जंग मगरिब में हो या मशरिक में, उसका विरोध होना ही चाहिये
लद्दाख क्षेत्र में चीनी सेना भारत के इलाक में घुस गयी है और करीब बीस किलोमीटर अन्दर आकर अपने टेन्ट लगा दिये हैं। गाफिल पड़े भारतीय मिलिटरी इन्टेलिजेन्स वालों की तरफ से तरह-तरह की व्याख्याएं सुनने को मिल रही हैं लेकिन सच्चाई यह है कि भारतीय सीमा में चीनी सैनिक जम गये हैं और ताज़ा जानकारी के मुताबिक वे वहाँ से हटने को तैयार नहीं हैं। जम्मू-कश्मीर में लद्दाख के दौलत बेग ओल्डी सेक्टर में घुसे चीनी सैनिकों ने यहाँ अपना एक और तम्बू गाड़ कर अस्थायी चौकी बना ली है। चीन के टेन्ट को हटाने की कूटनीतिक कोशिशें जारी हैं लेकिन चीनी सेना फिलहाल पीछे हटने को तैयार नहीं है। दोनों पक्षों के बीच तीन बार फ्लैग मीटिंग होने के बावजूद चीन अपने रुख पर अड़ा हुआ है। इस मसले को बातचीत से सुलझाने की बजाय चीनी सैनिक भारतीय क्षेत्र में और भीतर तक बढ़ने की कोशिश में हैं। सूत्र बताते हैं कि घुसपैठ कर रहे चीनी सैनिकों के पास आधुनिक हथियार हैं और वे वापस जाने के लिये नहीं आये हैं।
यूपीए के मुख्य सहयोगी समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने लोक सभा में लद्दाख क्षेत्र में चीनी घुसपैठ के मुद्दे को बहुत जोर शोर से उठाया। उन्होंने कहा कि डॉ. राम मनोहर लोहिया ने आज़ादी के बाद ही जवाहर लाल नेहरू को चेतावनी दे दी थी कि चीन के इरादों से चौकन्ना रहें लेकिन नेहरू ने उनकी बात को तवज्जो नहीं दी और चीन से दोस्ती का राग जारी रखा। जब तत्कालीन चीनी प्रधानमन्त्री चाउ एन लाइ भारत आये थे तब भी डॉ. लोहिया ने उनकी मंशा पर नज़र रखने को कहा था लेकिन जवाहरलाल नेहरू उन दिनों पंचशील की बात पर अड़े हुये थे। जब 1962 में चीन ने हमला कर दिया तब नेहरू की आँखें खुलीं लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और चीन ने भारत को पीछे हटने को मजबूर कर दिया था। मौजूदा चीनी कार्रवाई के बारे में मुलायम सिंह यादव ने कहा कि सरकार इस मामले में हाथ में हाथ धरे बैठी है। उन्होंने आरोप लगाया कि सरकार घुसपैठ की समस्या से निपटने में कायरों की तरह काम कर रही है। उन्होंने चीन को भारत का सबसे बड़ा दुश्मन बताया और कहा कि पाकिस्तान हमारा दुश्मन नहीं है। उन्होंने कहा कि हम कई वर्षों से चेतावनी दे रहे हैं कि चीन ने हमारे क्षेत्र पर कब्जा करना शुरू कर दिया है। लेकिन सरकार है कि सुनने को तैयार नहीं है।"
मुलायम सिंह यादव ने कहा सेना चीन को खदेड़ने के लिये तैयार है लेकिन सरकार की तरफ से इस मामले में भी ढिलाई बरती जा रही है। मुलायम सिंह ने दावा किया कि "ये सरकार कायर, अक्षम और बेकार है।" साथ ही उन्होंने खुर्शीद के चीन की यात्रा पर जाने के मामले में भी सवाल उठाये। चीन के प्रधानमन्त्री की अगले महीने होने वाली भारत यात्रा की तैयारियों के सिलसिले में खुर्शीद नौ मई को चीन जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि जब चीन हमारे क्षेत्र में घुस रहा है क्या विदेश मन्त्री चीन के दौरे पर भीख माँगने जा रहे हैं।
मुलायम सिंह यादव ने सरकार से यह भी कहा कि जब सेना प्रमुख कह रहे हैं कि वे चीनियों को वापस खदेड़ने के लिये तैयार हैं तो सरकार क्यों नहीं क़दम उठाती। मुलायम सिंह को यह पता होना चाहिये कि अगर सरकार फौज के ज़रिये सीमा की समस्या का हल निकालने की कोशिश करेगी तो युद्ध होगा और डॉ. राम मनोहर लोहिया कभी भी युद्ध के पक्ष में नहीं थे। वे हमेशा शान्ति पूर्ण तरीके से ही समस्या का हल निकालने के पक्षधर रहे क्योंकि जंग मगरिब में या कि मशरिक में, खून गरीब इंसान का ही बहता है। सत्ताधीश तो खून बहाने के बाद शान्ति समझौते करते नज़र आते हैं।
1962 की लड़ाई के बाद भारत और चीन के सम्बन्ध बहुत बिगड़ गये थे। दोनों देशों के बीच में कूटनीतिक सम्बन्ध भी खत्म हो गये थे लेकिन जब अमरीका ने हेनरी कीसिंजर के दौर में चीन से दोस्ती बढ़ानी शुरू की तो बाकी दुनिया में भी माहौल बदला और भारत ने चीन के साथ दोबारा 1976 में कूटनीतिक सम्बन्ध कायम कर लिया लेकिन दोनों देशों के बीच जो चार हज़ार किलोमीटर की सीमा है उसमें जगह जगह पर विवाद के मौके पैदा होते रहते हैं। चीन के 1962 के हमले के पचास साल बाद भी आज दोनों देशों के बीच सीमा का विवाद कहीं से भी हल होता नज़र नहीं आता। सीमा के इलाकों में कई ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ दोनों ही देश अपनी दावेदारी की बात करते हैं। लद्दाख में बहुत बड़े भारतीय भूभाग पर चीन का कब्जा है। वह उसको अपना बताता है और उसका दावा है कि बाकी लद्दाख भी उसी के पास होना चाहिये। अरुणाचल प्रदेश को भी चीन अपना बताता है और सारी दुनिया में कहता फिरता है कि भारत ने उसके इलाके पर कब्जा कर रखा है। अरुणाचल के विवाद की जड़ में पूर्वी भाग की करीब नौ सौ किलोमीटर की सीमा पर झगड़ा है। करीब सौ साल पहले 1914 में सर हेनरी मैकमोहन ने तिब्बत और ब्रिटेन के बीच इस विवाद को सुलझा देने का दावा किया था। तिब्बत तब एक स्वतन्त्र देश हुआ करता था। आजकल तो चीन का कब्जे में है। जो सीमा रेखा तय हुयी थी उसको ही आज मैकमोहन लाइनकहते हैं। जब ब्रिटेन और तिब्बत के बीच सीमा की बातचीत चल रही थी तो भारत तो पूरी तरह से ब्रिटेन के अधीन था। ज़ाहिर है कि उसका हित ब्रिटेन ही देख रहा था और ब्रिटेन एक ताक़तवर साम्राज्य था इसलिये उस विवाद को सुलझाने में सर हेनरी मैकमोहन ने चीन को भी केवल आब्ज़र्वर की हैसियत ही दी थी, उसको विचार विमर्श में शामिल नहीं किया था। मैकमोहन लाइन की एक खास बात यह भी है कि वह बहुत मोटी निब वाले कलम से मार्क की गयी थी जिसकी वजह से गलती का मार्जिन दस किलोमीटर तक का है। 890 किलोमीटर की सीमा में अगर दस किलोमीटर का गलती का
मार्जिन है तो वह करीब 8900 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को विवाद की ज़द में तुरन्त ही स्थापित कर देता है। उत्तराखण्ड के इलाके में भी भारत और चीन का सीमा विवाद होता ही रहता है क्योंकि बहुत सारे इलाके ऐसे हैं जहाँ भारतीय और चीनी सैनिक पहुँच ही नहीं सकते। नतीजा यह होता है कि सेना के साथ काम करने वाले कुत्तों का इस्तेमाल ही अपनी सीमाओं को रेखांकित करने के लिये किया जाता है।
भारत और चीन के बीच में कई बार ऐसे माहौल को देखा गया है जैसा कि आजकल बना हुआ है। एक बार तो 1986 में ऐसा लगने लगा था कि उत्तरी तवांग जिले में फौजें भिड़ जायेंगी। भारत ने भी अपने करीब दो लाख सैनिक वहाँ भेज दिये थे लेकिन बात संभल गयी। सच्चाई यह है कि दोनों देशों के बीच में 1962 की लड़ाई के बाद बहुत ही तल्ख़ रिश्ते बन गये थे और 1967 तक कभी कभार सीमा पर तैनात दोनों देशों के सैनिकों के बीच गोली भी चल जाया करती थी लेकिन 1967 के बाद दोनों देशों के बीच एक भी गोली नहीं चली है। 1962 की अपमानजनक हार के बाद भारत में चीन को लेकर बहुत चिन्तायें हैं। चीन के साथ किसी तरह की दोस्ती की बात को आगे बढ़ा पाना भारतीय राजनेताओं के लिये लगभग असंभव होता है। लेकिन दोनों देशों के बीच के झगड़े को खत्म करने का एक ही तरीका है कि भारत और चीन यह बात स्वीकार कर लें कि जो जहाँ है, वहीं ठीक है। भारत के बहुत बड़े भूभाग पर चीन का कब्जा है। कश्मीर और लद्दाख में कई जगहों पर चीन ने पाकिस्तान के साथ मिलकर भारतीय ज़मीन पर कब्जा कर रखा है। चीन दावा करता है कि अरुणाचल प्रदेश समेत एक बड़ा हिस्सा उसका है जिस पर भारत का कब्जा है। ज़ाहिर है कि दोनों ही देश सैनिक ताक़त में बहुत मज़बूत हैं। दोनों ही परमाणु हथियार सम्पन्न देश हैं और आर्थिक ताक़त भी बन रहे हैं। न चीन भारत को हड़का सकता है और न ही चीन भारत से डरने वाला है। ज़ाहिर है दोनों देशों के विवाद को हल करने में सेना का कोई योगदान नहीं होगा। जो भी हल निकलेगा वह बातचीत से ही निकलेगा। और बातचीत में सहमति का सबसे मज़बूत आधार स्टेट्स को यानी यथास्थिति को बनाये रख कर समझौता करना ही हो सकता है। इस तरह का प्रस्ताव अस्सी के दशक में चीन के प्रधानमन्त्री डेंग शाओपिंग दे भी चुके हैं लेकिन भारत में यथास्थिति को बरकरार रख कर कोई समझौता करने वाली पार्टी और उसका नेता राजनीतिक रूप से समाप्त हो जायेगा। इन खतरों के बावजूद 2003 में भाजपा की अगुवाई वाली सरकार ने पहल की और वाजपेयी सरकार ने यथास्थिति के सिद्धान्त का पालन करते हुये शान्ति स्थापित करने की कोशिश शुरू की। चीन ने भी जो ज़मीन भारत के पास है उसको भारत का मानने की नीति पर काम करना शुरू कर दिया। दोनों देशों ने इस काम के लिये विशेष दूतों की तैनाती की और बातचीत का सिलसिला चल पड़ा। अब तक इस सन्दर्भ में दो दर्ज़न से ज्यादा बैठकें हो चुकी हैं। 2005 में एक समझौता भी हुआ जिसमें सम्भावित अन्तिम समझौते के दिशा निर्देश और राजनीतिक आयाम को शामिल किया गया है। इस समझौते में यह भी लिखा है कि आबादी का विस्थापन नहीं होगा। इसका मतलब यह हुआ कि चीन तवांग जिले पर अपनी दावेदारी को भूलने को तैयार था। लेकिन बाद में सब कुछ बिगड गया। चीन ने मीडिया और अपने नेताओं के ज़रिये अजीबोगरीब बातें करना शुरू कर दिया और कश्मीर और अरुणाचल प्रदेश के नागरिकों के लिये अलग तरह का वीजा देना शुरू कर दिया। जिसके कारण रिश्ते खराब होते गये। चीन ने सीमा के पास बहुत ही अच्छी सड़कें बना ली हैं और भारत ने भी असम के आसपास अपनी सैनिक मौजूदगी को और पुख्ता किया है। दोनों देशों के बीच जो अविश्वास का माहौल बना है उसके चलते सब कुछ गड़बड़ होने की दिशा में पिछले कई वर्षों से चल रहा है और लद्दाख के दौलत बेग ओल्डी सेकटर में चीनी सैनिकों का आगे बढ़ कर अपने टेन्ट लगा देना उन्हीं बिगड़ते रिश्तों का एक नमूना है। लेकिन बिगड़ते रिश्तों को ठीक करने की कोशिश की जानी चाहिये, उसके लिये हर तरह के प्रयास किये जाने चाहिये क्योंकि दोनों देशों के बीच अगर युद्ध की स्थिति बनी तो खून तो गरीब आदमी का ही बहेगा।
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