अपनी पूर्वधारणाओं और पूर्वाग्रहों को हटाते नहीं हैं, और वस्‍तुपरक होकर नहीं लिखते तो बाद में बहुत पछताते हैं। आरक्षण पर हमारी अवस्थिति ही यही रही है कि इसका विरोध करना या इसका पक्ष लेना शासक वर्गों के ट्रैप में फंसना है। शासक वर्ग चाहता ही यही है कि हम इसके पक्ष या विपक्ष में अवस्थितियों का चुनाव करें। मूल मुद्दा यह है कि एक क्रांतिकारी आंदोलन को 'सभी को निशुल्‍क एवं समान शिक्षा और रोज़गार' के लिए संघर्ष करना चाहिए, न कि आरक्षण के लिए। एक दौर में आरक्षण एक बुर्जुआ जनवादी मांग बनती थी, लेकिन अब यह एक बुर्जुआ जनवादी विभ्रम है। अगर लगभग छह दशक के आरक्षण के बाद समूची दलित आबादी में से बमुश्किल 7-8 प्रतिशत लोगों को भी लाभ नहीं पहुंचा है, और यदि पिछले दो-ढाई दशक में जिन लोगों को लाभ पहुंच रहा है, वे उन्‍हीं 7-8 प्रतिशत हिस्‍सों से आते हैं, तो निश्चित तौर पर आप देख सकते हैं कि यह एक विभ्रम ज़्यादा और एक जनवादी अधिकार कम है। हमारा मानना है कि आरक्षण आज एक गै़र-मुद्दा है; असल मुद्दा है सभी को निशुल्‍क और समान शिक्षा और सभी को रोज़गार का। पलाश विश्‍वास को पूरी संगोष्‍ठी को आरक्षण-विरोधी मंच घोषित करने से पहले कम-से-कम संगोष्‍ठी में पेश आलेखों को पढ़ लेना चाहिए था। इतना तिलमिलाकर जल्‍दबाज़ी में टिप्‍पणी करने से बचना चाहिए, इससे उनकी साख को ही नुकसान पहुंचेगा, जो कि मुझे बताया गया है, एक बड़े वरिष्‍ठ पत्रकार की है।

अन्‍त में हम इतना और कहना चाहेंगे कि पलाश विश्‍वास को अगर संशोधनवादी नेताओं की आलोचना करनी ही है तो उन्‍हें उनके ब्राह्मण होने को केन्‍द्रीय मुद्दा बनाने से बचना चाहिए। यह भी एक प्रकार का इन्‍वर्टेड जातिवाद है। आपको अगर उनकी आलोचना करनी है तो उनकी राजनीति और विचारधारा की आलोचना करनी चाहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि संशोधनवादी कम्‍युनिस्‍ट पार्टियों के नेतृत्‍व या किसी भी पार्टी के नेतृत्‍व में सवर्ण ज़्यादा हैं या कम। दलित संगठन के लोग अक्‍सर कम्‍युनिस्‍ट पार्टियों के लोगों से पूछते हैं कि आपकी केन्‍द्रीय कमेटी में कितने दलित हैं। क्‍या आज के दलित संगठनों से पलटकर यह नहीं पूछा जा सकता कि आपके नेतृत्‍वकारी निकाय में कितने मज़दूर हैं। क्‍या सारे के सारे दलित संगठन आरक्षण का लाभ उठाकर मध्‍यवर्ग में पहुंच चुके दलितों की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्‍व नहीं करतेक्‍या सारे के सारे अम्‍बेडकरवादी संगठन स्‍वयं इन्‍हीं मध्‍यवर्गीय लोगों का जमावड़ा नहीं हैं? लेकिन इस पहलू की पहले आलोचना वह करेगा जिसके तर्क में दम नहीं है और जिसकी राजनीति की धुरी ही व्‍यक्तिगत अस्मिताओं के आधार पर राजनीति करना है। हम किसी भी संगठन की आलोचना का आधार उसके राजनीतिक और संगठनात्‍मक कार्यक्रम को बनायेंगे, उसकी विचारधारा को बनायेंगे, उसके दर्शन को बनायेंगे। पलाश विश्‍वास को व्‍यक्तिगत जातिगत पहचान के आधार पर लोगों की आलोचना नहीं करनी चाहिए क्‍योंकि लोगों ने स्‍वयं अपनी इस पहचान का चुनाव नहीं किया है। हम उन्‍हें सलाह देंगे कि राजनीतिक आलोचना के मूलभूत आचार का पालन करें।

हमने अम्‍बेडकर के अर्थशास्‍त्र, राजनीति, दर्शन और समाजशास्‍त्र की आलोचना चतुर्थ अरविन्‍द स्‍मृति संगोष्‍ठी के अपने आलेखों में पेश की है। आप उन आलेखों को पढ़ें और उनकी संजीदगी से आलोचना रखें, अपनी आलोचना में अपने सन्‍दर्भ दें, अम्‍बेडकर का एक अच्‍छा बचाव पेश करें, तब तो बहस कुछ जमेगी। ऐसी बचकानी आलोचनाओं से बचना चाहिए जिसमें पलाश विश्‍वास ने अम्‍बेडकरवाद, ब्राह्मणवाद, मनुस्‍मृति आदि जैसे शब्‍दों को लेकर कुछ जुमलेबाज़ी कर दी है (जिनमें से कुछ का तो हमें अर्थ भी नहीं समझ में आ रहा है, वाक्‍य संरचना ही व्‍याकरण के अनुसार गलत है; लेकिन हो सकता है कि टाइपोग्राफिकल गलती हो, इसलिए हम उस पर कोई टिप्‍पणी नहीं करेंगे) और हमारे ऊपर कुछ लेबल चस्‍पां कर दिये हैं। आपके लेबल चस्‍पां करने से कोई कुछ नहीं बन जाता, पलाश जी। अच्‍छा होगा कि आप बेहतर तरीके से अध्‍ययन करके ऐसी टिप्‍पणियां लिखें। उम्‍मीद है कि आगे, जैसा कि आपने वायदा किया है, आप हमारे एक-एक तर्क का जवाब देंगे। हम एक संजीदा आलोचना का इंतज़ार करेंगे।

जहां तक हमारा प्रश्‍न है, हमारा स्‍पष्‍ट मानना है कि दलित उत्‍पीड़न की घटनाओं के मसलों पर हम किसी भी जनवादी शक्ति के साथ संयुक्‍त मोर्चा बनाने के पक्षधर हैं, जिसमें कि अम्‍बेडकरवादी भी शामिल हैं। लेकिन अम्‍बेडकरवाद और क्रांतिकारी मार्क्‍सवाद के बीच किसी भी किस्‍म का संलयन संभव नहीं है, क्‍योंकि दोनों की विचारधारा और दर्शन, अर्थशास्‍त्र और राजनीति और साथ ही समाजशास्‍त्र भी बिल्‍कुल भिन्‍न है। अम्‍बेडकर भी दलित मुक्ति के पक्षधर थे और मार्क्‍सवाद भी हर प्रकार के शोषण और उत्‍पीड़न को खत्‍म करने की बात करता है इसलिए दोनों में एका बन सकता है, यह तर्क बिल्‍कुल वैसा ही है कि बकरी के भी चार टांगें और टेबल के भी चार टांगें, इसलिए बकरी टेबल है। क्रांतिकारी वामपंथियों को आज अम्‍बेडकर और अम्‍बेडकरवाद के प्रति एक सामूहिक 'अपराधबोध' से निकलने की जरूरत है, जो कि वैसे भी आधारहीन है। जाति प्रश्‍न की एक सही समझदारी कम्‍युनिस्‍ट आंदोलन के पास नहीं थी। लेकिन यह भी सच है कि जितने कम्‍युनिस्‍टों ने दलित मुक्ति के लिए खून बहाया है, उतना किसी ने भी नहीं बहाया है, चाहे वह तेलंगाना, तेभागा, पुनप्रा-वायलार के आंदोलन हों या फिर नक्‍सलबाड़ी और उसके बाद देश के तमाम हिस्‍सों में चले आंदोलन हों (जिसकी आलोचना आप वामपंथी दुस्‍साहसवाद के लिए कर सकते हैं, न कि दलितों के अधिकारों के लिए कुरबानी न देने के लिए)। इसलिए हम क्रांतिकारी कम्‍युनिस्‍टों का आह्वान करेंगे, कि अम्‍बेडकर के प्रश्‍न पर रक्षात्‍मक होने की ज़रूरत नहीं है। अम्‍बेडकर के दर्शन और विचारधारा की बेलाग-लपेट मार्क्‍सवादी आलोचना करने की ज़रूरत है। साथियो, अब रक्षात्‍मक होने का दौर ख़त्‍मअगर आप सही मायने में दलित मुक्ति की परियोजना को मुकाम तक पहुंचाना चाहते हैं, तो सबसे पहले इस विषय में गलत परियोजनाओं का खण्‍डन करें। अम्‍बेडकर की परियोजना भी उनमें से एक है।

इसलिए हम कहते हैं कि अब अम्‍बेडकरवाद के समक्ष कम्‍युनिस्‍टों के रीढ़विहीन आत्‍मसमर्पणवाद, माफीवाद का दौर ख़त्‍म; रक्षात्‍मक होने का दौर ख़त्‍म। अब एक सही क्रांतिकारी कम्‍युनिस्‍ट ज़मीन पर खड़े होकर जवाब देने का दौर शुरू हो चुका है। इसलिए ऐसा न समझा जाय कि अम्‍बेडकर को समूचा अपना कर ही दलित आबादी को साथ लिया जा सकता है। जो उच्‍च मध्‍यवर्गीय दलित बुद्धिजीवी और अम्‍बेडकरवादी सत्‍ता और शासकों का पक्ष चुन चुके हैं, वे इसी अस्मिता को मुद्दा बनाकर हर मार्क्‍सवादी आलोचना को ब्राह्मणवादी करार देंगे। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हमें जिन ग़रीब मेहनतकश दलितों को दलित मुक्ति, मज़दूरों की मुक्ति और पूरी मानवता की मुक्ति के संघर्ष में साथ लेना है, उनके लिए अम्‍बेडकर "सैक्रोसैंक्‍ट" नहीं हैं, और आलोचना से परे नहीं हैं वे जानते हैं कि अम्‍बेडकरवादी उपचार (रेमेडी) से अब तक न तो उन्‍हें कुछ मिला है, और न ही मिलेगा। उन्‍हें साथ लेने के लिए हमें किसी भी प्रकार के अपोलोजेटिक स्‍टैण्‍ड की जरूरत नहीं है। जैसा कि भगतसिंह ने अपने लेख 'अछूत समस्‍या' में कहा था, वे सच्‍चे सर्वहारा हैं, वे सोये हुए शेर हैं। उन्‍हें जागृत, गोलबंद और संगठित करना किसी भी क्रांतिकारी संगठन के अहम कार्यभारों में से एक है। अम्‍बेडकर का दर्शन और राजनीति उनके लिए एक विभ्रम का जाल खड़ा करते हैं। दलित अस्मिता को स्‍थापित करने में अम्‍बेडकर के योगदान को मानते हुए भी, उनकी समझौतापरस्‍त, संविधानवादी, व्‍यवहारवादी, और सुधारवादी विचारधारा के विभ्रमों को निर्ममता से तोड़ दिया जाना चाहिए। और अगर हम ऐसा कहते हैं तो इसमें ग़लत क्‍या है? क्‍या तुष्टिकरण करने और बहलाने-फुसलाने की रणनीति के ज़रिये दलित आबादी को क्रांति के कार्यक्रम के तहत गोलबंद किया जाना चाहिए, या फिर एक सही वैज्ञानिक, तार्किक और इंकलाबी कार्यक्रम के तहत? हमारा स्‍पष्‍ट मानना है कि अम्‍बेडकर के डेवीवाद, कल्‍याणवाद, व्‍यवहारवाद, उपकरणवाद और संवैधानिकतावाद की निर्मम आलोचना की ज़रूरत है। इस सवाल पर गोलमाल और तुष्टिकरण से पहले ही बहुत नुकसान पहुंच चुका है। कम-से-कम भविष्‍य में ऐसी भूल से बचा जाना चाहिए।

 बहस में सन्दर्भ के लिये इन्हें भी पढ़ें –

हाँ, डॉ. अम्‍बेडकर के पास दलित मुक्ति की कोई परियोजना नहीं थी

अगर लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता में आस्था हैं तो अंबेडकर हर मायने में प्रासंगिक हैं

हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है और वामपंथी अंबेडकर की एक बार फिर हत्या करना चाहते हैं!

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