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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Friday, March 22, 2013

जो बचा है उसमें कितनी है ‘सरकार’!


 

कांग्रेस नेतृत्व की कोशिश यही है कि किसी तरह से जोड़-तोड़ के सहारे सरकार अगले साल तक खिंच जाए। लेकिन, इस सरकार को चलाने के लिए उसे जो राजनीतिक कीमत देनी पडेगी, उसका अनुमान लगाकर पार्टी नेतृत्व चिंतित भी है। डीएमके ने सरकार से हटने का दो टूक फैसला कर लिया, तो शुरुआती दौर से ही सपा सुप्रीमो ने अपने कड़क तेवर दिखाने शुरू भी कर दिए हैं। पार्टी के महासचिव रामगोपाल यादव ने साफ-साफ कह दिया कि अभी तो उनकी पार्टी का समर्थन सरकार को है। लेकिन, कल क्या होगा? वे नहीं जानते। क्योंकि राजनीति तो संभावनाओं का खेल है।

 

प्रो. रामगोपाल ने मौजूदा राजनीति के 'सत्य' को इस मौके पर जिस अंदाज में उजागर किया है, उसके खास निहितार्थ समझे जा सकते हैं। संकेत यही हैं कि यदि कांग्रेस को सरकार चलानी है, तो उसे सपा की राजनीतिक जरूरतों के प्रति संवेदनशील रहने के लिए तैयार रहना होगा। लगे हाथ सपा ने अपनी नई ताकत का एक ट्रेलर भी दिखा डाला है। केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने सपा सुप्रीमो के लिए कुछ आपत्तिजनक बातें कही थीं। मंगलवार को ऐसा लगा था कि केंद्रीय मंत्री कमलनाथ के खेद जताने के बाद मामला सुलट गया है। सो, बेनी बाबू भी कुछ चैन में आ गए थे। लेकिन, डीएमके के निर्णायक फैसले के बाद सपा ने फिर केंद्रीय मंत्री का इस्तीफा मांग लिया।

 

बदली स्थितियों में सरकार के अस्तित्व के लिए मुलायम बहुत जरूरी हो गए हैं। जब उन्होंने बेनी का मुद्दा उठा दिया, तो कांग्रेस नेतृत्व उनके सामने गिड़गिड़ाता-सा नजर आया। कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी सदन में मुलायम के आसन के पास पहुंचीं। कुछ देर तक उनसे बात करती रहीं। बेनी को भी पीएम ने अपने यहां तलब किया। इसके बाद उन्होंने खेद जताने के लिए बयान जारी किया। जबकि एक दिन पहले तक यही मंत्री जी 'चौड़े' होकर कह रहे थे कि उन्होंने गुंडे को गुंडा कह दिया, तो इसमें आपत्तिजनक क्या है? यानी, उनका अंदाज एक मायने में राजनीतिक दादागीरी का था। लेकिन, 24 घंटे के अंदर राजनीति ऐसी बदली कि मंत्री जी की कुर्सी मुलायम की 'कृपा' पर ही टिक गई है।

 

श्रीलंका में तमिल मूल के नागरिकों के साथ बड़े पैमाने पर अत्याचार हुए हैं। इनके पीछे सेना की भी बड़ी भूमिका रही है। तमिलनाडु के क्षेत्रीय दलों के लिए पड़ोसी देश में तमिलों के साथ अत्याचार एक बड़ा भावनात्मक मुद्दा बन गया है। लोकसभा के आगामी चुनाव को देखते हुए खास तौर पर द्रमुक और अन्नाद्रुमक के बीच इस मुद्दे पर होड़ लगी रही है। द्रमुक के सुप्रीमो हैं एम. करुणानिधि। वे मनमोहन सरकार पर लगातार दबाव बढ़ा रहे थे कि भारत, संयुक्त राष्ट्र में श्रीलंका सरकार के खिलाफ वैश्विक लामबंदी की अगुवाई करे। इसके साथ ही संसद में तमिल मामले पर श्रीलंका सरकार के खिलाफ एक निंदा प्रस्ताव पास कराए। इसी मुद्दे पर दबाव बनाने के लिए उन्होंने सरकार को समर्थन वापसी का अल्टीमेटम दे दिया था।

 

कांग्रेस नेतृत्व ने डीएमके सुप्रीमो को समझाने के लिए एक बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की थी। इसी के तहत पी. चिदंबरम, गुलाम नबी आजाद व एके एंटनी जैसे वरिष्ठ मंत्रियों को चेन्नई भेजा गया था। इन लोगों ने आश्वासन दिया था कि सरकार, तमिल मामले में एक प्रस्ताव पास करेगी। लेकिन, इसमें शब्दों का चयन विपक्ष को भरोसे में लेकर किया जाएगा। रणनीतिकारों को लग रहा था कि बात बन गई है। लेकिन, चेन्नई में खेल बिगड़ गया था। इसके बाद कांग्रेस नेतृत्व दबी जुबान से करुणा की राजनीति को ब्लैकमेलिंग करार कर रही है। जबकि, डीएमके नेतृत्व कह रहा है कि उसने अपने मुद्दे के लिए केंद्र की सत्ता में लात मारकर, त्याग का परिचय दिया है।

 

डीएमके ने यूपीए से सारे राजनीतिक रिश्ते एक झटके में तोड़ लिए हैं। इस पार्टी के सभी पांच केंद्रीय मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया है। इस्तीफा देने के चंद मिनट बाद ही इन 'भूत' माननीयों के स्वर एकदम बदले नजर आए। एक मंत्री जी अनौपचारिक चर्चा में कहने लगे कि सरकार के अंदर करीब एक साल से उन लोगों का दम घुट रहा था। क्योंकि, सरकार लगातार किसान और गरीब विरोधी फैसले करती जा रही थी। राजनीति के ऐसे 'गिरगिटी' अंदाज की यह कोई पहली मिसाल नहीं है। इस दौर में तो ऐसी जुगाड़ राजनीति के तमाम रंग उभरने लगे हैं।

 

केंद्रीय मंत्री कमलनाथ ने कह भी दिया है कि संसदीय लोकतंत्र में पार्टी को अपनी सभी खिड़कियां और दरवाजे खोलकर रखने जरूरी हो जाते हैं। ये आने वालों के लिए भी खुले हैं और जाने वालों के लिए भी। 'आया राम, गया राम' का राजनीतिक जुमला भले ही हरियाणा जैसे राज्यों से चल निकला हो, लेकिन अब तो संसद में भी खुली खिड़की-दरवाजों का जुमला बोलकर 'न्यौता' दिया जा रहा है। एनडीए का एक महत्वपूर्ण घटक जदयू है। इसके वरिष्ठ नेता नीतीश कुमार बिहार में भाजपा के साथ गठबंधन सरकार चला रहे हैं। वे नरेंद्र मोदी के सवाल पर भाजपा नेतृत्व से कुपित हैं। ऐसे में, सेक्यूलर राजनीति का हवाला देकर वे केंद्र सरकार के प्रति खास नरमी दिखा रहे हैं। जोड़-तोड़ राजनीति के इस दौर में नीतीश की यह 'नरमी' भी कोई नया गुल खिला दे, तो हैरानी नहीं होनी चाहिए।

 

मुलायम सिंह, मनमोहन सरकार के संकटमोचक जरूर बन गए हैं। लेकिन, उनकी महत्वाकांक्षा किसी से छिपी नहीं है। वे गैर-भाजपा और गैर-कांग्रेस दलों की राजनीति को आगे बढ़ाने का सपना देख रहे हैं। जाहिर है कि तीसरा विकल्प सेहतमंद हुआ, तो मुलायम शिखर की कुर्सी का सपना देख सकते हैं। कल, सपा सुप्रीमो ने एनसीपी सुप्रीमो एवं केंद्रीय मंत्री शरद पवार से मुलाकात की थी। इस मुलाकात को भी नई जोड़-तोड़ से मिलाकर देखा जा रहा है।

 

एक साल के अंदर यूपीए गठबंधन से पांच दल अलग हो चुके हैं। 19 सांसदों वाली ममता बनर्जी ने सरकार से जाते-जाते उसे जनविरोधी करार किया था। दो सांसदों वाली झारखंड विकास पार्टी अलग हुई। एक-एक सांसद वाली बीसीके पार्टी और ओवैसी की पार्टी ने भी अलग-अलग कारणों से विदाई ले ली। अब यूपीए के पास एनसीपी, एनसी और राष्ट्रीय लोकदल बचे हैं। शरद पवार जाने-अनजाने कारणों से कांग्रेस नेतृत्व की राजनीतिक शैली से खुश नहीं माने जाते। ऐसे में, सवाल यही है कि सरकार चलाने के लिए जो लुंज-पुंज जमावड़ा बचा है, उसके सहारे इस सरकार की क्या धमक बचेगी? जबकि, उसके कई महत्वाकांक्षी एजेंडे अधूरे के अधूरे हैं।

 

 

वीरेंद्र सेंगर डीएलए (दिल्ली) के संपादक हैं।

virendrasengarnoida@gmail.com

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