Wednesday, 01 May 2013 11:45 |
रमणिका गुप्ता दूसरा बड़ा कारण था कोयला खदानों के माफिया और ठेकेदारों के माध्यम से, खासकर धनबाद में एकत्रित धन से, बिहार की सरकारों को अस्थिर करना। उन दिनों सरकार कांग्रेस की ही होती थी। कांगे्रस के मंत्री और मुख्यमंत्री बदलने के लिए हर छह महीने बाद इस पैसे के बल पर कोई न कोई मुहिम शुरू हो जाती थी। कोकिंग कोल का राष्ट्रीयकरण कर धनबाद में बीसीसीएल बनाने के यही दो मुख्य कारण थे। इस्पात संयंत्रों और कई ऊर्जा परियोजनाओं के लिए भारत में कोयला ही एकमात्र स्रोत था। संयंत्रों का चलना जरूरी था। इसलिए राष्ट्रीयकरण हुआ। फिर आज ऐसा क्या हो गया कि उसे खत्म किया जा रहा है? सरकार जो कानून पास करने की योजना बना रही है उससे कुछ राहत तो जरूर मिलेगी, लेकिन किसानों, आदिवासियों और दलितों को पूरा न्याय देने के लिए अभी बहुत कुछ करना बाकी है। आज भी स्थानीय समुदाय, विशेष रूप से आदिवासी आबादी विस्थापन ही नहीं बहु-विस्थापन झेल रही है। अधिकतर कोयला क्षेत्र आदिवासी बहुल हैं। अब भी इन क्षेत्रों में पांचवीं अनुसूची लागू नहीं की गई है। इन दोनों प्रावधानों के तहत राज्यपाल को हस्तक्षेप करने का अधिकार है। सरकार ने वनभूमि अधिनियम या अनुसूची के तहत आने वाली जमीन के अधिग्रहण के लिए केवल ग्राम-सभा की मंजूरी को अनिवार्य माना है। वनों में बसने वालों की सहमति लेना आवश्यक नहीं माना। वन अधिनियम के कई प्रावधान विवादित हैं और उनके चलते वनों में निवास करने वालों के लिए दावे दायर करना या फिर उनके दावों को मंजूरी मिल पाना बहुत मुश्किल हो गया है। जमीन पर मिल्कियत का दावा करने वाले गैर-आदिवासियों या अन्य परंपरागत निवासियों के लिए सरकार ने पचहत्तर वर्षों से उस जमीन पर निवास के प्रमाण देने की शर्त रखी है। इससे भी कठिनाइयां आ रही हैं और उनके दावे अस्वीकृत हो गए हैं। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि आदिवासियों के दावे अस्वीकृत होने की दर काफी ऊंची है। सरकार ने अलग से आदिवासियों के अस्वीकृत दावों की संख्या नहीं दर्शाई। पर उसने यह स्वीकार किया है कि कुल दावों में से साठ प्रतिशत नकार दिए गए हैं। यह उल्लेखनीय है कि कांग्रेस और भाजपा के शासन वाले राज्यों में दायर दावों की संख्या काफी कम है। कांग्रेस शासित राज्यों में स्वीकृत दावे आंध्र प्रदेश में इक्यावन फीसद, महाराष्ट्र में उनतीस फीसद और राजस्थान में पचास फीसद हैं। जबकि भाजपा शासित राज्यों की स्थिति इस संदर्भ में काफी बदतर है। छत्तीसगढ़ में चौवालीस प्रतिशत, मध्यप्रदेश में साढ़े छत्तीस प्रतिशत और गुजरात में बीस प्रतिशत दावे ही स्वीकृत किए गए हैं। हालांकि छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में आदिवासियों की आबादी अच्छी-खासी है। जबकि वामशासित राज्यों में स्थिति इससे बेहतर है। त्रिपुरा में पैंसठ प्रतिशत दावे स्वीकृत किए गए हैं। केरल में यह आंकड़ा बासठ प्रतिशत है जहां वाम मोर्चा की सरकार थी। वन अधिनियम के तहत तो आदिवासियों की जमीन लेनी ही नहीं चाहिए, चूंकि यह जमीन पांचवीं अनुसूची में आती हैं। भू-अर्जन अधिनियम पांचवीं अनुसूची को भी नजरअंदाज करता है। ऐसी जमीन जो पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत हैं, उस पर भी धड़ल्ले से करार किए जा रहे हैं। फलत: भारी संख्या में आदिवासी विस्थापन का दंश झेलने को अभिशप्त हैं। वनों में रहने वाले आदिवासियों की जमीन जहां पांचवीं अनुसूची में आती है वहीं वन अधिनियम के तहत भी। सरकार ने इस जमीन की बाबत आदिवासियों की सहमति की शर्त नहीं रखी। यह एक प्रकार से आदिवासियों को पांचवीं अनुसूची में दिए गए उनके अधिकारों से वंचित रखना है। जंगल सीमांकन के विवाद अलग से आदिवासियों को आतंकित किए रहते हैं। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/43614-2013-05-01-06-16-41 |
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Thursday, May 2, 2013
भूमि अधिग्रहण और आदिवासी
भूमि अधिग्रहण और आदिवासी
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